राजेन्द्र शिवहरे (एडवोकेट)
ऊंच-नीच और जातिवाद की भावना राष्ट्र के विकास में बाधा है। यहां वैचारिक मंथन करने महती आवश्यकता है कि जब ईश्वर ने सबको एक जैसा बनाकर भेजा है और बनाने में कोई भेदभाव नहीं किया, ईश्वर ने केवल मानव बना कर भेजा और केवल एक ही जाति दी वह है मानवता। तो यह जातिवाद, ऊंच-नीच के भेदभाव की व्यवस्था इस समाज में कहां से आई और इसकी क्या जरूरत है। अगर किसी भी जाति या धर्म से कोई भी ज्ञानी, बुद्धिजीवी किसी विशेषता से पारंगत है तो उसका आदर होना ही होना चाहिए। उसे अपने ज्ञान का सम्मान मिलना ही चाहिए और एक व्यक्ति अपने समर्पण से अगर समाज में कोई योगदान देता है तो उस व्यक्ति का हमें आभार व्यक्त करना ही करना चाहिए। उसके बाद बात आती है उन लोगों की जिन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी अपने को समाज को विकसित दिशा देने में अपना योगदान दिया है, तो वह क्यों और कैसे सभी से छोटे हो गए?
जिन लोगों की वजह से सभी मनुष्यों को सुख सुविधा मिल पा रही है, उन लोगों को समाज में श्रेष्ठ होना चाहिए था, लेकिन धर्म के ठेकेदारों ने उन्हीं लोगों को नीच बना दिया। जिस तेली ने कोल्हू बना कर तेल निकाला, खाने में स्वाद दिया, सुंदरता दी और धर्म के ठेकेदार जिस तेली के तेल के बिना कोई पूजा या शुभ कार्य नहीं करते, ऐसे समाजसेवी समाज के लोग श्रेष्ठ नहीं। जिन्होंने चमड़े से जूते, चप्पल बनाने का आविष्कार कर समस्त मानव जाति के पैरों को सुरक्षित, सुंदर और निरापद बनाकर समाजसेवा की, वे चमार (चर्मकार) लोग श्रेष्ठ नहीं। जिन्होंने आपके आस-पास की आपके द्वारा की गई गंदगी और संपूर्ण पर्यावरण की सफाई करके सुन्दर और स्वच्छ समाज बनाकर समाज की सेवा की, वे लोग मेहतर (वाल्मिक) जाति श्रेष्ठ नहीं। जिन्होंने लकड़ी से फर्नीचर, खाट, पलंग, आलमारी, मेज, कुर्सी, दरवाजे आदि का आविष्कार कर समाज सेवा की, वे बढ़ई लोग श्रेष्ठ नहीं। जिन्होंने मिट्टी के बर्तन बनाने का आविष्कार करके समाज सेवा की, वे कुम्हार लोग श्रेष्ठ नहीं। जिन्होंने बीज से खेती के औजारों, हल, खुरपी, फावड़ा आदि का आविष्कार करके अन्न पैदा करने की तकनीक देकर भूखों मरते, जंगलों में कंद-मूल और फल के लिए भटकते मानव की समाजसेवा की, वे लोग श्रेष्ठ नहीं। जिन्होंने लोहे से मानव हितकारी यंत्रों का आविष्कार किया, साग-सब्जी उगाकर या पशु पालन से समाजसेवा की, वे लोग श्रेष्ठ नहीं हैं। जिन्होंने घर, इमारतें बनाने का आविष्कार करके प्रकृति और मौसम के क्रूर थपेड़ों से मानव को बचाकर समाजसेवा की, वे लोग श्रेष्ठ नहीं हैं। जिन्होंने रेशम, कपास और तमाम प्राकृतिक रेशों से कपड़े बुनने का आविष्कार कर मानव को सुविधा दी, जो जंगलों में नंगे, ठण्ड और भीषण गर्मी में पेड़ की छाल पत्ते और मरे जानवरों की खाल लपेटने को मजबूर थे, उनको सुन्दर वस्त्र देकर सभ्य और सुसंस्कृत बनाकर समाजसेवा की, वे लोग श्रेष्ठ नहीं हैं। जिन्होंने नौकायें और बड़े-बड़ें पानी के जहाज बनाकर यातायात को सरल बनाकर पूरे मानव सभ्यता को उन्नतिशील और ऐश्वर्यपूर्ण बनाकर समाजसेवा की, वे लोग श्रेष्ठ नहीं है। जिन शिल्पकारों ने मिट्टी-पत्थरों और तमाम प्राकृतिक संसाधनों से श्रेष्ठ कलात्मक मूर्तियों का निर्माण करके इस समाज और दुनिया को कला और संस्कृति की अनंत ऊंचाइयों पर पहुंचाकर समाजसेवा की और पत्थर की मूर्तियों को पूजा योग्य बनाया वे लोग श्रेष्ठ नहींं हैं। लेकिन जिन्होंने लंबे समय से समाज को अंधविश्वास, पाखण्डवाद के ढकोसले, लोक-परलोक, स्वर्ग-नरक, पाप-पुण्य, मोक्ष प्राप्ति, कपोल-राशिफल, कल्पित भविष्य-फल, पुनर्जन्म, जातिवाद, छूआ-छूत, अस्पृश्यता आदि नारकीय तमाम ढकोसलों के सहारे समाज को पीछे धकेला, तथाकथित जाति मात्र से आज वही लोग श्रेष्ठ हैं। आवश्यकता है कि अंधविश्वास एवं जातिवाद से थोड़ा आगे जाकर अपना दिमाग चलाएं और समाज में जातिवाद और अंधविश्वास फैलाने वाले का पर्दाफाश करें। किसी जाति को ऊंचा या किसी जाति को नीचा बिल्कुल ना समझें और आपस में भेदभाव ना करें, सभी मनुष्य एक समान हैं।