– राकेश अचल
मेरे बारे में आम धारणा बन चुकी है कि मैं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का अंध विरोधी हूं। जैसे अंधभक्ति होती है वैसा ही कुछ-कुछ, लेकिन ऐसा नहीं है। मैं व्यक्ति का नहीं, सत्ता प्रतिष्ठान की रीति-नीति पर लिखता रहता हूं। आज भी मैं जिस तस्वीर को लेकर परेशान हूं वो मुझे बचकानी लगने के साथ ही अनिष्टकारी भविष्य का साफ संकेत दे रही है।
ऑपरेशन सिंदूर के बाद मेरे आभासी मित्र सेवानिवृत आईएएस मनोज श्रीवास्तव ने एक टीप लिखी थी। मैं उसे उदघृत कर रहा हूं। उन्होने लिखा था, …होते हैं दुनिया में ऐसे लोग भी होते हैं। भारत में अचानक से नहीं हो गए बल्कि अब अभिव्यक्ति के सोशल पृष्ठ असंख्य हो गए हैं, सो लगते हैं। अन्यथा क्या है? जब हनिबाल ने कैने का युद्ध जीता था तब भी उसी के देशवासी कार्थेजिनियन लीडर्स उसे संसाधन देने से मना कर रहे थे कि वह विजय को कैपिटलाइज न कर ले। उन्होंने हनिबाल की निष्ठा तक पर प्रश्न उठा दिए थे जैसे कि अभी भी कुछ स्वनामधन्य कर रहे हैं।
सिकंदर ने जब पर्शिया को पराजित किया था तब भी उसी के देश में उसके विरुद्ध विषवमन किया जा रहा था बल्कि पारमोनियन और फिलोटास जैसे सेनापतियों ने उसके विरुद्ध विद्रोह तक की तैयारी कर ली थी। गौल का युद्ध जीतने पर जूलियस सीजर के विरुद्ध उसके अपने ही राज्य में इतना जहर उगला गया कि अंतत: उसका परिणाम उसकी हत्या में हुआ।
ट्रॉफ्लगर में नेल्सन की जीत के समय यही हुआ कि उसे उसकी नवाचारी रणनीति के कारण आलोचना का शिकार होना पडा और उसके हीरोइज्म को डाउनप्ले करने की कोशिश हुई। नेपोलियन के इटली अभियान की सफलता के बाद उसी के देश की फ्रेंच संसद यानी डायरेक्टरी में निष्ठा की कमी से लेकर लापरवाही तक क्या क्या न कहा गया। ढेरों उदाहरण हैं। आप जब देश के लिए ही जान लगाए होते हो, उसी देश के भीतर बहुत से लोग होते हैं जिन्हें न आप पचते हैं न सफलता। सोशल मीडिया ने बाल की खाल निकालने को एक राष्ट्रीय उद्यम बना दिया है। अब ये देखना चाहिए कि भारत में ऑपरेशन सिंदूर को लेकर मोदी जी को न हनिवाल की तरह, न सिकंदर की तरह और न ट्राफ्लगर की तरह कोई विरोध सहना पडा फिर भी वे जीत का कैपिटिलाइजेशन कर रहे हैं।
आज आप देवतुल्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस तस्वीर को देखकर क्या इंकार कर सकते हैं कि हमारी सरकार, हमारी सरकारी पार्टी ऑपरेशन सिंदूर की उपलब्धियों का कैपिटिलाइजेशन नहीं कर रही, अर्थात उसे भुना नहीं रही? सेना की वर्दी वाले मोदी जी पोस्टरों में हैं, होर्डिंग्स पर हैं और तो और रेल के टिकट पर मौजूद हैं। सवाल ये है कि क्या जरूरत है इसकी? क्या नया है इसमें? भारत ने आजादी के बाद कितने युद्ध लडे, कितने सैन्य ऑपरेशन किए, लेकिन क्या किसी पार्टी ने किसी प्रधानमंत्री को सेना की वर्दी पहनाकर चौराहों पर लटकाया? रेल के टिकटों पर छपवाया?
कभी-कभी लगता है कि भाजपा अपने लाडले और शूरवीर नेता की सेना प्रमुख बनने की दमित इच्छा का उदघाटन कर रही है, लेकिन ये भारत में नामुमकिन है। शत्रु देश पाकिस्तान में जिया उल हक पैदा हो सकते हैं, किंतु भारत की जमीन कोई जिया उल हक पैदा नहीं होने देती। हां हमारे यहां सेवानिवृत्त होने के बाद कोई जनरल मंत्री बन सकता है, लेकिन कोई नेता जनरल नहीं बन सकता। बने भी हैं। मोदी जी भी शायद नहीं बनना चाहेंगे। दुर्भाग्य ये है कि जो पुलवामा के बाद हुआ वो ही सब पहलगाम के बाद भी हो रहा है और हम (?) खुश हैं। क्यों खुश हैं। क्या हमें खादी वाले नेता अब रास नहीं आ रहे? क्या हमें खाकी वर्दी वाले जनरल ही चाहिए?
बेहतर हो कि मोदी जी खुद अपनी सैन्य पोशाक वाली तस्वीरों का दुरुपयोग रोकें, अन्यथा भारतीय सेना की संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति महोदया सेना की वर्दी का राजनीति के लिए किया जा रहा दुरुपयोग रोकने के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय को ठीक वैसा ही पत्र लिखें जैसा पिछले दिनों उन्होंने देश के सुप्रीम कोर्ट को लिखा। सवाल किएद्ध सेनाध्यक्षों (वर्तमान और सेवानिवृत दोनों) में भी इतना आत्मबल होना चाहिए कि वे सेना की वर्दी के दुरुपयोग के खिलाफ कडक आवाज बुलंद करें। सेना के शौर्य का लाभ कोई एक व्यक्ति, एक राजनीतिक दल आखिर कैसे ले सकता है। सेना के साथ पूरा देश खडा था, पूरा विपक्ष खडा था। सेना की उपलब्धि पांच सौ का नोट नहीं है जिसे चाहे कोई भुना ले।
बहरहाल मैंने अपने मन की बात कह ली। मैंने किसी को ‘सिंदूर का सौदागर’ नहीं कहा। कह भी नहीं सकता। किसी को कहना भी नहीं चाहिए। आपका मन इस बारे में मुमकिन है कि मेरी तरह न सोचता हो। फिर भी मेरी कामना है कि सेना की वर्दी के राजनीतिक मकसद से किए जा रहे प्रयोग, सदुपयोग या दुरुपयोग को लेकर कोई तो बोलेगा। इस मुद्दे पर बोलना न देश के प्रति द्रोह है, न सेना के प्रति और न प्रधानमंत्री के प्रति, ये राष्ट्र के प्रति प्रेम करने वाले आम आदमी की चिंता है, डर है, आशंका है। भारत माता की जय। जय हिन्द की सेना।