एक बार फिर ईवीएम निशाने पर

– राकेश अचल


भारत में विमर्श के लिए राजनीति के अलावा और कोई मुद्दा खडा ही नहीं हो पाता। भाजपा की तीन राज्यों में अप्रत्याशित प्रचण्ड विजय के बाद अब चुनाव में इस्तेमाल की जाने वाली इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन यानि ‘ईवीएम’ एक बार फिर से विवादों में है। आप कह सकते हैं कि ईवीएम विपक्ष के निशाने पर है। लेकिन सवाल ये है कि ईवीएम क्या सचमुच भारत की निर्वाचन प्रक्रिया को दूषित कर रही है या उसे यूं ही बदनाम किया जा रहा है?
ईवीएम की कहानी बडी दिलचस्प है। ईवीएम का जन्म कांग्रेस के शासनकाल में हुआ और अब यही ईवीएम कांग्रेस के लिए भस्मासुर बन गई है। भारत में इलेक्ट्रोनिक्स कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (बैंगलोर) और भारत इलेक्ट्रोनिक्स (हैदराबाद) द्वारा 1989 में ईवाएम को बनाने की शुरुआत हुई थी। तब इसे एक साहसिक कदम माना जा रहा था। प्रयोग के तौर पर इस ईवीएम का इस्तेमाल सबसे पहले केरल के उत्तर पारावुर विधानसभा के 50 मतदान केन्द्रों में हुए उपचुनाव में किया गया। कांग्रेस सरकार ने ही साल 2004 से सभी लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिए इस मशीन का इस्तेमाल शुरू किया।
ईवीएम उस जमाने में आई जब मतदान कागज की पर्चियों पर होता था। उस जमाने में बूथ कैप्चरिंग सबसे बडी समस्या थी। ईवीएम का विकास शायद इसी बुराई को दूर करने के लिए किया गया था। ईवीएम की खास बात यह है कि इससे बूथ कैप्चरिंग काफी मुश्किल है, क्योंकि एक ईवीएम एक मिनट में सिर्फ पांच वोट ही दर्ज कर सकती है। एक ईवीएम में अधिकतम दो हजार वोटों को रिकार्ड किया जा सकता है और एक ईवीएम में नोटा सहित अधिकतम 64 उम्मीदवारों के नाम अंकित किए जा सकते हंै। खास बात ये कि ईवीएम को चलाने के लिए बिजली की जरूरत नहीं होती है, यह बैटरी से चलती है। मजे की बात ये है कि ईवीएम लाने वाली कांग्रेस ने ही सबसे पहले इसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाए, लेकिन ईवीएम को बदला किसी ने नहीं। ईवीएम पिछले 20 साल में अनेक चुनाव करा चुकी है। ईवीएम प्राय सभी राजनितिक दलों के निशाने पर रही है। ईवीएम पर सबसे बडा आरोप है कि उसे ‘हैक’ किया जा सकता है।
जहां तक मुझे याद है कि 19 मई 1982 को परवूर विधानसभा में ईवीएम से चुनाव कराए गए थे। मुकाबला सीपीआई के प्रत्याशी सिवन पिल्लई और कांग्रेस के पूर्व विधानसभा अध्यक्ष एसी जोज के बीच था। सीपीआई के सिवन पिल्लई ने कांग्रेस के एसी जोज को हरा दिया था। पिल्लई को 30 हजार 450 वोट मिले थे, जबकि जोज को 30 हजार 327, अंतर बहुत कम था। इसके बावजूद कांग्रेस ने ईवीएम पर सवाल उठाए। जोज ने हार नहीं मानी। उन्होंने हाईकोर्ट में याचिका लगाई। जॉज की शिकायत थी कि बिना संसदीय अनुमति के चुनाव आयोग ने इलेक्शन में ईवीएम का इस्तेमाल किया। हालांकि कोर्ट ने जोज की याचिका को खारिज कर दिया, पर वो रुके नहीं। मामला सुप्रीम कोर्ट में लेकर गए। सुप्रीम कोर्ट ने परवूर विधानसभा के उन 50 बूथों पर बैलट पेपर के जरिए दोबारा मतदान कराने के आदेश दिए। इतना ही नहीं, दोबारा हुए चुनाव में जोज दो हजार मतों के अंतर से चुनाव भी जीत गए। यानि ईवीएम कोर्ट में हार गई। सुप्रीम कोर्ट के 1984 में आए आदेश के बाद चुनाव आयोग ने ईवीएम के इस्तेमाल पर फिलहाल रोक लगा दी। हालांकि बाद में संसद ने ईवीएम को वैध बनाने के लिए अपने अधिनियम में संशोधन किया और 1998 से विधानसभा और लोकसभा चुनावों से इसका इस्तेमाल किया जाने लगा।
पिछले दो दशकों में देश का ऐसा कोई राजनीतिक दल नहीं है जिसने ईवीएम की विश्वसनीयता पर सवाल खडे न किए हों। आज केन्द्र में सत्तारूढ भाजपा हो, बसपा हो, सपा हो, जेडीयू हो, सबको ईवीएम संदिग्ध लगती है। हमारे चंबल इलाके में कुछ साल पहले भिण्ड जिले के अटेर में ईवीएम मशीन के डेमो के दौरान किसी भी बटन को दबाने पर वीवीपैट पर्चा भारतीय जनता पार्टी का निकलने के बाद जिले के कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक को हटा दिया गया था। तब चुनाव आयोग की और से सफाई दी गई थी कि मशीनें ठीक से कैलिब्रेट नहीं हो पाई थीं। हाल में हुए मप्र विधानसभा चुनाव में इसी अटेर विधानसभा क्षेत्र से भाजपा सरकार के मंत्री अरविन्द भदौरिया चुनाव हारे हैं।
अब स्थिति ये है कि कांग्रेस को ईवीएम पर भरोसा नहीं है और भाजपा ईवीएम के भरोसे ही देश को कांग्रेस विहीन करने के अभियान में जुटी है। एक तरफ नए सिरे से ईवीएम पर रोक की मांग की जाने लगी है। तर्क दिए जाने लगे हैं कि ईवीएम न सिर्फ हैक हो रही है, बल्कि इससे मतदान की गोपनीयता भी भंग हो रही है। मतदाता की जान को खतरा बढ रहा है, क्योंकि अब प्रत्याशी को बूथ के हिसाब से मतों की गणना का आंकडा मिल रहा है। मतदाता की पहचान आसान हो गई है। मतपत्रों से चुनाव के वक्त ऐसा संभव नहीं था, क्योंकि सब मतपत्र गड्ड-मड्ड कर दिए जाते थे। ईवीएम की अविश्वसनीयता सियासत से निकल कर साहित्य तक पहुंच गई। शायरों ने लिख डाला- चुनाव हार गए हम, मशीन जीत गई। लहू में भीगी हुई आस्तीन जीत गई।।
मुझे लगता है कि ईवीएम को लेकर देश में एक बार फिर से बवाल होगा। फिर मामला अदालत तक जाएगा। फिर इसे बंद कर पुरानी प्रक्रिया पर लौटने की बात की जाएगी, तर्क दिए जाएंगे, प्रमाण दिए जाएंगे, लेकिन नतीजा निकलेगा ‘ढाक के तीन पात’ जैसा ही। सत्तारूढ भाजपा शायद ही ईवीएम को बंद करने पर राजी हो। ये बात सही है कि भारत जैसे विशाल देश की चुनाव प्रक्रिया की शुचिता और निष्पक्षता को बनाए रखने के लिए हमें ईवीएम के इस्तेमाल पर पुनर्विचार करना चाहिए, क्योंकि इससे लोकतंत्र की पवित्रता का मामला भी बाबस्ता है। बार-बार कहा जाता है कि दुनिया के तमाम बडे लोकतांत्रिक देशों में मशीन का इस्तेमाल चुनाव में नहीं किया जाता तो भारत में इसकी क्या जरूरत है? भारत में भी अमेरिका की तरह कागज के मतपत्रों से ही चुनाव होना चाहिए।
चुनाव प्रक्रिया से ईवीएम का विस्थापन हालांकि आसान नहीं है, किन्तु असंभव भी नहीं है। यदि संसद चाहे तो इस मशीन को अलविदा कह सकती है, लेकिन आज हमारे पास जो संसद है उसमें ऐसा कर पाना शायद नामुमकिन है। क्योंकि अभी मशीन सत्तापक्ष के अनुकूल साबित हो रही है, लगातार हो रही है। मशीन विधानसभा चुनावों में कुछ नतीजे देती है और लोकसभा चुनावों में कुछ और। इससे लगता है कि मशीन का विवेक सरकार के अधीन होता है। अब कांग्रेस समेत तमाम विपक्ष यदि भाजपा की ही तरह ठान लें कि जैसे जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाई गई थी, उसी तरह इस मशीन को भी हटा दिया जाएगा तो मुमकिन है कि बात बन जाए। अन्यथा जनता हारेगी और मशीन जीतती रहेगी। कोई उसे रोक नहीं सकता।
यदि देश में एक राष्ट्र, एक चुनाव हुए तो कहा जाता है कि देश के चुनाव आयोग को लगभग 30 लाख कंट्रोल यूनिट, लगभग 43 लाख बैलेट यूनिट और लगभग 32 लाख वीवीपीएटी की आवश्यकता होगी। लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के लिए लगभग 35 लाख वोटिंग यूनिट (कंट्रोल यूनिट, बैलेट यूनिट और वीवीपीएटी यूनिट) की कमी है। एक साथ चुनाव कराने पर विचार-विमर्श तेज होने के बीच निर्वाचन आयोग ने कुछ महीने पहले विधि आयोग को सूचित किया था कि उसे इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों को रखने के लिए पर्याप्त भण्डारण सुविधाओं की भी आवश्यकता होगी।