सनातन धर्म देता है शांति, सदभाव, भाईचारा और राम राज्य का संदेश : शंकराचार्य

भिण्ड, 26 सितम्बर। भगवान श्रीराम ने धरती पर जन्म लेकर मर्यादा के साथ ही मानव जीवन को सुख पूर्वक जीने के लिए जरूरी सभी प्रकार की शिक्षा अपने जीवनकाल में उदाहरण स्वरूप दी है। उन्होंने चौदह वर्ष वनवास में रहकर मनुष्य जीवन को सुख पूर्वक जीने के लिए जरूरी सभी प्रकार की व्यवहारिक शिक्षा दी है। भगवान श्रीराम विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा करते हैं तो वहीं अहिल्या का भी उद्धार करते हैं। यह उद्गार अनंत विभूषित काशी धर्म पीठाधीश्वर जगदगुरु शंकराचार्य स्वामी नारायणानंद तीर्थ महाराज ने अटेर क्षेत्र के परा गांव स्थित अमन आश्रम में चल रही श्रीराम कथा में पांचवे दिन व्यक्त किए।
शंकराचार्य ने कहा कि भक्ति केवल मन्दिर तक ही सीमित नहीं है, वह सर्वव्यापक है। दीन दुखियों की सेवा, भूले को राह दिखाना, बैर भाव छोड़कर परोपकार करना, यह सब कर्म राम के लिए यज्ञ एवं भक्ति ही है। इसीलिए वर्तमान समय में भी श्रीराम आस्था एवं श्रद्धा के केन्द्र हैं। श्रीराम का जीवन चरित्र हमें प्रेरणा देता है कि हम सब को एकांकी नहीं बनना चाहिए है, क्योंकि राम के जीवन में एकांकीपन नहीं है। उनके अंदर समग्रता का समावेश है। तभी तो श्रीराम का संपूर्ण जीवन ही यज्ञ है एवं अनुकरणीय है। उन्होंने बताया कि ब्रह्मर्षि विश्वामित्र यज्ञ की रक्षा के लिए श्रीराम व लक्ष्मण को लेकर जब वन से प्रस्थान कर रहे थे तब मार्ग में ताड़का राक्षसी मिल गई। जिसका वध श्रीराम ने किया, क्योंकि ताड़का अविद्या की मूर्ति है। जब तक अविद्या का संघार नहीं होता है तब तक मानवता की रक्षा नहीं हो सकती।
उन्होंने कहा कि अविद्या का संघार चाहे ईश्वरीय ज्ञान से हो, चाहे शास्त्रीय ज्ञान से हो, चाहे महापुरुषों के उपदेश से हो, तभी व्यक्ति के जीवन मे शांति संपन्नता और यश वैभव आएगा। विद्या विहीन मनुष्य ताड़का के समान ही है। जब तक अविद्या दूर नहीं होगी तब तक धर्म और विश्व मानवता की रक्षा नहीं हो सकती है। विश्व व मानवता की रक्षा में हमेशा आतंकवाद व नक्सलवाद खतरा होता है। विश्व व मानवता की रक्षा के लिए इनका संघार जरूरी होता है।
शंकराचार्य ने बताया कि जो लोग धर्म का संकीर्ण अर्थ करते हैं वह सेवा नहीं करते। धर्म बहुत व्यापक वस्तु है। जिस प्रकार अग्नि की जो तपाने के शक्ति है वही उसका धर्म है और जल में जो शीतल करने की शक्ति है, तर कर देने की शक्ति है वही उसका धर्म है। अर्थात वस्तु में उसके वस्तुत्व की रक्षा करने वाला धर्म होता है क्योंकि उस वस्तु की रक्षा उसके धर्म के बगैर नहीं हो सकती। मानव में यदि धर्म नामक वस्तु नहीं रहेगी तो हम और आप सुरक्षित नहीं रह पाएंगें, मनुष्यता एवं मानवता सुरक्षित नहीं रह पाएगी। इसलिए संपूर्ण विश्व सृष्टि में एक धर्म है जिसका नाम है सनातन धर्म। किसी देश में एक काल में एक धर्म पैदा नहीं होता है। जो व्यक्ति मूलक धर्म होता है, परम्परा मूलक धर्म होता है और जो भूगोल मूलक धर्म होता है वो आपस में विषमता पैदा करता है। आज दुनिया के जितने साम्प्रदायिक धर्म हैं वो लड़ाई के केन्द्र बिन्दु बने हुए हैं। परंतु सनातन धर्म सब जातियों में एक है, सब सम्प्रदायों में एक है, सब कालों में एक है वही धर्म का मूल है।
स्वामी जी ने बताया कि मारीच व सुबाहू दोनों अविद्या रूप ताड़का के पुत्र हैं। जो स्वयं अविद्या स्वरूप हैं। इनमें जो मारीच अविद्या है वो प्रपंच का प्रतीक है। मारीच माने मृगतृष्णा अर्थात मृगमरीचिका। जिसे तत्वज्ञान प्राप्त करना है उन्हें श्रीराम की तरह विश्व प्रपंच को दूर फेंक देना चाहिए। अगर प्रपंच की प्रतीति बनी रही तो वही मारीच आध्यात्मिक चेतना रूपी माता सीता को लुभाकर हरण करवाने में रावण का सहयोग करता है और अविद्या का दूसरा पुत्र सुबाहु कर्मलिप्त कर देता है। उसके सामने दूसरे का कष्ट, मानवता का कष्ट, धर्म का यहां तक कि ईश्वर का भी ध्यान नहीं रहता है। जीव को ऐसा मोहित कर देता है जिस कारण से लोग स्वार्थ के वशीभूत होकर के उसमें आसक्त होते हैं और अपने बंधु-बांधव से भी बैर कर लेते हैं। राम जी ने सुबाहू को मार दिया। इसलिए अज्ञान अर्थात अविद्या का संहार होने के बाद ही कहीं सत्कर्म होता है।