युद्ध की छाया में चुनाव बे-मजा

– राकेश अचल


इजराइल और फिलिस्तीन के बीच चल रहे युद्ध ने भारत में पांच राज्यों के चुनावों का रंग फीका कर दिया है। चुनाव बे-मजा हो गए है। टीवी के परदे का एक बडा समय इस युद्ध की भेंट चढ गया है। युद्ध होता ही ऐसा है जिसमें सब कुछ भेंट चढ जाता है। मानवता तक नहीं बचती। पहले 15 दिन पितृपक्ष ले गया और आने वाले नौ दिन देवी के नाम आरक्षित हैं। कांग्रेस ने पितृपक्ष में अपने प्रत्याशियों की सूची का ऐलान न कर इस रंग को और बेरंग कर दिया।
पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव को लेकर भाजपा ने दो महीने पहले ही अपने प्रत्याशियों की पहली सूची मध्य प्रदेश में जारी कर दी थी। फिर छत्तीसगढ का नंबर आया। राजस्थान की बारी बाद में आई। तेलंगाना और मिजोरम विधानसभा चुनाव में भाजपा की ज्यादा दिलचस्पी है नहीं, क्योंकि इन दोनों राज्यों में भाजपा के लिए कोई ज्यादा गुंजाइश है भी नहीं। पैर रखने की जगह ही मिल जाए ये ही बहुत है। स्थिति ये है कि मिजोरम की ओर तो अब तक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने झांका तक नहीं है। इन विधानसभा चुनावों में रंग उभरने से पहले ही इजराइल और फिलिस्तीन के बीच जंग छिड गई। भारत सरकार अब इस जंग में व्यस्त है, चुनावों के लिए समय निकलना कठिन हो रहा है।
सत्तारूढ भाजपा के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण मप्र और राजस्थान में ‘सिंधिया फेक्टर’ गले की फांस बन या है। राजस्थान में भाजपा पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती बसुंधरा राजे सिंधिया को विधानसभा चुनाव से अलग रखना चाहती है, लेकिन वे हैं कि अलग हो ही नहीं रही। भाजपा ने रानी का विकल्प रानी को चुना, लेकिन मुकाबला सध नहीं रहा। जयपुर राजघराने की रानी धौलपुर की महारानी के समाने टिक नहीं पा रहीं। प्रदेश भाजपा का एक बडा धडा बसुंधरा राजे के साथ खडा है। बसुंधरा राजे से भाजपा की विरक्ति की वजह क्या है ये कोई नहीं जानता, जबकि भाजपा की जडों में सिंधिया खानदान का बहुत खून-पसीना लगा हुआ है।
मप्र में बसुंधरा राजे सिंधिया की बहन यशोधरा राजे ने भाजपा हाईकमान के तेवर देख कर मैदान छोड दिया है। वे विधानसभा का चुनाव नहीं लड रही हैं। वैसे भी उन्हें टिकिट न मिलना तय था। भनक समय पर पड गई सो यशोधरा ने खुद ही मना कर दिया। बसुंधरा और यशोधरा के भाई माधवराव सिंधिया के इकलौते पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया हालांकि मप्र में भाजपा के लिए एक बडी जरूरत हैं, लेकिन वे भी विधानसभा चुनाव लडने के लिए राजी नहीं है। वे चुनाव लडवाने वाले नेता हैं, हालांकि भाजपा पिछले लोकसभा चुनाव में उन्हें अभिमन्यु की तरह घेरकर चुनाव हरा चुकी है। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने आपको चुनाव प्रचार के लिए तैयार कर रखा है, जबकि उनके विरोधी चाहते हैं कि जब भाजपा के सात सांसद चुनाव लड रहे हैं तो सिंधिया को भी विधानसभा का चुनाव लडाया जाना चाहिए।
छत्तीसगढ में भाजपा के पास कोई सिंधिया है नहीं, इसलिए वहां सिंधियाशाही को लेकर कोई संकट नहीं है। छग में भाजपा अपने वजूद के लिए चुनाव लड रही है, सत्ता हासिल करने के लिए नहीं। यहां भाजपा ने मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के खिलाफ उनके ही भतीजे को चुनाव मैदान में उतारा है। भाजपा के पास कोई और पुरोधा है ही नहीं। पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह पहले ही निराश कर चुके है। 2018 के विधानसभा चुनाव में डॉ. रमन सिंह की कथित लोकप्रियता की कलई खुल चुकी है। पिछले पांच साल में छग में भाजपा का चर्चित ‘आपरेशन लोटस’ भी कामयाब नहीं हुआ। भाजपा को छग कांग्रेस में ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसा कोई विभीषण नहीं मिला। राजस्थान ने भी इस मामले में भाजपा को निराश किया।
इन बे-मजा विधानसभा चुनाव में जितनी बेफिक्री इस बार कांग्रेस में दिखाई दे रही है, उतनी पहले कभी नहीं देखी गई। कांग्रेस की महासचिव श्रीमती प्रियंका बाड्रा अपनी चुनाव रैलियों में अपने समर्थकों के बीच आंख मिचौनी करते दिखाई दे रही हैं। उनके चेहरे पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह के चेहरों पर चस्पा तनाव रत्तीभर नहीं है। राहुल गांधी की चुनावी रैलियां भी बिना तनाव के हो रही हैं। आम आदमी पार्टी की चुनावी रैलियों पर जरूर सांसद संजय सिंह की गिरफ्तारी का असर पडा है। आम आदमी पार्टी को भाजपा से दिल्ली में भी लडना पड रहा है और दिल्ली के बाहर भी। आप के तीन नेता जेल में हैं और इनमें से दो तो स्टार प्रचारक हैं। मनीष सिसौदिया और संजय सिंह की कमी आम आदमी को खल रही है। पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान उतने प्रभावी साबित नहीं हो रहे। इसलिए इन तीनों राज्यों में आप न गुजरात दोहरा पाएगी और न पंजाब।
भाजपा में मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के ‘फीनिक्स’ अवतार ने भी भाजपा की मुश्किलें बढा दी हैं। भाजपा हाईकमान शिवराज सिंह चौहान से मुक्ति पाना चाहता हैं, लेकिन शिवराज सिंह हैं कि फीनिक्स की तरह बार-बार जन्म ले लेते हैं। 2018 में जनता ने उन्हें खारिज कर दिया, लेकिन 2020 में उनका पुनर्जन्म हो गया और वे एक बार फिर जन्म लेने का ऐलान कर चुके हैं। इतना आत्मविश्वास तो महारानी बसुंधरा राजे सिंधिया भी प्रकट नहीं कर सकीं अपने आप पर। मजे की बात ये है कि चौहान हों या बसुंधरा राजे सिंधिया या ज्योतिरादित्य सिंधिया तीनों संसदीय ज्ञान में अपनी पार्टी के वर्तमान भाग्य विधाताओं से ज्यादा अनुभवी हैं। शिवराज सिंह चौहान 1991 में संसद की सीढियां चढ चुके थे। बसुंधरा ने संसद की सीढियां 1989 में चढीं थी, जबकि ज्योतिरादित्य सिंधिया भी 2002 में सांसद पहुंच चुके थे। संसद पहुंचने वाले नरेन्द्र मोदी इन सबमें जूनियर हैं। वे 2014 में सांसद की सीढियां चढे। मोदी विधानसभा में भी बसुंधरा राजे और शिवराज सिंह के बाद पहुंचे।
बहरहाल युद्ध की छाया में हो रहे बेरंग विधानसभा चुनावों में रंग भरने की पुरजोर कोशिशें की जा रही हैं। मतदाताओं को रिझाने की इन कोशिशों को कितनी कामयाबी मिलती है ये कह पाना अभी कठिन हैं। यद्यपि प्रधामंत्री जी कैलाश में डमरू बजा रहे हैं। उनका तांडव कब शुरू होगा ये नहीं कहा और बताया जा सकता। वे ही हैं, जो इन चुनावों को बेरंग होने से बचा सकते हैं अपनी मसखरी से, अपने अभिनय से, अपनी वेश-भूषा से। और इस से तो किसी को उम्मीद हैं नहीं।