– राकेश अचल
खबर बहुत छोटी है किन्तु हमारी पुरुष प्रधान और नारी विरोधी मानसिकता को प्रदर्शित करने के लिए इसे बड़ा बनाया जाना आवश्यक है। खबर है कि मध्य प्रदेश में एक सरकारी स्कूल में सीसीएलई प्रशिक्षण कार्यक्रम के दौरान हुए सांस्कृतिक कार्यक्रम में नाचने पर स्कूल की प्रभारी प्राचार्य को निलंबित कर दिया गया। सरकार मानती है कि प्रभारी प्राचार्य का नाचना मप्र सिविल सेवा आचरण नियम 1965 के नियम-3 के तहत कदाचरण, गंभीर लापरवाही और अनुशासनहीनता की श्रेणी में आता है।
मप्र के शिवपुरी जिले के करेरा कस्बे में प्रभारी प्राचार्य श्रीमती संगीता मांझी ने नाचने की गलती की। संगीता के साथ एक और प्रभारी प्राचार्य संजीव अग्रवाल इसलिए निलंबित किए गए क्योंकि उन्होंने संगीता जी को नाचने दिया, रोका नहीं। सरकार का मानना है कि संगीता जी के नाचने का वीडियो वायरल होने से शिक्षा विभाग की छवि धूमिल हुई है। मप्र के शिक्षा विभाग की छवि परीक्षाओं के पर्चे लीक होने से धूमिल नहीं होती, नाचने से होती है। संगीता जी के नृत्य में अश्लीलता थी या नहीं ये तय करने वाले लोग क्या दक्ष नर्तक हैं या लकीर के फकीर?
मप्र में जिस पार्टी की सरकार है, वहां बजरंगी भाई ‘वैलेंटाइन डे’ पर सार्वजनिक स्थलों पर बैठे लोगों को आतंकित करते हैं और प्रशासन सांस्कृतिक कार्यक्रमों में नृत्य करने पर निलंबन का आदेश थमा देता है। सनातन में भरोसा करने वाली सरकार नृत्य के बारे में बहुत कुछ जानती होती तो शायद संगीता के साथ इस तरह की तालिबानी कार्रवाई नहीं करती। सरकार को नहीं पता कि नृत्य किसी भी कानून में अपराध नहीं माना गया है। हमारे समाज ने नृत्य एक शाश्वत कला है। प्रकृति ने नाचने का गुण सभी को दिया है। पशु-पक्षी से लेकर मानव तक बिना नाचे नहीं रह सकते। हमारे यहां तो खुद भगवान शिव नटराज माने जाते हैं, फिर नाचना अपराध और कदाचरण आखिर कैसे मान लिया गया और क्यों मान लिया गया?
अश्लीलता का समर्थक कोई नहीं हो सकता, किन्तु श्रीमती संगीता का नृत्य अश्लीलता की श्रेणी में आता है, ये कैसे मान लिया गया। मैंने संगीता का कथित अश्लील नृत्य का वीडियो देखा है। मुझे तो उसमें कोई अश्लीलता नजर नहीं आती। मुमकिन है कि मेरी नजर खराब हो, लेकिन कोई दूसरा भी यदि इसे अश्लील माने तो बात है। संगीता का निलंबन एक तरह की प्रताडऩा है। इस प्रताडऩा के लिए संभाग आयुक्त को ताडऩा मिलना चाहिए। आयुक्त महोदय शायद ये नहीं जानते कि भारतीय संस्कृति एवं धर्म की आरंभ से ही मुख्यत: नृत्यकला से जुड़े रहे हैं। देवेन्द्र इन्द्र का अच्छा नर्तक होना तथा स्वर्ग में अप्सराओं के अनवरत नृत्य की धारणा से हम भारतीयों के प्राचीन काल से नृत्य से जुड़ाव की ओर ही संकेत करता है। विश्वामित्र-मेनका का भी उदाहरण ऐसा ही है। स्पष्ट ही है कि हम आरंभ से ही नृत्यकला को धर्म से जोड़ते आए हैं। पत्थर के समान कठोर व दृढ़ प्रतिज्ञ मानव हृदय को भी मोम सदृश पिघलाने की शक्ति इस कला में है। यही इसका मनोवैज्ञानिक पक्ष है। जिसके कारण यह मनोरंजक तो है ही धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष का साधन भी है। स्व परमानंद प्राप्ति का साधन भी है। अगर ऐसा नहीं होता तो यह कला-धारा पुराणों-श्रुतियों से होती हुई आज तक अपने शास्त्रीय स्वरूप में धरोहर के रूप में हम तक प्रवाहित न होती।
मप्र में किसी सांस्कृतिक समारोह में नृत्य करने पर किसी शासकीय सेवक कि निलंबन का ये सबसे विचित्र मामला है। ये मामला बताता है कि केवल सत्तारूढ़ दल ही नहीं, अपितु पूरी नौकरशाही भी तालिबानी मानसिकता की हो गई है। मुझे पूरा यकीन है कि यदि संगीता माझी इस मामले को लेकर अदालत जाए तो उसे न्याय मिल सकता है, लेकिन एक शासकीय सेवक की इतनी हैसियत नहीं होती कि वो अपने किसी वरिष्ठ कि आदेश कि खिलाफ अदालत में खड़ा हो। संगीता माझी भी अनंतकाल के लिए निलंबित नहीं रहने वाली। एक-दो स्पष्टीकरण लेने कि बाद उन्हें भी बहाल कर दिया जाएगा। असल सवाल तो ये है कि क्या हमारे समाज में नृत्य को भी अनुशासन से जोड़ा जा सकता है।
श्रीमती संगीता माझी ने नृत्य अपनों के बीच किया और तब किया जब प्रशिक्षण में अवकाश का समय था। वहां बाहर का कोई व्यक्ति नहीं था। अधिकांश उन्हीं कि समकक्ष थे। उनका नृत्य आम नृत्यों जैसा ही था। उसमें कोई अश्लीलता भी शायद नहीं थी, फिर भी लोकलाज के भय से उन्हें निलंबित किया गया, ताकि पुरुषवादी मानसिकता की संतुष्टि बनी रहे। संगीता का दुर्भाग्य ये है कि वो मामा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की लाड़ली बहना नहीं है, अन्यथा हमारे सूबे की मुख्यमंत्री रहीं उमा भारती से लेकर अब स्वर्गारोहण कर चुकीं श्रीमती सुषमा स्वराज संगीता माझी से बेहतर नाचती रही हैं और सार्वजनिक रूप से नाचती रही हैं। हमारे ही प्रदेश की एक पूर्व मंत्री श्रीमती इमरती देवी को नाचने में कभी कोई संकोच नहीं रहा। और तो और हमारे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह को अनेक सार्वजनिक ही नहीं अपितु शासकीय समारोहों में नाचते, गाते और ठुमके लगते हुए देखे गए हैं।
हम जिस समाज में रहते हैं वहां नृत्य वर्जना में नहीं आता। हम भगवान कृष्ण को नृत्यावतार मानते हैं। भगवान शिव को नटराज कहकर पूजते हैं। भारतीय संस्कृति एवं धर्म के इतिहास में कई ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि जिससे सफल कलाओं में नृत्यकला की श्रेष्ठता सर्वमान्य प्रतीत होती है। ऐसे में संगीता को सजा उचित नहीं लगती। संगीता के खिलाफ की गई कार्रवाई पर विभिन्न महिला संगठनों का मौन हैरान करने वाला है। आज जब शासकीय नौकरी सिवाय तनाव के कुछ नहीं है, वहां नृत्य को अश्लील मानकर किसी को निलंबीर करना सदाचार के कानून और नियम की थोथी लाज रखने के अलावा और कुछ नहीं है।