@ राकेश अचल
सावन का महीना रक्षा सूत्रों की कहानी से बंधा महीना है। मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपना राज बचाए रखने के लिए अपनी कलाई पर रिश्तों की डोर बंधवाने से पहले ही प्रदेश की तमाम बहनों को एक-एक हजार रुपए का नजराना भिजवा दिया है। वे चाहते हैं कि विधानसभा चुनाव होने तक हर लाड़ली बहन के खाते में कम से कम दस हजार रुपए तो पहुंचा ही दिए जाएं। चुनाव जीतने के लिए अभी तक ‘सोशल इंजीनियरिंग’ की जाती थी, लेकिन मामा शिवराज सिंह चौहान ने सरकारी खजाना खाली कर ‘पर्सनल इंजीनियरिंग’ कर डाली।
मप्र में विधानसभा चुनाव जीतने के लिए सत्तारूढ़ दल की ओर से इस्तेमाल किया गया ये सबसे बड़ा ‘मास्टर स्ट्रोक’ माना जा रहा है। लोकतंत्र में सरकारें लोक कल्याण के नाम पर कुछ भी कर गुजरतीं है। कोई अन्न मुफ्त में देता है, तो कोई मंगलसूत्र। कहीं चावल मुफ्त में बांटते हैं तो कहीं स्कूटीयां। कहीं किसानों के खातों में मुफ्त का माल जा रहा है, तो कहीं लाड़ली बहनों के खातों में। भले ही अस्पतालों में डॉक्टर न हों, दवाएं न हों। स्कूलों में इमारतें न हों, शिक्षक न हों|
दूसरे राज्यों को छोड़िये, अभी बात हम अपने मप्र की कर रहे है। मप्र में ये पहली ऐसी अतिक्रमित सरकार है जो लोक कल्याण के लिए कर्ज पर कर्ज लेती जा रही है। आज नौबत ये है कि प्रदेश के प्रति व्यक्ति के सिर पर कम से कम 50 हजार रुपए का कर्ज लदा हुआ है। एक हजार रुपए मुफ्त में हासिल करने वाली लाड़ली बहनें भी इस कर्ज भार से दबीं हैं। मुख्यमंत्री कमाओ-खाओ योजना में शामिल नौजवान भी इस कर्ज का बोझ सह रहे हैं, किन्तु किसी को अहसास नहीं होने दिया जा रहा है।
आप आंकड़ों पर शायद भरोसा न करें, किन्तु ये हकीकत है कि ये सरकार जाते-जाते प्रदेश के ऊपर कम से कम 55 हजार करोड़ का कर्ज तो चढ़ाकर ही सांस लेगी। सरकार हर पखवाड़े कर्ज ले रही है और कहीं पत्ता भी नहीं हिल रहा। सरकार को हटकने वाला कोई नहीं है। न नौकरशाही और न नेतानगरी। सब सत्तारूढ़ दल को चुनाव जिताने के लिए कर्ज पर कर्ज लिए जा रहे है। जानते हैं कि सत्ता में वापस लौटे तो किसी न किसी तरह मैनेज कर लेंगे और न लौटे तो आने वाली सरकार भुगतेगी। लेकिन सरकारों पर इस कर्जदारी से कोई फर्क नहीं पड़ता। भुगतना अंतोगत्वा जनता को ही है।
आंकड़े बोलते हैं कि हमारी लोकप्रिय सरकार ने बीते तीन साल में कम से कम 3 हजार 85 करोड़ रुपए का कर्ज लिया है। कर्ज की रकम थोड़ी-बहुत कम-बढ़ हो सकती है। अकेले फरवरी 2023 में ही सरकार को 14 हजार करोड़ रुपए का कर्ज लेना पड़ा। प्रदेश की सरकार ने धीरे-धीरे पिछले 11 माह में कम से कम 25 हजार करोड़ रुपए का कर्ज लिया है। ये कर्ज पिछली सरकार के कर्ज से 12 फीसदी से भी कहीं ज्यादा है। प्रदेश सरकार ने राष्ट्रीय बचत योजना की रकम भी नहीं छोड़ी और वहां से भी 3756 करोड़ की रकम कर्ज के रूप में ले ली। ये कर्ज लम्बी अवधि के होते हैं। जनता को इस कर्ज के बोझ का अहसास ही नहीं होने दिया जाता। भले ही इस कर्ज की अदायगी जनता के पैसे से ही की जाती है।
अर्थशास्त्र कहता है कि कर्ज लेना जरूरी है और आपके पास उस कर्ज की अदायगी की क्षमता है तो जरूर कर्ज लीजिए। लेकिन जब घर में दाना न हो तो कर्ज लेना मूर्खता है। विकास कार्यों के लिए कर्ज लेना समझ में आता है, किन्तु लाड़ली बहनो, भांजियों और भांजों को मुफ्त का माल देने के लिए कोई सरकार यदि कर्ज लेती है तो इसे अक्लमंदी तो नहीं कहा जा सकता। ये एक तरह का धोखा है। जनता के साथ और संघीय व्यवस्था के साथ भी।
चूंकि प्रदेश में डबल इंजन की सरकार है, इसलिए प्रदेश सरकार को कर्ज लेने में किसी तरह कि कोई परेशानी भी नहीं है। राज्य सरकार की तरह केंद्र की सरकार भी कर्ज के बोझ के नीचे दबी हुई है। सरकार के ही आंकड़े कहते हैं कि 2005 में जहां केंद्र सरकार के ऊपर विदेशी कर्ज मात्र 10 लाख करोड़ रुपए था जो आज बढ़कर 33 लाख करोड़ रुपए हो गया है। केंद्र ने पिछले 9 साल में कम से कम 19 लाख करोड़ रुपए का विदेशी कर्ज लिया है। यानि मोदी युग में कर्ज लेने की दर 12 प्रतिशत से भी कहीं ज्यादा हो गई है। चूंकि मोदी जी विश्वगुरू हैं इसलिए उन्हें और उनकी सरकार को कर्ज लेने में ज्यादा दिक्कत भी नहीं होती।
कर्ज लेकर सरकारें चलना चार्वाक के दर्शन पर अमल करने जैसा है। चार्वाक कहते थे कि ‘कर्ज लो, घी पियो, क्योंकि पुनर्जन्म किसने देखा है। ये शरीर तो भस्मीभूत हो ही जाना है। ‘यावज्जीवेत सुखम जिवेद, ऋणं कृत्वा घृतम पिवेत। भस्मिभूतस्य देहस्य पुनरागमन कुत:। सरकारों को भी पता है कि जनादेश का क्या भरोसा? मिले या न मिले। इसलिए जो कर सकते हो चुनावी साल में कर निकलो। मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को भी पता है कि जो 2018 में हुआ वो 2023 में भी हो सकता है, इसलिए कर्ज लो बहनों, भानजियों, भांजो, आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं, संविदा कर्मियों को बांटो शायद बात बन जाए!
भारत में चुनावों में भ्रष्टाचार और कदाचार की जड़ ही ये मुफ्तखोरी और इसके लिए कर्ज का इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति है। ये किसी एक दल की बीमारी नहीं है, बल्कि ये रोग हर दल में है। दक्षिण के क्षेत्रीय दल तो इस मामले में राष्ट्रीय दलों से भी आगे हैं। जो सत्ता में है वो जनता को ललचाने के लिए कर्ज पर कर्ज लेने को ही राजधर्म मानता है। उसे न कोई क़ानून रोकता है और न कोई अदालत। चुनाव आयोग की तो हिम्मत ही नहीं है। यदि देश में चुनाव कानूनों में ढंग से प्रावधान हो जाएं तो कोई सरकार वोट खरीदने के लिए सरकारी खजाने का बेरहमी से दुरुपयोग न कर सके। दुनिया में भारत की तरह मुफ्तखोरी के लिए कर्ज लेने वाले गिने-चुने देश है। अन्यथा दुनिया में कर्ज केवल विकास कार्यों, शिक्षा, स्वास्थ्य के लिए ही लिया जाता है। भाजपा सरकारों को ये रास्ता कांग्रेस ने दिखाया है, इसलिए इस मामा ब्रांड कदाचार के लिए कांग्रेस भी कम जिम्मेदार नहीं है।
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