– राकेश अचल
कांग्रेस के बुद्धिमान नेता शशि थरूर की बीमारी अब लाइलाज होती जा रही है। वे लगातार पार्टी लाइन से हटकर बोल रहे हैं। पार्टी लाइन से इतर बोलने से थरूर को सुर्खियां तो मिल जाती हैं, लेकिन उनकी कुंठा इससे समाप्त नहीं होती। थरूर ने पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी के 98वें जन्मदिन पर देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू सा बताकर अपनी कुंठा को एक बार फिर उजागर किया है। किंतु कांग्रेस पार्टी ने उनके बयान से किनारा कर लिया।
थरूर ने कहा कि जनसेवा के प्रति उनकी अटूट प्रतिबद्धता, उनकी विनम्रता और शालीनता और आधुनिक भारत की दिशा तय करने में उनकी भूमिका अटूट है। एक सच्चे नेता, जिनका सेवाभावी जीवन सदैव अनुकरणीय रहा। आडवाणी की प्रशंसा को लेकर थरूर की आलोचना भी होना शुरू हो गई। सुप्रीम कोर्ट के वकील संजय हेगड़े ने थरूर के इस आकलन पर सवाल उठाते हुए कहा कि माफी कीजिए मिस्टर थरूर, इस देश में घृणा के बीज फैलाना जनसेवा नहीं है। थरूर ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि सहमत हूं, लेकिन उनकी लंबी सेवा को एक घटना तक सीमित करना, चाहे वह कितनी भी महत्वपूर्ण क्यों न हो अनुचित है। नेहरू जी के करियर की समग्रता का आकलन चीन के हाथों हार से नहीं किया जा सकता है, ना ही इन्दिरा गांधी के करियर का आंकलन सिर्फ आपातकाल से किया जा सकता है। मेरा मानना है कि हमें आडवाणी जी के प्रति भी यही शिष्टाचार दिखाना चाहिए।
हेगड़े का कहना है कि रथयात्रा कोई एक घटनाक्रम नहीं थी। वह भारतीय गणराज्य के बुनियादी सिद्धांतों को उलटने की एक लंबी यात्रा थी। उसी ने 2002, 2014 और उसके बाद के दौर की पृष्ठभूमि तैयार की। जैसे द्रौपदी का अपमान महाभारत के विनाशकारी युद्ध की भूमिका बन गया था, वैसे ही रथयात्रा और उसकी हिंसात्मक विरासत आज भी कचोटती है। आडवाणी को लेकर थरूर के बयान पर कांग्रेस पार्टी ने किनारा कर लिया है। कांग्रेस के मीडिया और प्रचार विभाग के प्रमुख पवन खेड़ा ने सोशल मीडिया पोस्ट में कहा कि हमेशा की तरह शशि थरूर ने अपनी बात कही है और कांग्रेस पार्टी उनके इस बयान से खुद को पूरी तरह अलग करती है। थरूर का कांग्रेस सांसद और कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य के रूप में बने रहना कांग्रेस की विशिष्ट लोकतांत्रिक और उदारवादी भावना को दर्शाता है।
थरूर के कहने से न आडवाणी नेहरू बन जाएंगे और न उनकी चादर पर लगे सांप्रदायिक दाग भी धुल पाएंगे। न आडवाणी को इसका लाभ होना है और न थरूर को। थरूर पिछले दिनों राजनीति में वंशवाद का मुद्दा उठाकर भी सुर्खियों में आए थे किंतु ये सुर्खियां पानी के बुलबुले जैसी साबित हो रही हैं।
आपको याद होगा कि हर द में शशि थरूर जैसी कुंठित आत्माएं होती हैं। भाजपा में ऐसे लोगों की कमी नहीं है। थरूर की तरह भाजपा में सुब्रमण्यम स्वामी लगातार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कपड़े फाड़ते रहते हैं, लेकिन मोदी अपनी जगह हैं। इसी तरह कांग्रेस में कितने लोग राहुल गांधी के खिलाफ खड़े होकर गागरौनी गा रहे हैं, किंतु इससे राहुल का कद कम नहीं हुआ।
शशि थरूर के लिए बेहतर यही है कि वे कांग्रेस में छटपटाने के बजाय कांग्रेस छोड़कर या तो भाजपा में शामिल हो जाएं या फिर अपनी अलग पार्टी बना लें। ममता बनर्जी और शरद पवार ने अपनी पार्टी बनाई कि नहीं? अपनी विचारधारा पर अडिग रहना या न रहना ये शशि थरूर का निजी मामला है। वे कांग्रेस का अनुशासन भंगकर कुछ हासिल नहीं कर सकते। कांग्रेस ने उन्हें दिया ही है, लिया नहीं।
भाजपा हो या कांग्रेस, शशि थरूर जैसे लोगों से भरी पड़ी हैं। जो स्वाभिमानी थे वे इन दलों से अलग हो गए, जिनके पास आत्मबल नहीं है उन्होंने दल-बदल कर लिया, भले ही उन्हें गद्दार, बिभीषण या जयचंद कहा गया। अर्थात पसंद अपनी-अपनी, खयाल अपना-अपना। थरूर को अपना रास्ता खुद तय करना हैं। ये तो तय है कि वे फिलहाल प्रधानमंत्री मटेरियल नहीं हैं। थरूर को मणिशंकर अय्यर, गुलाम नबी आजाद का हश्र देख लेना चाहिए। अन्यथा पाण्डे की तरह उन्हें न हलुआ मिलेगा और न मांड़े।







