सावधान : धर्म खतरे में है!

– अशोक सोनी ‘निडर’


अक्सर हम सुनते हैं कि धर्म खतरे में है। गली मोहल्लों से लेकर विश्व स्तर पर धर्म रक्षक बने असामाजिक तत्वों की सेनाएं तैनात हो रही हैं। हर किताबी रट्टामार धार्मिक इस बात पर बहुत ही गंभीरता से विश्वास करता है कि धर्म खतरे में है और उसकी रक्षा करने के लिए लठैतों, छुरेबाजों, तलवारबाजों, कट्टेबाजों और असाल्ट रायफलधारकों की सेनाओं की आवश्यकता है। इसलिए वह इन सडक़ छाप लफंगों की सेनाओं को दोनों टांगे उठा नतमस्तक होकर नमन करता है।
आये दिन बदमाश और बेरोजगार लफंगे धर्म की रक्षा के नाम पर किसी न किसी निर्दोष निहत्थे की हत्या कर देते हैं या उसे बुरी तरह घायल कर देते हैं। कहीं गौ रक्षा के नाम पर हत्याएं हो रही हैं, तो कहीं इस्लाम और हिन्दुत्व की रक्षा के नाम पर। कहीं धर्म की रक्षा के लिए लड़कियां उठा ली जाती हैं, तो कहीं दुष्कर्म करके मार दिया दिया जाता है और ये सारे काम धार्मिक काम धर्म के रक्षकों द्वारा बड़ी श्रृद्धा से किया जा रहा है। यह और बात है कि मेरे जैसे मंदबुद्धि लोगों की समझ में यह बात नहीं आती और कभी भी नहीं मानते कि धर्म खतरे में है। लेकिन मैं भी अब मानने लगा हूं। क्योंकि अब स्पष्ट दिखने लगा है कि धर्म वास्तव में खतरे में है। अब प्रमाणित हो चुका है कि धर्म वास्तव में खतरे में है।
क्या धर्म खतरे में है?
बिल्कुल धर्म खतरे में है अब कोई संदेह नहीं रह गया। बस कुछ लोग समझ नहीं पा रहे कि धर्म खतरे में है, लेकिन धर्म वास्तव में खतरे में है। केवल भारत में ही नहीं, संपूर्ण विश्व में धर्म खतरे में है। हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन जैसे संप्रदायों, रिलीजंस की बात नहीं कर रहा। मैं केवल धर्म की ही बात कर रहा हूं और उस धर्म की बात कर रहा हूं जिसे मैं सनातन धर्म कहता हूं, जिसे मैं प्राकृतिक व ईश्वर प्रदत्त धर्म कहता हूं। मैं किसी मानव निर्मित या किसी व्यक्ति-विशेष या किताब-विशेष पर आधारित धर्म की बात नहीं कर रहा। मैं तो उस धर्म की बात कर रहा हूं जिसे लोग मानवता कहते हैं, इंसानियत कहते हैं, जो सनातन है वह खतरे में कैसे पड़ सकता है? पड़ सकता है नहीं, पड़ चुका है। अब समाज, परिवार व माता-पिता अपने बच्चों को इंसान नहीं बनाते, बल्कि हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई, कांग्रेसी, भाजपाई, सपाई, बसपाई बनाना पसंद करते हैं। अब माता-पिता स्वप्न नहीं देखते कि उनके बच्चे बड़े होकर इंसान बन जाएं, बल्कि अब सपने देखते हैं कि उनके बच्चे बड़े होकर डॉक्टर बने, इंजिनियर बनें, आईएएस बने, आइपीएस बनें। अब माता-पिता को बुरा नहीं लगता कि उनके बच्चे डिग्री लेकर लफंगों की सेना में शामिल होकर गुंडागर्दी करता फिरें, मोब-लिंचिंग करता फिरे, धूर्त-लम्पट नेताओं के तलुए चाटता फिरे, छुरा-कट्टा लेकर सडक़ों पर आवारगर्दी करता फिरेज्बल्कि अब उन्हें गर्व होता है कि उनका बच्चा यह सब करके धर्म की रक्षा कर रहा है और ऐसी मानसिकता का विस्तार होना सनातन धर्म को भी खतरे में डाल देता है। क्योंकि जब मानव ही सनातन धर्म से विमुख हो जाएगा और दड़बों को धर्म समझने लगेगा, तो धर्म का पतन निश्चित है। अब आपको न तो इस्लामिक समाज में धर्म दिखाई देगा और न ही हिन्दू समाज में, न ही साधू-समाज में, न ही बाल्मीकि, अम्बेडकर, मोदी या किसी और समाज में या दड़बे में धर्म दिखेगा। न तो मन्दिरों में आपको धर्म दिखेगा, न ही मस्जिदों में आपको धर्म दिखेगा, न स्कूलों में, न कॉलेजों में, यानि धर्म पूर्णत: वहिष्कृत हो चुका है, समाज में और सांप्रादायिकता को धर्म का नाम दे दिया गया।
अब केवल दिखावे के धार्मिक दिखेंगे, अब केवल दिखावे के धार्मिक कर्मकाण्ड जैसे कि दान, सेवा, परोपकार, कमजोर व असहायों की नि:स्वार्थ सहायता, शालीनता, सभ्य शालीनता पूर्वक बात करने की कला, अशिष्टता से परहेज, खुद खाने से पहले भूखे को खिलाना, आदि इत्यादि सब व्यावहारिकता में लुप्त ही चुके हैं और जो थोड़ा बहुत दिख भी कही रहा है, तो वह भी दिखावा ही है। बिल्कुल वैसे ही जैसे बड़े तोंद वाले बेडौल महापुरुषों का योग के प्रचार के लिए कैमरे के सामने योग करना। यानि जो कुछ भी किया जा रहा है, वह भीतरी आवेग से नहीं, धार्मिक परम्परा मानकर किया जा रहा है।
यही कारण है कि अब धर्म की शिक्षा सभ्य व शालीन विद्वान नहीं देते, न ही स्कूलों, विश्वविद्यालयों में सिखाया जाता है। बल्कि सडक़ छाप लफंगों को कट्टा, तमंचा, लाठी, बंदूक थमाकर धर्म की रक्षा की जिम्मेदारी सौंप देते हैं। इन लफंगों द्वारा किसी निर्दोष की हत्या कर देने पर न उनके माता-पिता शर्मिंदा होते हैं और न ही समाज या धार्मिक लोग शर्मिंदा होते हैं। क्योंकि उनका धर्म तो किताबों में सुरक्षित है, तो वे जानते हैं कि उनका धर्म खतरे में नहीं है। सारे देश में लोग आपस में मार काट-करने लगें, तब भी ये धार्मिक यही मानेंगे कि उनका धर्म खतरे में नहीं हैज्वे सही हैं। क्योंकि उनका धर्म किताबी है जो कभी व्यावहारिक नहीं हो सकता और जो व्यवहारिक ही नहीं है, वह खतरे में भला कैसे पड़ सकता है? जो योद्धा अपने घर से बाहर ही न निकले, जो तलवार अपने म्यान से ही न निकले, भला वह खतरे में कैसे पड़ सकता है?
धर्म क्या है और अधर्म क्या है?
लेकिन मैं मानने लगा हूं कि धर्म खतरे में है। क्योंकि धर्म पारम्परिक कर्मकाण्ड नहीं है। पूजा-पाठ, नमाज, तिलक, टोपी, घण्टे-घडिय़ाल, आरती-कीर्तन धर्म नहीं है। धर्म है परोपकार, सेवा, सहयोग, आपसी सद्भाव, प्रेम, करुणा, समाज के हितार्थ कार्य करना, अपने गांव, मोहल्ले के हितार्थ कार्य करना, राष्ट्र व नागरिकों के हितार्थ कार्य करना और यह सब करते हुए स्वयं को प्रसन्न व स्वस्थ रखने के समस्त उपाय करना, अपने सामथ्र्यानुसार उपलब्ध भोगों का उपभोग करना, नाचना, गाना, उत्सव मनाना ये सब धर्म हैं। दूसरों को कष्ट देना, दूसरों की संपत्ति छीनना, दूसरों पर अत्याचार करना, दूसरों के सुख में बाधा डालना, दूसरों के प्रेम में विष घोलना, समाज में सांप्रदायिक वैमनस्यता पैदा करना, निहत्थे, निर्दोषों की हत्याएं करना, गाली-गलौज करना, अशिष्टता से बात करना ये सब अधर्म है।
सप्रमाण समझिये कि धर्म कैसे खतरे में है
भारत में शायद ही कोई होगा जो खुद को अधार्मिक कहता हो। नास्तिक भी खुद को अधार्मिक नहीं कह सकता, क्योंकि नास्तिक भी कहीं न कहीं कोई न कोई परोपकार के कार्य कर ही देता है और परोपकार धर्म है। तो जब सवा अरब से अधिक की आबादी धार्मिक है, चाहे वह किसी भी पंथ, मत, संप्रदाय से संबंधित हो, लेकिन स्वयं को धार्मिक तो मानता ही। इनमें से कई लोग ऐसे भी होंगे जो खुद को हिन्दू नहीं मानता, मुस्लिम नहीं मानता, सिख नहीं मानता लेकिन इंसान तो मानता ही है और इंसानियत धर्म है, क्योंकि इसका विपरीत हैवानियत अधर्म है। लेकिन इतनी बड़ी संख्या में धार्मिकों के रहते हुए भी भारत में धर्म लुप्त होने के कागार पर पहुंच जाना गंभीर चिंता का विषय है।
प्रथम प्रमाण
एक खबर पढ़ी मैंने; ‘तेजी से महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर भारत में तकरीबन 19 करोड़ लोग भूखे पेट सोने को मजबूर हैंं और प्रतिदिन तीन हजार बच्चे भूख से मर जाते हैं। यह जानकारी ग्लोबल हंगर इंडैक्स के आंकड़ों से मिली है। हालांकि भारत का स्थान पिछले साल के मुकाबले ग्लोबल हंगर इंडैक्स में 63 के मुकाबले 53वां है। मंगल पर अपना यान भेजने वाले देश भारत में भूख के खिलाफ जंग सबसे बड़ी चुनौती है। बच्चों में कुपोषण और उनकी मृत्यु दर का स्तर बेहद चिंताजनक है। यहां तक कि नेपाल और श्रीलंका की स्थिति भारत से बेहतर है जबकि पाकिस्तान और बंगलादेश जैसे पिछड़े देशों में स्थिति और भी बुरी है।’
क्या कभी आपने सोचा कि लगभग हर संप्रदाय यह मानता है कि उनका संप्रदाय धर्म को महत्व देता है, लेकिन फिर भारत में ही 19 करोड़ लोग भूखे पेट क्यों सोते हैं? क्यों प्रतिदिन तीन हजार बच्चे भूख से मर जाते हैं? चलिए मान भी लें कि ये आंकड़े झूठे हो सकते हैं। तीन हजार नहीं, हजार बच्चे ही रोज मरते हैं, तो भी क्यों मरते हैं? क्या किताबी धार्मिकों की किताबों में यह नहीं लिखा है कि कोई पड़ोसी भूखा रह जाए और आपके गले से निवाला उतर जाए तो इससे बड़ा अधर्म और कुछ नहीं? क्या सभी धार्मिकों के समाज में भूखे को भोजन, प्यासे को पानी पिलाना सबसे बड़ा पुण्य नहीं माना गया? कितने धार्मिक संगठनों ने भूखे को भोजन देने के लिए आंदोलन किए और भूखों तक भोजन पहुंचाया? कितने धर्मरक्षक तलवार की बजाय भोजन की थाल और पानी की बोतल थामें भूखों के घर तक पहुंचे? कितने धार्मिकों ने राजनैतिक दबाव बनाया कि भूखों को पहले भोजन दो, अच्छी चिकित्सीय सेवाएं उपलब्ध करवाओ, उन्हें आत्मनिर्भर होने में सहयोग करो उसके बाद जीडीपी का ग्राफ दिखाना? क्या कभी तनिक भी शर्म आई खुद को धार्मिक कहते हुए, जबकि धार्मिक कोई कार्य नहीं कर रहे केवल दिखावा कर रहे हो?
जो कट्टा-तमंचा लिए धर्म की रक्षा के लिए निकले हैं, क्या उन मूर्खों को किसी ने बताया कि कट्टे-तमंचों से नहीं सेवाभाव व सहयोग से धर्म की रक्षा होती है। दड़बा हिन्दू हो या मुस्लिम या कोई और, सभी में बेबस और लाचार मिल जाते हैं, लेकिन क्यों? जब आप खुद धार्मिक नहीं हो पाए तो फिर ये धार्मिकता का ढोंग क्यों? दो चार लोग हर समाज में ऐसे मिल जाते हैं, जो गरीबों की सहायता के लिए तत्पर रहते हैं, उन्हीं की सहायता क्यों नहीं कर देते यदि खुद नहीं पहुंच पाते किसी गरीब के पास तो? चलिए माना कि आप कट्टर धार्मिक हैं, अपने धर्म के अलावा किसी और धर्म को बर्दाश्त नहीं कर सकते, अरे तो कम से कम अपने ही धर्म नाम के दड़बे में जो बेबस और लाचार भरे पड़े हैं उनकी ही सहायता कर दो और मरने दो दूसरे दडबों के बेबस और लाचारों को। अरे कम से कम अपने ही समुदाय, संप्रदाय की सहायता तो करो?
द्वितीय प्रमाण
सभी संप्रदायों के धार्मिक ग्रंथों में कहा गया है कि अधर्मियों का साथ मत दो, अत्याचारियों का साथ मत दो, अशिष्ट व असभ्य लोगों को सही राह दिखाओ या उनका बहिष्कार करो। लेकिन क्या धार्मिक लोग ऐसा कर रहे हैं ? यदि अधर्मियों, अत्याचारियों का सहयोग नहीं कर रहे होते धार्मिक लोग, तो क्या अधर्मी आज सडक़ों से लेकर ससंद तक उत्पात कर रहे होते? क्या जनता को लूटकर कोई विदेश भाग सकता था? क्या कोई जनता पर दुनिया भर के टैक्स थोपकर चैन से रह सकता था? क्या कोई जनता को असहाय और लाचार बनाने के अपने उद्देश्य में सफल हो सकता था? क्या धर्म की रक्षा के नाम पर लुच्चे-लफंगों का गिरोह किसी निर्दोष की हत्या कर सकता था?
लेकिन ऐसा हो रहा है, क्योंकि समाज धर्म से विमुख हो गया है। अब दडबों को धर्म समझ बैठा है समाज, अब नेताओं, बाबाओं, राजनैतिक व सांप्रदायिक, जातिवादी पार्टियों को धर्म समझ बैठा है। अब इंसान होना महत्वपूर्ण नहीं रह गया, अब हिन्दू होना, मुसलमान होना, कांग्रेसी होना, भाजपाई होना, संघी होना, बजरंगी होना धर्म हो गया और चूंकि दड़बों को धर्म मान लिया गया, इसीलिए इन दडबों की सुरक्षा के लिए लफंगों की सेनाओं की आवश्यकता पड़ गई। वरना सवा सौ करोड़ की जनसंख्या क्या कम है इन लुच्चे लफंगों से निपटने के लिए? क्या सवा सौ करोड़ की जनसंख्या क्या कम है इन धूर्त, जुमलेबाज, लुटेरे नेताओं को उनकी औकात बता देने के लिए? लेकिन दुर्भाग्य से जनता ही धर्म से विमुख हो गई और यही कारण है कि कुछ मुट्ठीभर बदमाश पूरे देश को गुलाम बना कर बैठ गए। कुछ मुट्ठीभर लुटेरे पुरे देश को लूटकर मालामाल हो गए और जनता अपनी किस्मत को कोस रही है।
तृतीय प्रमाण
क्या सभी संप्रदायों की धार्मिक पुस्तकों में शिक्षा के महत्व को नहीं स्वीकारा गया है? क्या शिक्षा का प्रसार-प्रसार करना सभी धार्मिकों के प्रमुख कर्तव्यों में से एक नहीं है? फिर शैक्षणिक संस्थानों की दुर्गति क्यों हो रही है?
एनडीटीवी ने एक सर्वे में यह खुलासा किया है कि भारत में अधिकांश सरकारी स्कूलों में शौचालयों और पीने के पानी की बुनियादी सुविधाओं की कमी है। शिक्षा के अधिकार (आरटीई) के कार्यान्वयन पर एनडीटीवी ने भारत के 13 राज्यों में 780 सरकारी स्कूलों का सर्वेक्षण किया। परिणाम बहुत शर्मनाक था उनमें से 63 प्रतिशत स्कूलों में कोई खेल का मैदान नहीं था। सर्वे किए गए स्कूलों में से एक तिहाई से अधिक स्कूलों की स्थिति बेहद खराब थी। ऐसी स्थित में अगर कोई छात्र शौचालय जाना चाहता है तो वह घर वापस चला जाता है। एनडीटीवी चैनल ने शौचालय की कमी को छात्राओं द्वारा अधिक मात्रा में स्कूल छोडऩे का मुख्य कारण बताया। स्थित इतनी खराब थी की 80 प्रतिशत से अधिक स्कूलों में उम्र के अनुसार छात्रों का प्रवेश नहीं था।
शिक्षा का अधिकार अधिनियम (आरटीई) प्राथमिक शिक्षा पूरी होने तक बच्चों को मुफ्त और आवश्यक शिक्षा का अधिकार प्रदान करता है। यह अधिनियम छात्र शिक्षक अनुपात (पीटीआर) के साथ-साथ स्कूलों की इमारतों, बुनियादी ढाचों, स्कूल के कामकाज के दिनों, शिक्षकों के काम करने के घण्टों, प्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति को भी निर्दिष्ट करता है। बहुत से सरकारी स्कूलों को लंबे समय से पुन:निर्मित नहीं किया गया है। कभी-कभी छात्रों को कक्षा के बाहर फर्श पर बैठने के लिए कहा जाता है क्योंकि स्कूल की छत किसी भी समय गिर सकती है। क्या धार्मिकों ने कभी शिक्षा पर प्रश्न उठाया? क्या कभी धार्मिकों ने सरकार पर दबाव बनाया कि उनके बच्चों को उचित शिक्षा मिले वह भी बच्चों के स्वास्थ्य को हानि पहुंचाए बिना? शायद नहीं! क्योंकि आप लोगों के लिए ये धर्म नहीं है। धर्म तो है हिन्दू-मुस्लिम खेलना, ब्राह्मण-दलित खेलना और मेरी नजर में ये केवल सांप्रदायिकता है धर्म नहीं। धर्म हिन्दू-मुस्लिम में नहीं बटा हुआ है, धर्म केवल धर्म ही होता है और सार्वभौमिक होता है। हिन्दू हो या मुस्लिम या कोई और संप्रदाय, सभी के बच्चों को शिक्षा दिलाना धर्म है। सभी के बच्चों के स्वास्थ्य व सुरक्षा का ध्यान रखना धर्म है।
तो समाज धर्म से विमुख हो गया और सांप्रदायिकता को धर्म मान बैठा, इसीलिए ही मैं कह रहा हूं कि धर्म खतरे में हैं। धर्म वह नहीं जो ये लुच्चे लफंगों के नेता और ठेकेदार समझा रहे हैं। ये छुरेबाज, कट्टेबाज, बेरोजगार लफंगे और उनके ठेकेदार सिखाएंगे हमें धर्म? यदि ऐसी स्थिति आ गई है कि अब इन लुच्चे लफंगों से धर्म सीखना पड़े, तो बेहतर है कि सारा समाज ही आत्महत्या कर ले। यदि इनके बहकावे में आकर पढ़े-लिखे भी गुण्डागर्दी करने लगें, सांप्रदायिक वैमनस्यता फैलाने लगें, तो बेहतर है कि समाज खुद को धार्मिक कहना ही छोड़ दें।
तो शायद अब आप समझ गए होंगे कि धर्म वास्तव में खतरे में है, क्योंकि समाज धर्म से विमुख हो गया और सांप्रदायिकता को धर्म के रूप में धारण कर चुका है और यही स्थिति रही तो बहुत ही जल्द धर्म लुप्त जाएगा और उसके साथ ही लुप्त हो जाएगा इंसान और इंसानियत, मैं अब अपने शब्दो को यही विराम दे रहा हूं और ये थोड़ी-सी बातें मैंने कहीं। जरूरी नहीं कि मेरी बातें सब ठीक हों। गलत हो सकती हैं, इसलिए सोचना मेरी बातों पर, हो सकता है कोई बात सोचने से ठीक मालूम पड़े और अगर ठीक मालूम पड़े, तो यह दायित्व हो जाएगा।
जयहिन्द, वंदे मातरम