– राकेश अचल
पांच राज्यों के लिए विधानसभा चुनावों के प्रत्याशियों के नामों की घोषणा के साथ ही सभी प्रमुख राजनीतिक दलों में बगावत के स्वर सुनाई देते हैं। इसे लेकर नुक्ताचीनी करने का कोई अर्थ नहीं है। चुनावों के समय की जाने वाली बगावतों का बहुत आशिंक असर होता है, लेकिन यदि बगावत संगठित रूप से होती है तो राजनीतिक परिदृश्य बदलने में ज्यादा देर नहीं लगती। बावजूद इसके कुछ बगावतें भीगी बारूद की तरह फुस्स होकर रह जाती हैं।
बगावतों का इतिहास हर राज्य में है, उत्तर से लेकर दक्षिण तक और पूर्व से लेकर पश्चिम तक। बगावत की बयार अक्सर चलती है, किन्तु आंधी में यदा-कदा तब्दील हो पाती है। बगावत जब आंधी में तब्दील होती है, तब अनेक अवसरों पर राजनीतिक दलों का विभाजन भी होता है। सबसे ज्यादा विभाजन का दंश कांग्रेस ने सहा है। भाजपा में भी अनेक विभाजन हुए लेकिन भाजपा छोडकर जिन नेताओं ने भी अपने दल बनाए वे ज्यादा दिन अपना वजूद बचाकर नहीं रख सके। वामपंथी दलों में भी एक-दो अवसरों पर बगावत हुई, समाजवादी भी इस बीमारी के पुराने रोगी हैं।
सियासत में बगावत का पुराना इतिहास है, फिलहाल बात करते हैं मप्र, राजस्थान, छत्तीसगढ, तेलंगाना और मिजोरम की, क्योंकि इन्हीं राज्यों में विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं। मिजोरम विधानसभा के चुनावों को लेकर भाजपा और कांग्रेस ज्यादा गंभीर नहीं है। मिजोरम विधानसभा के चुनाव एक छोटी-मोटी नगर निगम के चुनाव जैसे हैं। फिर मिजोरम में भाजपा का कुछ है भी नहीं और हाल की मणिपुर की घटना ने भाजपा के लिए बची-खुची गुंजाइश भी समाप्त कर दी है। कमोवेश यही दशा भाजपा की तेलंगाना में है। हालांकि तेलंगाना में भाजपा ने थोडी-बहुत उछल-कूंद की भी। चुनावों की औपचारिक घोषणा के पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमित शाह तेलंगाना जाकर केसीआर को हडका कर भी आए, किन्तु बात बनी नहीं। तेलंगाना में मुकाबला कांग्रेस और मौजूदा सत्तारूढ दल के साथ है। इसलिए यहां बगावत की कोई समस्या है नहीं।
भाजपा का पूरा ध्यान मप्र, राजस्थान और छत्तीसगढ पर है। इन तीनों राज्यों में भाजपा की मोदी-शाह जोडी पूरा कसबल लगा रही है। इन तीनों राज्यों में भाजपा विधानसभा चुनावों की औपचारिक घोषणा के पहले ही भसकना (दरकना) शुरू हो गई थी। मप्र में तो भाजपा में सबसे ज्यादा बगावत हुई। विधायक से लेकर स्थानीय स्तर के नेता तक भाजपा छोडकर कांग्रेस में शामिल हो गए। पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी के पुत्र दीपक जोशी से शुरू हुई ये बगावत आज भी जारी है। भाजपा प्रत्याशियों की हर नई सूची बगावत की खबर लेकर आती है। लेकिन भाजपा की बगावत का स्वरूप असंगठित है, इसलिए पार्टी में विभाजन का तो कोई खतरा नहीं है, किन्तु इस बगावत की वजह से पार्टी की स्थिति कमजोर अवश्य हो रही है।
भाजपा ने मप्र में जिन तीन केन्द्रीय मंत्रियों और सांसदों के अलावा पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव को विधानसभा चुनाव में उतारा है वे सब बेमन से चुनाव लड रहे हैं। ये दसों नेता चुनाव लडना चाहते थे अपने बच्चों को, अपने समर्थकों को, लेकिन पार्टी हाईकमान ने किसी की एक नहीं सुनी। इन दस नेताओं के आने से भाजपा को कम से कम तीस सीटों पर जीत की उम्मीद है, लेकिन हो उलटा रहा है। ये दसों की दस सीटें भी अब असुरक्षित दिखने लगी हैं। जिस चंबल-ग्वालियर अंचल ने भाजपा को पिछले विधानसभा चुनाव में पटकनी दी थी और बाद में इसी अंचल से कांग्रेस में हुई बगावत ने भाजपा को सत्ता तक पहुंचाया था, उसी में एक बार फिर बगावत सबसे ज्यादा हुई है और असंतोष की महीन स्वर तो अब भी सुनाई दे रहे हैं।
भाजपा के पितृ पुरुष और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के भांजे अनूप मिश्रा को टिकिट नहीं मिला है। वे खाट-पाट लेकर कोप भवन में है। उनके कांग्रेस में जाने की खबरें भी हवा में तैरीं, किन्तु अनूप मिश्रा को इन खबरों का खण्डन करना पडा, क्योंकि उन्हें पता था कि कांग्रेस में उनका कोई माई-बाप नहीं है सिवाय दिग्विजय सिंह के, और एन मौके पर वे भी उनकी कोई मदद नहीं कर सकते। ग्वालियर में ही पूर्व मंत्री नारायण सिंह की बगावत की मंशा भी पूरी नहीं हो पाई। मुरैना में पूर्वमंत्री रुस्तम सिंह के भी बागी होने की खबरें उडी थीं, किन्तु अब वे भी असंतुष्ट होकर बैठे हैं। वे अपने बेटे के लिए टिकटार्थी थे। अभी तक उनके बेटे के बारे में पार्टी ने कोई फैसला नहीं किया गया है। भिण्ड जिने की लहार विधानसभा से पूर्व विधायक रसाल सिंह बागी हो गए हैं। उनकी बगावत से एक-दो सीटों का गणित तो बिगड ही सकता है। भिण्ड में भाजपा में शामिल हुए बसपा के विधायक संजीव सिंह का कथित पटवारी घोटाला पहले से भाजपा के गले कि हड्डी बना हुआ है।
मप्र में कांग्रेस की पहली सूची आने के बाद बगावत की इक्का-दुक्का खबर हैं, लेकिन कांग्रेस को इससे कोई फर्क नहीं पडने वाला। कांग्रेस ने बहुत ठोंक-बजाकर प्रत्याशियों का चयन किया है। ग्वालियर में एक मात्र कांग्रेसी केदार सिंह कंसाना ने टिकिट न मिलने पर पार्टी छोडी है। वे जरूर कांग्रेस की एक सीट का गणित खराब कर सकते हैं, लेकिन बांकी कहीं कोई खरखसा नहीं है। कांग्रेस ने छह बार के विधायक केपी सिंह को अपनी सीट बदलने की सुविधा भी दी। वे अब पिछोर की जगह शिवपुरी से चुनाव लडेंगे। पहले भाजपा की ओर से शिवपुरी से श्रीमती यशोधरा राजे चुनाव लडती थीं, लेकिन इस बार वे भी नाखुश भाजपाइयों की सोची में शामिल हो गई हैं। वे अपने बेटे के लिए टिकिट चाहती थीं, किन्तु पार्टी ने उनकी सुनी नहीं।
भाजपा की चार सूचियां आने के बाद कांग्रेस की पहली सूची आने से कांग्रेस को फैसला करने में आसानी हुई। कांग्रेस ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को चुनावों में उलझाने के लिए एक अराजनीतिक व्यक्ति को अपना प्रत्याशी बनाया, जो छोटे परदे का हनुमान हैं। बुधनी सीट से कांग्रेस के इस फैसले में कोई गंभीरता तो नजर नहीं आती, किन्तु ये प्रयोग शिवराज सिंह चौहान की नाव पार भी लगा सकता है और डुबो भी सकता है। वैसे जहां तक सूचनाएं हैं कि चौहान के खिलाफ हनुमान को उतारने का फैसला शिवराज सिंह के कांग्रेसी शुभचिंतकों ने सोच-समझकर ही किया है। कांग्रेस ने परिवारवाद के आरोप की परवाह किए बिना एक ही परिवार के दो-लोगों को टिकिट दिया।
राजस्थान में भी भाजपा के समाने बगावत एक गंभीर समस्या है। यहां पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती (श्रीमंत भी) बसुंधरा राजे भाजपा के लिए सबसे बडी समस्या हैं। भाजपा बसुंधरा राजे से छुटकारा चाहती है, लेकिन वे भाजपा छोडना नहीं चाहती। वे राजस्थान की उमा भारती भी नहीं बनना चाहतीं, अर्थात पार्टी को तोडना भी नहीं चाहतीं, किन्तु उनके पार्टी में रहने से भी भाजपा को कोई लाभ नहीं होने वाला, क्योंकि वे नाराज हैं। वे महिला भी हैं और पुराने सामंत परिवार से भी। उनके पास राजहठ भी है और त्रियाहठ भी। जो सीधे प्रधानमंत्री और शाह की जोडी को भारी पड सकता है। राजस्थान में भी भाजपा के कमजोर किले की किलेबंदी के लिए सांसदों और केन्द्रीय मंत्रियों को मैदान में उतारा गया है। ये सब मिलकर बसुंधरा राजे की वजह से होने वाले नुक्सान की कितनी भरपाई कर पाएंगे, कहना कठिन है।
छत्तीसगढ में भाजपा के मुकाबले कांग्रेस में बगावत होना चाहिए, लेकिन ऐसा होता नहीं दिखाई दे रहा। यहां कांग्रेस सतर्क है। उसे पता है कि सत्ता प्रतिष्ठान के खिलाफ जनता की स्वाभाविक नाराजगी आमतौर पर जैसी होती है वैसी छग में है नहीं। कांग्रेस के असंतुष्ट नेता भी जानते हैं कि जब सबसे बडे कांग्रेसी नेता सिंघदेव बगावत नहीं कर सके तो समान्य कांग्रेसी नेता की हैसियत ही नहीं है बगावत करने की। छग में भाजपा में भी बगावत मुमकिन है, क्योंकि यहां आज भी भाजपा परिवार की बैशाखी लेकर चलने की कोशिश कर रही है। मप्र में परिवारवाद का सहारा भाजपा के बजाय कांग्रेस ने ज्यादा लिया। मप्र में पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के भाई और बेटे तक को टिकिट मिल गया, किन्तु बांकी टापते रह गए।
अतीत में झांके तो आप पाएंगे कि कांग्रेस से बगावत कर बनी एनसीपी हो या तृमूकां, कम से कम राज्य की सत्ता में तो है, लेकिन भाजपा से बगावत कर बनी उमा भर्ती की पार्टी का, केशूभाई की पार्टी का कोई अता-पता नहीं है। समाजवादियों के विभाजन से जन्मी जेडीयू जरूर बिहार में गठबंधन की सरकार का हिस्सा है। शिवसेना से टूटी शिवसेना भी महाराष्ट्र में सत्ता के साथ है, लेकिन भाजपा से अलग हुए लोग अपना दलबल छोडछाड कर भाजपा में वापस लौट आए। टूटी तो बसपा, समाजवादी पार्टी और आम आदमी पार्टी भी, किन्तु इन दलों से अलग हुए लोग भी अपना दल चला नहीं चला पाए। अब देखना ये है कि आने वाले दिनों में भाजपा, कांग्रेस अपने आपको बगावत के इस जहर से कितना अक्षुण रख पाते हैं?