– राकेश अचल
मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव में रंग गहरे हो चले हैं। इन रंगों को गहरा कर रहे हैं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और केन्द्रीय मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर के बेटे से जुडे कुछ वीडियो। वे नाटकीय अंदाज में चुनावी भाषण दे रहे हैं। मोदी जी को अब बाबाओं को भी साधने की जरूरत पड रही है। भगवान को साधने कांग्रेस के नेता राहुल गांधी केदारनाथ में हैं। मप्र में मुद्दा ये है कि मप्र को अपसेट कौन कर रहा है, कांग्रेस या भाजपा? क्योंकि मोदी जी कह रहे हैं कि कांग्रेस के दोनों पूर्व मुख्यमंत्री अपने बेटों को सेट करने के लिए मप्र को ‘अपसेट’ कर रहे हैं।
मप्र में जो मुद्दे हम और आप शुरू से उठाते रहे हैं उन्हीं सब मुद्दों पर अब मोदी जी को भी आना पड रहा है। वे एक राष्ट्रीय नेता की तरह नहीं एक प्रादेशिक नेता की तरह मुद्दों पर कम प्रादेशिक नेताओं पर ज्यादा हमलावर हैं। जाहिर है कि अब भाजपा पर उपलब्धियों के नाम पर बजाने को सूखे शंख भी नहीं बचे हैं। मोदी जी ने मप्र के दौरे पर पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ और दिग्विजय सिंह पर व्यक्तिगत हमले किए। इस बार उन्होंने न केन्द्र सरकार की उपलब्धियां गिनाईं और न राज्य सरकार की उपलब्धियां गिनाईं। मोदी जी ने नाथ और सिंह के साथ ही राहुल गांधी के परिवार पर वे घिसे-पिटे आरोप लगाए जो बहुत पुराने हो चुके हैं।
दरअसल मोदी जी के भाषण अब प्रधानमंत्री पद के अनुकूल नहीं हो रहे है। उनकी वक्तव्य कला का तेज कमजोर होता दिखाई दे रहा है, अन्यथा हमने अब तक किसी प्रधानमंत्री को किसी प्रादेशिक नेता और उसके परिवार पर बोलते नहीं सुना। प्रधानमंत्री पद पर बैठे लोग अतीत में अपनी नीतियों या अपनी प्रतिद्वंदी पार्टियों की नीतियों पर ही बोलते आए हैं। उन्होंने कभी किसी पर निजी हमले नहीं किए। लेकिन अब ये मर्यादाएं भंग हो चुकी हैं। मोदी जी ने ही ये शुभ कहें या अशुभ काम किया है। वे छत्तीसगढ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को भ्रष्ट बताकर आए तो मप्र में उन्होंने दिग्विजय सिंह और कमलनाथ को पुत्र मोह में फंसा बताकर चुटकुले बाजी की। श्रोताओं को निश्चित ही मोदी जी के भाषण मजा दे रहे हैं, लेकिन वे वोटरों का मन बदल पाएंगे ये कहना कठिन है।
दअरसल इस समय प्रधानमंत्री और पार्टी सुप्रीमो के रूप में मोदी जी का जादू फीका पडता दिखाई दे रहा है। भाजपा के नेताओं और कार्यकर्ताओं के मन से मोदी जी भी जा चुके हैं। इसका प्रमाण वे बागी प्रत्याशी हैं जो अब तक मैदान में डटे हैं। हारकर पार्टी को उन सभी को पार्टी से छह साल के लिए पार्टी से निकालना पडा। जो समझदार थे वे पहले ही भाजपा की प्राथमिकता सदस्यता छोडकर मैदान में आए थे। मोदी जी ने अपनी एक भी सभा में इन बागियों के बारे में एक शब्द नहीं कहा। कहते भी तो शायद उन्हें और उनकी पार्टी को कोई फायदा नहीं होता।
मप्र और छत्तीसगढ में इस चुनाव में पिछले 2018 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले छत्तीस बाधाएं हैं। सबसे बडी बाधा पार्टी का आंतरिक असंतोष है। छग में कम है लेकिन मप्र में ज्यादा है। सबसे ज्यादा तो उस राजस्थान में है जहां जादूगर अशोक गहलोत से भाजपा का मुकाबला है। वहां भाजपा ने अपने बुलडोजर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को भी ध्रुवीकरण के लिए भेजा किन्तु कोई असर नहीं हुआ। योगी जी छग में भी राम-राम कर आए हैं लेकिन यहां भी मन्दिर कोई मुद्दा नहीं है। मप्र में भी राम मन्दिर और मन्दिर में 22 जनवरी को रामलला विराजमान की प्रतिष्ठा कोई मुद्दा नहीं है। मुद्दा है तो उज्जैन के महाकाल लोक में हुआ भ्रष्टाचार। भाजपा का घोषणा पत्र भी कांग्रेस के घोषणा पत्र के सामने बेअसर साबित हुआ है।
भाजपा मप्र की सत्ता में बनी रहे ये भाजपा को नहीं मतदाताओं को तय करना है। मप्र में भाजपा ने तीन साल में ऐसा एक भी चमत्कारिक विकास कार्य नहीं किया, जिसकी बिना पर मतदाता उसे आंख बंद कर वोट देते। सरकार की एकमात्र तख्ता पलट योजना लाडली बहना योजना थी उसे भी कांग्रेस ने अपने हिसाब से मोथरा कर दिया है। भाजपा फ्रीबीज का सिक्का भी ढंग से नहीं चला पाई, क्योंकि कांग्रेस ने अपने वचन-पत्र में भाजपा की हर योजना में अपना सवा रुपया जोड दिया है।
मजे की बात ये है कि भाजपा के दूसरे सबसे बडे नेता केन्द्रीय मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर को आखिरी वक्त में उनके बेटे के एक वीडियो ने घेर लिया है, जिसमें उनका बेटा करोडों की डील करता दिखाई दे रहा है। खास बात ये है कि इस वीडियो को लेकर अभी तक न तो नरेन्द्र सिंह तोमर की और से कोई शिकायत की गई है और न उनके बेटे की और से। अगर ये वीडियो असर कर गया तो तोमर साहब दिमनी से भोपाल तो क्या दिल्ली भी वापस नहीं लौट पाएंगे। वैसे भी तोमर की छवि एक नाकाम कृषि मंत्री की है। उनके कृषि मंत्री रहते ही इस देश में 700 से ज्यादा किसानों को अपनी जान देना पडी थी।
भाजपा ने छग में मतदान से पहले मुख्यमंत्री भूपेश बघेल पर महादेव ऐप के जरिए 508 करोड रुपए लेने का आरोप तो लगा दिया, लेकिन उसे प्रमाणित नहीं कर पाई। हारकर केन्द्र सरकार ने महादेव ऐप पर पाबंदी लगा दी। भाजपा यदि यही काम चुनाव प्रक्रिया शुरू होने के एक-दो महीने पहले करती तो मुमकिन है उसे इसका लाभ मिलता, लेकिन अब तो समय हाथ से निकल चुका है। छग में ईडी का नोटिस और छापे भी बेअसर साबित हुए हैं।
मप्र में चुनावी परिदृश्य बदलने में जी-जान से लगे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह अकेले पड गए है। केन्द्र का कोई स्टार प्रचारक उनकी सरकार की उपलब्धियों या उनका जिक्र तक नहीं कर रहे। केन्द्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के दौरे भी 2018 के विधानसभा चुनावों की तरह कोई चमत्कार पैदा करते नजर नहीं आ रहा। 2018 के विधानसभा चुनाव में सिंधिया ने सारा चुनाव प्रचार अपने ऊपर केन्द्रित कर लिया था। उन्होंने लडाई को शिवराज बनाम महाराज बना लिया था। इस बार वे इस लडाई को महाराज बनाम कमलनाथ या महाराज बनाम दिग्विजय नहीं बना पाए। हालांकि चुनावी बाजी पलटने के लिए केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह भी पसीना बहाते दिखाई दे रहे हैं, लेकिन उनकी और से प्रदेश की नौकरशाही को दी गई देख लेने की धमकी उनके ऊपर ही भारी पडती दिखाई दे रही है। नौकरशाही ने एकदम से आंखें नटेर (फेर) ली हैं।