– राकेश अचल
ये खबर आपके लिए रोचक भी हो सकती है और तकलीफदेह भी, लेकिन है ये आपसे बाबस्ता। आपके शहर में यदि कोई छोटा-बडा किला है तो आप खुशनसीब हैं, क्योंकि आपके पास कोई न कोई छोटा-बडा इतिहास है। विरासत है। लेकिन यदि आपकी विरासत से जुडे किलेदार या खुद को महाराज कहने वाले लोग शादियों में ठुमके लगते दिखाई दें तो समझ जाइये कि देश में लोकशाही आ गई है, और यदि आपके शहर में कोई किला किराये पर उठाया जाने लगे तो समझ लीजिए कि आपके सूबे का दीवाला पिटने वाला है या पिट चुका है।
भारत किलों का देश है। किले का लघु संस्करण गढी होती हैं। भारत में कुल कितने किले हैं, मैं नहीं जानता। लेकिन मुझे पता है कि आज के जमाने में भले ही आप ‘ट्रम्प टावर’ बना लें लेकिन कोई नया किला नहीं बना सकते, क्योंकि किले बनाने की न तकनीक रही और न किले बनाने वाले। अब जमाना बदल गया है, जो देश अपने किलों की देख-रेख विरासत समझकर नहीं कर पाते वे या तो किलों को अनाथ छोड देते हैं या फिर उन्हें किराये पर उठा देते हैं। भारत में किलों का रख-रखाव सफेद हाथी पालने जैसा है, लेकिन बहुत से पुराने राजे-महाराजे ऐसे हैं जो अपने किलों को बचाए हुए हैं, भले ही वे अब न राजा हैं, न महाराजा और न किलेदार।
ज्यादातर किले भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की संपत्ति हैं। बांकी किले राज्यों के पुरातत्व या संस्कृति विभाग की संपत्ति हैं। ज्यादातर किले अपनी दुर्दशा पर रो रहे हैं, लेकिन जो नहीं रो रहे और आज भी समय के साथ संघर्ष कर रहे हैं उन्हें हमारी सरकारों ने अब किराये पर उठाना शुरू कर दिया है। सबसे पहले देश की राजधानी दिल्ली का लाल किला डालमियां को किराये पर दिया गया और अब मध्य प्रदेश का सबसे दुर्गम और अजेय माने जाना वाला ग्वालियर का किला इंडिगो एयरलाइंस को किराये पर देने की तैयारी चल रही है। हालांकि अभी ग्वालियर किले का एक हिस्सा ही किराये पर दिया जा रहा है।
दुनिया में जिन देशों के पास भारत जैसे विशाल किले नहीं हैं वे अपने छोटे-छोटे किलों की देख-रेख भी ऐसे करते हैं, जैसे कोई अपने परिवार के बच्चे या बुजुर्ग की करता है। मैंने दुनिया के अनेक देशों में किले देखे हैं। यूएई में एक किला है फुजौरा का किला। आप उसे देख कर हंस पडेंगे, क्योंकि वो किला हमारे यहां की किसी भी गढी से भी छोटा है, लेकिन यूएई की सरकार और जनता उस किले पर गर्व करती है। अमेरिका में छोटे-छोटे समुद्री किले हैं। जो गुजरे जमाने में सुरक्षा की दृष्टि से बनाए गए थे, लेकिन उन्हें ऐसे बचाकर और संवारकर रखा गया है जैसे वे कल ही बने हों। अमेरिका वाले अपने किलों से हर दिन डॉलर छापते हैं। लेकिन हमारे यहां अपवादों को छोड किले दुर्दशा के शिकार हो रहे हैं और लोगों ने किला परिसरों को या तो झुग्गियों में बदल दिया है या उन्हें सार्वजनिक शौचालय में तब्दील कर दिया है।
बहरहाल बात ग्वालियर किले की हो रही है। ग्वालियर का किला कम से कम 700 साल पुराना और ज्यादा से ज्यादा हजार साल पुराना तो है ही। इस किले को किसी सिंधिया ने नहीं बनवाया। ये किला सूरज सेन ने बनवाया। सोलहवीं सदी में तोमरों ने किले पर निर्माण कराए, बाद में किला अंग्रेजों की फौज के काम आया और अंत में सिंधिया घराने के कब्जे में रहा। हालांकि आजादी के बाद किला भारत सरकार की संपत्ति हो गया, किन्तु किले के एक बडे हिस्से पर सिंधिया परिवार का कब्जा कल भी था और आज भी है। बल्कि अब कुछ और हिस्सा राज्य सरकार ने सिंधिया को सिंधिया स्कूल के लिए दे दिया है।
ग्वालियर के किले पर जो मान मन्दिर है वो दुनिया के पर्यटकों के लिए आकर्षण का केन्द्र है। जो दाताबंदी छोड गुरुद्वारा हैं वो भी हालांकि आजादी के बाद बना, किन्तु दुनिया भर के सिखों की आस्था का केन्द्र है। किले पर असंख्य पर्यटक आ-जा सकते हैं, लेकिन सिंधिया परिवार ने यहां आज-तक रोप-वे नहीं बनने दिया। किले पर पैदल चढना कष्टकारक है और सभी के पास चार पहिया वाहन होते नहीं हैं, ग्वालियर का नगर निगम तीस साल से ग्वालियर दुर्ग पर रोप-वे बनाना चाहता है, लेकिन भारतीय पुरातत्व सर्वे इजाजत नहीं देता, क्योंकि ग्वालियर के स्वयंभू महाराज नहीं चाहते। अगर चाहते होते तो जैसे ग्वालियर किले का एक हिस्सा इंडिगो एयरलाइंस को किराये पर देने का एमओयू हो रहा है वैसे ही रोप-वे भी बन जाता।
ग्वालियर किला किराये पर देने की खबर से ग्वालियर वाले हतप्रभ हैं। ग्वालियर वालों को उतनी हैरत ग्वालियर के स्वयंभू महाराज ज्योतिरादित्य सिंधिया को केन्द्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह के बेटे की बारात में नृत्य करते देख कर नहीं हुई जितनी कि ग्वालियर किले के एक हिस्से को किराये पर देने की खबर से हुई है। लेकिन मुश्किल ये है कि ग्वालियर में कोई भी दल इस फैसले का विरोध खुलकर करने की स्थिति में नहीं है। दरअसल जैसे दिल्ली का लाल किला दिल्ली वाले नहीं बचा पाए वैसे ही ग्वालियर का किला ग्वालियर वाले निजी हाथों में जाने से नहीं बचा पा रहे हैं। बचा भी नहीं सकते, क्योंकि ग्वालियर वालों के स्वभाव में अब हुजरा-मुजरा गहरे तक बैठ गया है। लेकिन स्वाभिमान की बात करने वाली और औरंगजेब को ओसामा बिन लादेन मानने वाली सरकारें अपने किले हंसी-ख़ुशी किराये पर उठा रही हैं। तीसरा नंबर किस किले का होगा, कहा नहीं जा सकता। इसलिए यदि आपके शहर में कोई किला है तो उसे अभी जीभर कर देख लीजिए, बाद में पता नहीं आप वहां जा भी पाएं या नहीं?
हमारे ग्वालियर शहर का किला मुगलों का भी सपना रहा और अंग्रेजों का भी। गजनी जैसे योद्धा यहां चार-दिन तक डेरा डेल रहे, यहां शाही कैदखाना भी बनाया गया। यहां का इतिहास कभी फुरसत में बैठकर पढिए, तब समझ आएगा कि किला आखिर होता क्या है। दुनिया का कोई भी किला रातों-रात नहीं बनता, उसके साथ बनता है एक इतिहास जो कम से कम किराये पर नहीं दिया जाना चाहिए। लेकिन जिन शहरों को अपने विरसे पर नाज नहीं होता उनकी विरासत शर्मसार होती ही है।