– राकेश अचल
सऊदी अरब में कफाला सिस्टम समाप्त होने से वहां काम करने वाले लाखों प्रवासी खुश हैं, कफाला का खात्मा यानि गुलामी से आजादी है। कहने को कफाला सऊदी अरब की कुरीति है, लेकिन ये सिस्टम दुनिया के हर मुल्क में किसी न किसी सूरत में मौजूद है। भारत की सियासत में तो कफाला सिस्टम ने मतदाताओं को ही गुलाम बना रखा है।
आइए पहले आपको पहले कफाला के बारे में बता दें। कफाला एक व्यवस्था या प्रणाली है जो मुख्य रूप से खाड़ी देशों (जैसे सऊदी अरब, कतर, कुवैत, बहरीन, ओमान और संयुक्त अरब अमीरात) में विदेशी कामगारों के लिए लागू की जाती है। इसका उद्देश्य था कि कोई स्थानीय व्यक्ति (जिसे कफील कहा जाता है, यानी स्पॉन्सर या गारंटर। जो किसी विदेशी मजदूर की जिम्मेदारी ले और उसके रोजगार तथा निवास की गारंटी दे।
कफाला में जो ठेकेदार होता है उसे कफील कहा जाता है। कोई भी कामगार बिना अपने कफील की अनुमति के नौकरी नहीं बदल सकता या देश नहीं छोड़ सकता। कई मामलों में नियोक्ता कामगार का पासपोर्ट अपने पास रख लेते हैं।
कफाला प्रणाली पर यह आरोप है कि यह विदेशी कामगारों के शोषण को बढ़ावा देती है, क्योंकि वे पूरी तरह नियोक्ता पर निर्भर रहते हैं। भारत में सियासी दलों के मुखिया कफील और उनके मतदाता कफाल हैं। दशकों तक कांग्रेस के कफील दलितों, अल्प संख्यकों और आदिवासियों को अपना दास बनाए रही, ये मतदाता जैसे तैसे कांग्रेस से आजाद दूसरे कफीलों की गिरफ्त में फंस गए।
बिहार में लगभग हर जाति का मतदाता कफाला का शिकार है। कफील अपने वोट बैंक को भुनाकर टिकट ही नहीं बल्कि मुख्यमंत्री से लेकर मंत्रि पद तक हासिल कर लेते हैं। बिहार में विपक्षी महागठबंधन ने वोट बैंक के आधार पर ही राजद के तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री और मुकेश सहनी को उपमुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया। इस घोषणा से सूबे के मुसलमान अपने आपको ठगा महसूस कर रहे हैं।
बिहार में मुस्लिम आबादी करीब 17.7 फीसदी है। 11 सीटों पर तो उसकी आबादी 40 फीसदी है। इसके अलावा राज्य की 47 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं। लेकिन मुस्लिम समाज से किसी चेहरे को किसी भी दल ने आगे नहीं रखा। भाजपा ने तो मुसलमानों को टिकट ही नहीं दिया। भाजपा के सहयोगी जेडीयू ने जरूर मुसलमानों को टिकट दिए। कांग्रेस, राजद ने मुसलमानों को टिकट दिए लेकिन उन्हें उपमुख्यमंत्री का चेहरा नहीं बनाया, क्योंकि राजद और कांग्रेस को ये गलतफहमी है कि मुसलमान उन्हें छोड़कर जाएंगे कहा?
बिहार में विपक्षी महागठबंधन द्वारा राजद नेता और विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री और विकासशील इंसान पार्टी के अध्यक्ष मुकेश सहनी को उप मुख्यमंत्री का चेहरा बनाए जाने पर मुस्लिम की पार्टी एआईएमआईएम ने तंज कसा है और कहा है कि अगर 2 प्रतिशत वाला डिप्टी सीएम बनेगा और 13 प्रतिशत वाला सीएम तो 18 फीसदी वाला क्या दरी बिछावन मंत्री बनेगा? ओबेसी समर्थकों का आरोप है कि मुस्लिमों को भाजपा का भय दिखाया जा रहा है कि अगर तुम बोलोगे तो भाजपा आ जाएगी।
मुझे याद आता है कि 2020 में नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री का फेस घोषित कर मैदान में उतरा था एनडीए ने, लेकिन इस बार एनडीए नीतिश कुमार को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाने से अब तक तो बचती आ रही है। लेकिन महागठबंधन की साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस हुई और इस बात का ऐलान किया गया कि महागठबंधन जीता, तो तेजस्वी यादव ही मुख्यमंत्री उम्मीदवार होंगे।
तेजस्वी यादव ने मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के रूप में अपने नाम का ऐलान किए जाने पर महागठबंधन के घटक दलों का धन्यवाद किया। तेजस्वी यादव को ऐसे समय में सीएम फेस घोषित किया गया, जब 10 सीटों पर महागठबंधन के घटक दलों के उम्मीदवार आमने-सामने हैं और चर्चा दरार की भी तेज हो चली थी। तेजस्वी को सीएम फेस तब घोषित किया गया है, जब प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पहली संयुक्त रैली होने जा रही है।
तेजस्वी को महागठबंधन का सीएम फेस घोषित किए जाने के बाद भाजपा पशोपेश में है। उसके नेता अमित शाह पहले ही कह चुके हैं कि मुख्यमंत्री का चुनाव विधायक दल करेगा। फिर भी बिहार के डिप्टी सीएम सम्राट चौधरी ने कहा कि पहले से ही पता था कि लालू यादव अपने परिवार के सिवाय किसी को सत्ता नहीं देंगे। केन्द्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने कहा कि लालू यादव ने हाथ-पैर पड़कर किसी तरह अपने बेटों के लिए घोषणा करवाया। जनसुराज के सूत्रधार प्रशांत किशोर ने तंज करते हुए कहा कि ये सबको पता है कि लालू यादव का जंगलराज अगर लौटेगा।
तेजस्वी की मुख्यमंत्री उम्मीदवारी के पीछे महागठबंधन की रणनीति है वोट बैंक का विस्तार। तेजस्वी को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करना यादव मतदाताओं को लामबंद करने की कवायद है ही, मुकेश सहनी को डिप्टी सीएम घोषित कर निषाद वोटर्स को भी संदेश दिया गया है। एक और डिप्टी सीएम बनाने के दांव से सस्पेंस भी रखा गया है कि वह किसी भी वर्ग का हो सकता है। दूसरी रणनीति बिहार चुनाव में इस सवाल को गर्म करने की है कि तेजस्वी बनाम कौन? एक रणनीति नीतीश कुमार सीएम बनेंगे या नहीं, इसे लेकर जेडीयू के लॉयल वोटर्स के मन में सस्पेंस का लाभ उठाने की भी है।
मजे की बात ये है कि यादवों के कफील तेजस्वी यादव के सुर नीतीश कुमार पर बदले नजर आ रहे हैं। तेजस्वी ने कहा कि नीतीश कुमार के साथ अन्याय हो रहा है। उन्होंने कहा कि हम शुरू से ही कह रहे हैं कि बीजेपी के लोग नीतीश कुमार को फिर से सीएम नहीं बनाएंगे। उनको मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं किया गया है। क्या कारण है कि इस बार नीतीश के नाम का ऐलान नहीं कर रहे?
बिहार के पिछले दो दशक का चुनावी इतिहास देखें, तो तस्वीर यही रही है- जिधर नीतीश कुमार, उधर सत्ता। इसके पीछे असली वजह नीतीश कुमार की कुर्मी और कोइरी के साथ ही अति पिछड़ा वोट बैंक पर मजबूत पकड़ माना जाता है, जो करीब 43 फीसदी है। 2015 के बिहार चुनाव में जब नीतीश कुमार आरजेडी के साथ चुनाव लड़ रहे थे, 71 फीसदी कुर्मी, 31 फीसदी कोइरी और 35 फीसदी अति पिछड़ा वोट महागठबंधन को मिला था। 2020 के चुनाव में जब नीतीश एनडीए के साथ थे, तब 81 फीसदी कुर्मी, 51 फीसदी कोइरी, 58 फीसदी अति पिछड़ा वोट एनडीए के पक्ष में जाता।
अब सवाल ये नहीं है कि बिहार में कौन मुख्यमंत्री बनेगा, कौन नहीं? असल सवाल तो ये है कि बिहार के मतदात को सैनी, माझी, पासवान, यादव जैसे सियासी कफीलों से कभी आजादी मिलेगी या नहीं? या यहां का बेवश मतदाता किसी न किसी दल का गुलाम ही बना रहेगा।







