देश को धर्म के ‘ऐंटी डोज’ की आवश्यकता

– राकेश अचल


दुनिया में जो देश आजाद हुए हैं या होते हैं, वे आजादी के बाद एक नई हवा में सांस लेते हैं। दुनिया की मुख्यधारा में जुडने के लिए जो बन पडता है सो करते हैं, लेकिन हमारा प्यारा भारत देश 20वीं सदी में आजाद होने के बाद हासिल उपलब्धियों पर धर्म की धूल चढाने पर आमादा है। ये सुखद है या दुखद, हानिप्रद है या लाभप्रद इसकी समीक्षा करने के लिए कोई तैयार नहीं है। अधिकांश राजनीतिक दलों में ये दिखने की होड है कि कौन कितना अधिक धर्मनिष्ठ कहिये या धर्मभीरु है। लोकतंत्र की फिक्र जैसे अब किसी को रही ही नहीं।
हिन्दुस्तान को आजादी धर्म के आधार पर नहीं, बल्कि धर्मनिरपेक्षता के आधार पर मिली थी। धर्म के आधार पर तो पाकिस्तान बना और आजाद हुआ था। कांग्रेस और स्वतंत्रता आंदोलन की सहयोगी पार्टियों ने दशकों तक भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को बरकरार भी रखा, लेकिन 1980 में भाजपा के जन्म के बाद से राजनीति में धर्म की जो घुसपैठ हुई वो आज चरम पर है। आज हमारे तमाम सत्ताधीश धर्म-धुरंधर हैं। वे धर्म को पिछले सात दशक में हुई कथित हानि की भरपायी के लिए सब कुछ दांव पर लगाने को राजी हैं। धर्म की पुनसर््थापना ही जैसे सत्ता का परमोधर्म हो गया है। पिछले चार दशक में भाजपा ने धर्म के ज्वार-भाटे को नई दिशा दी है। अब सतह पर सब कुछ राममय है, किन्तु हकीकत में कुछ भी बदला नहीं है अपितु जितना कुछ बना भी था वो भी बिगड गया है।
भाजपा ने धर्म का धुआं इतना उडा दिया है कि अब कांग्रेस भी धर्मनिरपेक्षता का युद्ध लडने के लिए यदा-कदा रामनामी ओढ लेती है, आम आदमी पार्टी ने देश की राजनीति में एक अलग रास्ता अपनाया था, किन्तु दुर्भाग्य ये है कि वो भी धर्मनिष्ठ पार्टी बनने में लगी है। भाजपा के राम रटंत के जबाब में आम आदमी पार्टी दिल्ली में बजरंगबली को याद करते हुए सुंदरकाण्ड करा रही है। भाजपा से लडने में एकजुट होने में असमर्थ राजनीतिक दलों का यही संकट है।
भाजपा की धर्म की राजनीति से लडने के लिए अब कांग्रेस की कोख से निकली तृणमूल कांग्रेस ने भी धर्म का सहारा ले लिया है। बंगाल में राम नहीं हैं, वहां काली मां हैं। आगामी 22 जनवरी देश को रामरंग में रंगने के लिए अयोध्या में रामलला के नए विग्रह की प्राण-प्रतिष्ठा का दिन है। इस दिन के जबाब में विपक्षी नेता 22 जनवरी को प्राण प्रतिष्ठा के बजाय अन्य कार्यक्रमों में भाग लेने की योजना बना रहे हैं। कांग्रेस की भारत जोडो न्याय यात्रा के रथी राहुल गांधी इस दौरान भगवान शिव के धाम में रह सकते हैं। कांग्रेस नेता की गुवाहाटी में शिव धाम जाने की योजना है। वहीं, बंगाल की सीएम और तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी 22 जनवरी को काली मन्दिर जाएंगी। यह मन्दिर काली घाट में है। दीदी वहां अलग-अलग धर्मों के धर्मगुरुओं के साथ एक रैली निकालेंगी।
भाजपा ने धर्म की ऐसी रेखा खींची है कि उसके सामने अन्य रेखाएं छोटी पड रही हैं। अयोध्या में प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में जाना या न जाना नेताओं के हिन्दुत्व की कसौटी बन गया है। मजबूरन प्राण-प्रतिष्ठा समारोह का बहिष्कार करने वाले देश के तमाम राजनीतिक दलों को अपने आपको हिन्दू समर्थक बताने के लिए ही ये उपक्रम करना पड रहे हैं। कोई दल विकास और धर्म निरपेक्षता की रास हाथ में लेकर आगे नहीं बढना चाहता। भाजपा हिन्दू धर्म के आधार पर कम से कम आधी आबादी में तो विभाजन रेखा खींचने में कामयाब हो गई है। ये सबसे बडा खतरा लोकतंत्र के लिए है। जो धर्म लोगों को आपस में जोडने का काम करता था वो ही अब लोगों को तोडने का काम कर रहा है। धर्म लोगों को सहिष्णु बनाने के बजाय हिंसक बना रहा है। धर्म प्रेम की गंगा बहाने के बजाय घृणा के नए-नए नाले बना रहा है।
अतीत में झांक कर देखें तो पता चलता है कि धर्म की बगिया पहले आश्रम हुआ करते थे। धर्म राजनीति और राज सत्ता पर अंकुश की भूमिका में था। धर्म और राजनीति में गठजोड नहीं बल्कि एक समन्वय था। दोनों के बीच समय-समय पर टकराव भी होता था, लेकिन आज स्थितियां एकदम बदल गई हैं। अब धर्म की खेती राजसत्ता खुद कर रही है। आश्रम व्यवस्था को राजसत्ता ने अपना मोहताज बना लिया है। जो सत्ता प्रतिष्ठान के खिलाफ बोले उसे राष्ट्रद्रोह बताने की निर्मम व्यवस्था बना ली गई है। भले ही वे अपने-अपने धर्म के सबसे बडे आचार्य ही क्यों न हों। धर्म बौना और राजनीति भीमकाय हो चुकी है। यानि अब लोकतंत्र गौड और धर्म प्रधान बनाया जा रहा है।
धर्म सामज को जोडने का फेविकोल होता तो दुनिया में एक ही धर्म का पालन करने वाले देश आपस में लड झगड कर बर्बाद न हो गए होते। जिन देशों में धर्म अतिवाद का शिकार हुआ है वहां अराजकता पनपी है। दूसरी तरफ जिन देशों में धर्मनिरपेक्षता है वहां विकास का रथ तेजी से दौड रहा है। ज्ञान-विज्ञान मनुष्यता के कल्याण और उत्कर्ष में सहायक हो रहा है। धर्म निजता का विषय है और उसमें कोई किसी का अतिक्रमण नहीं करता। यानि किसी भी देश की सत्ता का अपना कोई धर्म नहीं होता। यदि होता है तो उसकी क्या दशा-दुर्दशा होती है वो किसी से छिपी नहीं है।
भारत में दो महीने बाद आम चुनाव होना है। मुझे लगता कि धर्म की आंधी इन चुनावों को भी प्रभावित कर सकती है, क्योंकि इस समय देश की तमाम आबादी धर्म का ‘ओवर डोज’ ले चुकी है, जो ड्रग्स के नशे से भी ज्यादा घातक है। चुनाव से पहले भारत की आम आबादी को धर्म के नशे से मुक्त करने के लिए ‘ऐंटी-डोज’ की जरूरत है। ये हमें अपने देश में ही विकसित करना होगा। हम जब जानलेवा कोविड का ‘ऐंटी डोज’ विकसित कर सकते हैं तो धर्म का ‘एंटी डोज’ भी विकसित किया जा सकता है। चूंकि सत्ता ये करना नहीं चाहती, इसलिए सत्ता से बाहर जितने भी राजनीतिक दल हैं, संगठन, संस्थाएं अपने यहां धर्म के ‘ऐंटी-डोज’ बनाने की छोटी-छोटी इकाईयां लगाएं और देश को धर्म के नशे से मुक्ति दिलाने के अभियान में शामिल हों। नशामुक्त देश ही लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा कर सकता है। धर्मनिरपेक्षता के रास्ते पर चलकर अपना भविष्य सुरक्षित कर सकता है। अन्यथा आगे एक गहरी और अंधी खाई है।