– राकेश अचल
दुनिया में मंहगाई एक ऐसा अश्व यानि घोडा है जिसका कोई मालिक नहीं है। कोई सरकार इस घोडे की लगाम थामने में आज तक कामयाब नहीं हुई। पहले इस मंहगाई के घोडे की लगाम कसने के लिए जनता भी हडताल और आंदोलन कर सरकारों पर दबाब बनाती थी, किन्तु अब जनता ने मंहगाई को अपना नसीब मान लिया है। भारत में मंहगाई भगवान का कोप मानी जाती है। कोई भी अब इसे सरकार की नाकामी नहीं मानता। माने भी कैसे, ये तो अजर-अमर है।
भारत में जून महीने में खाने-पीने का सामान महंगा हो गया है, जिसकी वजह से खुदरा महंगाई दर में फिर से इजाफा हो गया, लेकिन किसी ने चूं तक नहीं की। पिछले कुछ महीनों से सीपीआई के आंकडों में गिरावट देखने को मिल रही थी, लेकिन जून महीने में इनमें इजाफा हो गया है। खाद्य उत्पादों की कीमतें बढऩे से जून में खुदरा मुद्रास्फीति बढक़र तीन महीनों के उच्च स्तर 4.81 प्रतिशत पर पहुंच गई। हमारी सरकार या सरकारें न मंहगाई को रोक पाती हैं और न मुद्रास्फीति को। दोनों अपने आप आसमान छूती हैं।
दरअसल घोडे मंहगाई से भी पुराने हैं, उपलब्ध सूचनाएं बताती हैं कि मनुष्य ने ईसा पूर्व चार हजार साल पहले ही घोडे पालना शुरू कर दिया था। तब न बाजार था और न मंहगाई। सरकार तो थी ही नहीं। कालान्तर में यही घोडा जनता के लिए मुसीबत बन गया है। घोडे दो प्रकार के होते हैं, एक पालतू घोडा और दूसरा जंगली घोडा। पालतू घोडे के मुंह में आदमी लगाम लगा सकता है। लेकिन जंगली घोडा बे-लगाम होता है, ठीक नील गाय की तरह। जंगली घोडा वैसे तो अब लुप्तप्राय है, किन्तु उसने आबादी को ही जंगल समझ लिया है। जंगली घोडा ही कालांतर में मंहगाई का अवतार है।
मंहगाई के घोडे की लगाम भले ही सरकार के हाथ में नहीं होती, लेकिन मंहगाई के घोडे ने कितना चर लिया इसकी जानकारी सरकार के पास जरूर होती है। इसे अर्थशास्त्र की भाषा में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक कहते हैं। सरकार ने बुधवार को उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति के आंकडे जारी किए तो पता चला कि मई यानि आषाढ़ में खुदरा मुद्रास्फीति 4.31 प्रतिशत रही थी, जबकि साल भर पहले जून 2022 में यह सात प्रतिशत थी। जून में खाद्य उत्पादों की मुद्रास्फीति 4.49 प्रतिशत रही, जबकि मई में यह 2.96 प्रतिशत थी। सीपीआई में खाद्य उत्पादों का भारांक लगभग आधा होता है। जून में खुदरा मुद्रास्फीति की दर बढऩे के बावजूद यह भारतीय रिजर्व बैंक के छह प्रतिशत के संतोषजनक स्तर के नीचे है। अब ऐसे में जनता असंतुष्ट कैसे हो सकती है?
विसंगति ये है कि मंहगाई के घोडे की चाल की समीक्षा जनता नहीं, हमारी रिजर्व बैंक करती है। सरकार ने रिजर्व बैंक को खुदरा मुद्रास्फीति को दो प्रतिशत घट-बढ़ के साथ चार प्रतिशत तक सीमित रखने का दायित्व सौंपा हुआ है। रिजर्व बैंक खुदरा मुद्रास्फीति के आंकडे को ध्यान में रखते हुए द्विमासिक मौद्रिक समीक्षा करती है। मंहगाई का घोडा आपका टमाटर, जीरा, दालें, तेल, दवाएं यानि जो मनुष्य के इस्तेमाल की चीजें हैं, सभी पर अपना असर छोडता है। मंहगाई का घोडा न रसोई को छोडता है और न पूजाघर को। उसे तो बस चरने से काम है। घोडे के कुनबे में गधा, जेबरा, भोट-खर, टट्टू, घोड-खर एवं खच्चर भी शामिल हैं, किन्तु सबसे ज्यादा चराई घोडा ही करता है।
विश्व सम्राट या विश्वगुरू बनने की कामना रखने वाले लोग प्राय घोडे को छुट्टा छोड देते हैं। इसे अश्वमेघ का घोडा कहते हैं। सरकार ने भी विश्वगुरू बनने के लिए अपना अश्व छोडा, किन्तु ये दुनिया में विचरने के बजाय हमारे देश में ही जहां-तहां मुंह मारता दिखाई देता है। जो मिला रहा है उसे साफ किए दे रहा है। जनता मंहगाई के इस बे-लगाम घोडे के खुरों से रोंदी जा रही है। किसी को भी इस बे-लगाम घोडे के टापों की आवाज नहीं सुनाई देती। ये कब आता है, कब जाता है कोई नहीं जानता? वैसे अब कोई मंहगाई के घोडे के उत्पात की चर्चा भी नहीं करता। चर्चा के लिए यूसीसी है, कांग्रेस का एटीएम है। भ्रष्टाचारियों को डरा-धमका कर उपमुख्यमंत्री और मंत्री बनाना है। ऐसे में मंहगाई के घोडे की चर्चा क्या करना?
मुझे याद है कि पहले संसद से सडक तक मंहगाई के इस घोडे के उपद्रव की चर्चा होती थी। हमारे जन प्रतिनिधि एप्रिन पहनकर उसके ऊपर मंहगाई विरोधी नारे लिखकर संसद और विधानसभाओं में जाते थे। लेकिन अब ऐसा नहीं होता। हमारे सूबे में तो विधानसभा का सत्र नाम के लिए बुलाया जाता है। पांच दिन का सत्र एक दिन में निबटा दिया जाता है। मंहगाई के घोडे पर खाक चर्चा करेगा कोई? मंहगाई का घोडा मस्त और जनता पस्त है, नेता सुस्त है।
विशेषज्ञ बताते हैं कि अश्व पुरातन काल से ही इतना तीव्रगामी और शक्तिशाली नहीं था जितना वह आज है। नियंत्रित सुप्रजनन द्वारा अनेक अच्छे घोडे संभव हो सके। यहां तक कि घोडों की ताकत से प्रभावित होकर ही मनुष्य ने मशीनों की ताकत की माप के लिए अश्वशक्ति कह कर सम्मानित किया। कालांतर में ये घोडे राजीनीति में भी मौजूद है। इन्हें खरीदना-बेचना बहुत आसान है। राजनीति में घोडों यानि जनप्रतिनिधियों की खरीद -फरोख्त को ‘हार्स ट्रेडिंग’ कहा जाता है। बिकने वाले घोडों को मुंह मांगे दाम मिलते हैं, सहूलियतें अलग। आज मंहगाई के घोडों के मुकाबले बिकने वाले घोडों की तरफ सरकार का ध्यान ज्यादा है। सरकार को पता है कि अब जनता मंहगाई के घोडे के उपद्रव को बुरा नहीं मानती। आंखें बंद कर अपनी दुर्दशा पर रो लेती है, किन्तु न सडकों पर उतरती है और न सरकारों को इसकी सजा देती है। जनता को सजा देने का अधिकार है ही नहीं। मान लीजिए कि यदि था भी तो उसे लाडली बहनों, भांजों, भांजियों, आंगनवाडी कार्यकर्ताओं, बेरोजगार युवाओं को मुफ्त का माल देकर छीन लिया गया है। यहां तक कि हमारी सरकार ने तो इस अधिकार को पांच किलो अन्न मुफ्त में देकर हडप लिया।
दरअसल मंहगाई के घोडे पर लगाम लगाने से ज्यादा जरूरी चुनाव जीतना है। वैसे सब घोडे मंहगाई के घोडों की तरह बे-लगाम नहीं होते। कुछ घोडे चेतक जैसे भी होते हैं। चेतक को नहीं जानते आप? महाराणा प्रताप के सबसे प्रिय और प्रसिद्ध घोडे का नाम चेतक था। चेतक अश्व गुजरात के चारण व्यापारी काठियावाडी नस्ल के तीन घोडे चेतक, त्राटक और अटक लेकर मेवाड आए। अटक परीक्षण में काम आ गया। त्राटक महाराणा प्रताप ने उनके छोटे भाई शक्ती सिंह को दे दिया और चेतक को स्वयं रख लिया। इन घोडों के बदले महाराणा ने चारण व्यापारियों को जागीर में गढ़वाडा और भानोल नामक दो गांव भेंट किए। चेतक स्वामिभक्त था, मंहगाई का घोडा सरकार भक्त है।
कहते हैं कि 1576 के हल्दीघाटी के युद्ध में चेतक ने अपनी अद्वितीय स्वामिभक्ति, बुद्धिमत्ता एवं वीरता का परिचय दिया था। युद्ध में बुरी तरह घायल हो जाने पर भी महाराणा प्रताप को सुरक्षित रणभूमि से निकाल लाने में सफल रहा। उस क्रम में चेतक ने 25 फिट नाले को छलांग लगाकर पार किया, लेकिन बुरी तरह घायल हो जाने के कारण अंतत: वीरगति को प्राप्त हुआ। लेकिन मंहगाई का चेतक छलांग पर छलांग लगा रहा है, लेकिन वीर गति के बजाय धीर्गति को प्राप्त हो रहा है। जनता को मंहगाई के चेतक के शहीद होने का इंतजार है। पता नहीं कब और कौन सी सरकार मंहगाई के घोडे को शहीद होने का अवसर देगी। वैसे हर चुनाव में जनता को सरकार पर इस घोडे को काबू में करने के लिए दबाब बनाने का मौका मिलता है, किन्तु जनता हर बार भूल कर देती है। कभी-कभी ईवीएम उससे गलती करा लेती है तो कभी कोई और बहुरूपिया।