5 सितम्बर शिक्षक दिवस पर विशेष
-डॉ. सुनील त्रिपाठी निराला
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किसी भी क्षेत्र में प्रवेश से पहले जो परीक्षा ली जाती है, उसे कुशलता परीक्षा (Aptitude Test) कहा है। इस परीक्षा में लगभग सभी विभिन्न विषयों से प्रश्न पूछे जाते हैं। व्यवसाय का सीधा संबंध कुशलता से होता है। कुशलता का संबंध बुद्धि की प्रकृति से भी होता है।
सभी की योग्यताओं में अंतर होता है। उनके प्रिय विषय अलग-अलग होते हैं। उनके उद्देश्यों में भी अंतर होता है। मनोविज्ञान में इसी जन्मजात मानसिक विशिष्ट योग्यता को कुशलता के नाम से संबोधित किया जाता है। कुशलता का सीधा संबंध व्यवसाय से है। फ्रीमेन के अनुसार, ‘कुशलता लक्षणों व गुणों का समूह है, जो यह बताता है कि छात्र या व्यक्ति किस विशेष ज्ञान योग्यता या प्रतिक्रियाओं के समूह जैसे- भाषा बोलने की योग्यता, कम्प्यूटर ऑपरेटर बनने की योग्यता, संगीतकार बनने की योग्यता का विकास करना है। जब कोई छात्र किसी खास प्रशिक्षण के बाद उसके ज्ञान, दक्षता या प्रतिक्रियाओं को सोखने की योग्यता रखता है।’ कुशलता छात्र के गुणों का वह भंडार है जो संभावित विकास को दर्शाता है कि छात्र कुछ ज्ञान और क्षमताओं का मिश्रण, प्रशिक्षण द्वारा प्राप्त करेगा। जैसे तकनीशियन या अनुवाद करने की योग्यता, कला या संगीत में योगदान करने की योग्यता।
जब कोई छात्र किसी विषय को बड़ी सुगमता तथा बिना संघर्ष के सीख जाता है तथा उस पर पूर्ण नियंत्रण कर लेता है, तो उसे दक्षता कहते हैं। किसी भी नए कार्य की उत्पत्ति करके उसमें श्रेष्ठता सिद्ध करना ही प्रभावशाली होता है। किसी उद्देश्य अथवा कार्य को पूरा करने के लिए छात्र अपनी अंतिम कोशिश भी जी-जान से करता है। इसी को सामथ्र्य कहते हैं। एक विशेष प्रशिक्षण के छात्र को जानकारी एवं ज्ञान की परीक्षा द्वारा अंकित किया जा सकता तथा बताया जा सकता है कि छात्र कितना कुशल है। अध्यापक को अपने शिक्षण पर कितना आत्मविश्वास है। यह जानने के लिए वह सभी प्रकृति के बच्चों को शिक्षण व निर्देशन देता है। यह छात्र की क्षमता पर निर्धारित करता है कि वह कितना ज्ञान प्राप्त कर पाता है।
प्रत्येक छात्र की कार्य करने की क्षमता एवं रुचि भिन्न-भिन्न होती है। एक विषय में प्रतिभाशाली बच्चे जरूरी नहीं कि दूसरे विषय में भी विशिष्ट हों। अत: एक छात्र को एक कार्य करने में रुचि होती है, संतोष प्राप्त होता है, जबकि अन्य कार्य में रुचि व संतोष प्राप्त नहीं होता; जैसे- यदि एक व्यक्ति कुशल व्यापारी है, तो आवश्यक नहीं कि वह एक कुशल गायक भी बन सकता है। व्यक्तियों में अलग-अलग कार्यों के लिए अलग-अलग मात्रा में क्षमता होती है।किसी छात्र को क्षमताएं सापेक्ष रूप से स्थायी होती हैं। इन क्षमताओं में जल्दी परिवर्तन नहीं होता है।
सृजनात्मकता का बोध व्यक्ति की कार्यशैली से होता है। सामाजिक और व्यावसायिक कार्यों से व्यक्ति की सृजनात्मकता का प्रदर्शन होता है। बुद्धि तथा सृजनात्मकता में विशेष अंतर है कि व्यक्ति के व्यवहारों से उसकी बुद्धि के संबंध में पता चलता है जबकि सृजनात्मकता का बोध कार्य शैली के प्रदर्शन से होता है।
समाज में कार्य करनेवाले प्रत्येक व्यक्ति के कार्य या व्यवसाय में सृजनात्मकता का बोध होता है। बढ़ई लकड़ी से मनचाही कलात्मक मेज बना सकता है, चित्रकार मनचाहे रंगों से नवीन कलाकृति की रचना करता है, कवि, कविता रचता है और गीतकार गीत रच सकता है। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक व्यक्ति में सर्जन की संभावनाएँ होती हैं और उनका विकास किया जाना चाहिए। स्टेन के अनुसार, ‘जब किसी कार्य का परिणाम नवीन हो, जो किसी समय में समूह द्वारा उपयोगी मान्य हो, वह कार्य सृजनात्मकता कहलाता।’
सृजन का आधार चिंतन है। गिलफोर्ड के अनुसार, ‘चिंतन तथा सर्जन अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रयत्न करता है और उसकी संतुष्टि होने पर वह भविष्य में प्रयत्न करता है।’ व्यक्ति में परिस्थिति के अनुसार कार्य करने की शक्ति होनी आवश्यक है। इसे कार्यात्मक स्थिरता भी कहते हैं।
सृजनात्मकता का स्तर प्रत्येक छात्र के लिए भिन्न हो सकता है। छात्रों को सृजन का अवसर मिलना चाहिए। सृजनात्मकता के अवसर कक्षागत परिस्थितियों में दिए जाने चाहिए। इस प्रकार के अवसरों में लोच, स्वतंत्रता और साहस के गुण होने चाहिए। संपूर्ण कक्षा का शिक्षण सृजनात्मक ढंग से होना चाहिए। जो छात्र तात्कालिक परिस्थितियों के आधार पर कार्य करे, उसमें आगे जाकर चिंतन, मनन तथा अभिव्यक्ति उभर आती है। जिन छात्रों में किसी तथ्य समस्या की संपूर्ण या आंशिक रूप में पुर्नव्याख्या करने की क्षमता होती है, वे सृजनात्मक शक्तियों से पूर्ण होते हैं। वह छात्र जो चिंतन तर्क, कल्पना द्वारा प्रासंगिक; किंतु असामान्य विचारों के साथ समन्वय स्थापित कर लेते हैं, सृजनशील होते हैं। तर्क, चिंतन तथा प्रमाणों के माध्यम से मौलिक एवं तर्क संगत अभिव्यक्ति के द्वारा व्यक्ति के विचार, विश्वास तथा धारणा में परिवर्तन करने वाले होते हैं।
बालक जीवन की सच्चाई से मुक्त होकर खेलता है। वह इन्हीं परिस्थितियों का सृजन तथा पुनसृजन करता रहता है। ऐसे बालक घर में अनेक प्रकार का अभिनय करते हैं । पापा का चश्मा लगाकर पापा बनते हैं आदि। नर्सरी कक्षाओं में याद की गई कहानियां तथा गीत भविष्य में उसकी कल्पना की वस्तु बन जाते हैं। इनसे भावनाओं का विकास होता है। चित्रकला, पेंटिंग, कला तथा हस्तकला के द्वारा बालक को सृजनशीलता के अवसर दिए जा सकते हैं बड़े बालकों को लिखने की अभिव्यक्ति के अवसर देकर सृजनशीलता को विकसित किया जा सकता है।
एक कुशल शिक्षक उसे माना जाता है जो छात्र के अंदर विकसित होने वाली कुशलता तथा सृजनात्मकता के मध्य सामंजस्य की प्रवृत्ति उत्पन्न करे। बालक स्वयं होने वाला मानव पौधा है। शिक्षक एक ट्रीगार्ड की तरह है; उसका कार्य उस बालक के सर्वांगीण विकास की पृष्ठभूमि तैयार करना है। शिक्षक केवल नौकरी प्राप्त करने के लिए नहीं होती अपितु यह बहुआयामी है; छात्र के गुणों की अपेक्षा शिक्षण की गुणवत्ता का प्रभाव छात्रों की उपलब्धियों पर होता है। शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षक तथा छात्र दोनों हो क्रियाशील रहते हैं; इसलिए सिखाने के सिद्धांत की अपेक्षा सिखाने की परिस्थितियां अधिक उपयोगी तथा व्यावहारिक हैं। शिक्षण अपनी क्रियाओं द्वारा कक्षा में सिखाने की परिस्थितियां उत्पन्न करता है। जिसमें छात्र अनुभव करते हैं तथा कुछ क्रियाएं भी करते हैं जिससे सिखाना संभव होता है। सीखने का अर्थ है व्यवहार में परिवर्तन। व्यवहार में परिवर्तन अनुभव एवं ट्रेनिंग के द्वारा होता है। जैसे एक बालक साइकिल चलाना नहीं जानता। धीरे-धीरे वह साइकिल पर चढऩा सीखता है और साइकिल चलाने में निपुणता प्राप्त कर लेता है। इसे ट्रेनिंग द्वारा सीखना कहते हैं। दैनिक जीवन में सीखने के अनेक उदाहरण है; जैसे- पाठ याद करना, गणित के प्रश्न हल करना, मोटर साइकिल चलाना, कार चलाना, टाइप करना आदि।
(लेखक राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित शिक्षाविद तथा साहित्यकार हैं)








