जन-गण-मन, अधिनायक जय हे

– राकेश अचल


हमारे राष्ट्रगान की उक्त पंक्तियों को मैं कभी नहीं भूलता, क्योंकि इसमें भारतीय जनतंत्र की, भारतीय गणतंत्र की और भारतीय मानसिकता की जय के साथ-साथ उस अधिनायक की भी जय बोली गई है जो अदृश्य है। भारतीय जनतंत्र और गणतंत्र के बीच छिपकर बैठा ये अधिकानायक हमेशा बहुमत के रूप में हमारे सामने प्रकट होता रहता है। इसका चेहरा कभी स्त्री का होता है तो कभी पुरुष का और कभी अर्धनारीश्वर का। अधिनायक की पहचान अक्सर संसद में किसी विधेयक पर मत विभाजन के समय होती है। वक्फ बोर्ड संशोधन विधेयक 2024 पर मत विभाजन के समय भी ये अधिनायकत्व खुलकर सामने आया है।
वक्फ बोर्ड की संपत्तियों पर मौजूदा सरकार की नजर शुरू से थी, लेकिन उसे कोई मौका नहीं मिल रहा था, किन्तु हाल ही में महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनावों में मिली जीत ने बैशाखी सरकार को इतना हौसला दिया कि वो मुसलमानों की टोपी जमकर उछाले। सरकार ने ऐसा किया भी। वक्फ बोर्ड कानून में संशोधन कर अपने लिए बोर्ड में घुसपैठ करने की गुंजायश निकाल ही ली। पूरा विपक्ष मिलकर भी इसे रोक नहीं पाया। रोक भी नहीं सकता था, क्योंकि संख्या बल उसके पास नहीं था। अब ये विधेयक राजयसभा में भी आसानी से पारित होने के बाद कानून का रूप ले लेगा। अब विपक्ष इसे न कानून बनने से रोक सकता है और न इस पर अमल करने से।
लोकसभा में इस विवादास्पद विधेयक पर पूरे 12 घण्टे बहस चली। मुमकिन है कि आप में से बहुत कुछ ने ये पूरी बहस देखी हो, लेकिन मैंने इसे पूरा देखा, सुना। इसलिए मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि सत्ता के लालच में टीडीपी और जेडीयू जैसे कथित धर्मनिरपेक्ष दलों ने जहां अपना दीन-ईमान बेच दिया, वहीं उद्धव ठाकरे की शिवसेना और तृणमूल कांग्रेस और समाजवादी पार्टी जैसे लोग बिना लाभ-हानि की फिक्र किये विधेयक के विरोध में डटे रहे। अब पूरी मोदी सेना विपक्षी सांसदों को काफिर ठहराने पर लगी है। यानी मुसलमानों का समर्थन करना काफिर होना है और विरोध करना सनातनी होना है।
भारत की आजादी के पहले के और बाद के इतिहास में किसी एक बिरादरी के साथ इस तरह के दोयम दर्जे के नागरिकों जैसा बर्ताव कभी नहीं हुआ। मुगलों के जमाने में तो ऐसे बर्ताव का सवाल ही नहीं उठता, लेकिन अंग्रेजों ने भी ये जुर्रत नहीं की जो आज की जा रही है। सरकार की रीति-नीति और कार्यक्रम न जाने क्यों अचानक मुसलमान विरोधी हो गए हैं। सरकार अपने कार्यक्रमों और नीतियों के जरिये मुसलमानों को मुसलमान बना देने पर आमादा है। लेकिन ऐसा होगा नहीं। सरकार के मुस्लिम विरोधी रवैये से मुसलमान को अपने शुभचिंतक चुनने में पहले के मुकाबले ज्यादा आसानी होगी।
अभी तक राजनीतिक दलों पर मुसलमानों को तुष्ट करने का आरोप लगता था, किन्तु अब मुसलमानों के हाथ में ये मौका आया है कि वे अपनी पसंद के राजनीतिक दलों को तुष्ट और पुष्ट करें। मुसलमान किस दल के साथ रहना चाहते हैं ये तय करने वाले हम और आप कोई नहीं हैं, किन्तु हम लोकतंत्र में अधिनायक की पहचान में सबकी मदद कर सकते हैं, मुसलमानों की भी और हिन्दुओं की भी। आज से 50 साल पहले हम और इशाक भाई एक साथ एक क्लास में पढते थे, खाते थे, खेलते थे। हमारी माँ और फरीदा बेगम में बहुत फर्क नहीं था। दोनों के आंचल की छांव एक जैसी थी। लेकिन अब सब बदल चुका है, न इशाक  हमारे साथ और न फरीदा बेगम। सियासत ने सभी को पराया बना दिया है। कोई डर की वजह से पराया हुआ है तो कोई सियासत की वजह से।
संख्या बल के चलते वक्फ बोर्ड विधेयक राजयसभा में भी आसानी से पारित होगा, इसलिए वहां इस विधेयक पर बहस करने का कोई मतलब नहीं है। बहुमत के बूटों से अकलियत का कुचला जाना अकलियत के लोगों की नियति बन चुकी है। फिर भी उम्मीद है कि वो भारत में जैसे हिलमिलकर हम सब रहते थे वैसे ही आगे भी रहेंगे। नहीं रहेंगे तो सब बर्बाद हो जाएंगे। हमारा भी वही हाल होगा जो किसी जमाने में महाराणा प्रताप का हुआ, छत्रपति शिवाजी का हुआ। छत्तरसाल का हुआ, लक्ष्मीबाई का हुआ। बंटा हुआ समाज कभी देश की ताकत नहीं हो सकता। बंधी हुई मुट्ठी ही लाख की होती है, खुल गई तो ये मुट्ठी खाक की हो जाती है। मैं न काफिर हूं और न मुसलमान, लेकिन मैं भी उसी तरह सनातनी भारतीय हूं जिस तरह इस देश के सनातनी मुसलमान हैं। उनका भाग्य बैशाखी लगाकर सरकार चलने वाले तय नहीं कर सकते। किन्तु दुर्भाग्य है कि वे ऐसा कर रहे हैं।
ऐसे मौकों पर मुझे ‘मेरे महबूब’ फिल्म का वो गीत अक्सर याद आता है जिसे शकील बदायूनी ने लिखा था- ‘कोई देखे या न देखे, अल्लाह देख रहा है।’ हमारी सरकार अल्लाह की सरकार नहीं है। वो रामजी की सरकार है इसलिए अल्लाह से डरती नहीं है। उसके लिए ईश्वर, अल्लाह तेरो ही नाम नहीं है। वक्फ बोर्ड संशोधन विधेयक से हमारा कुछ बनना और बिगडना नहीं है। जिनका बनना और बिगडना है, उन्हें तय करना है कि वे इस मसले पर कैसे अपनी प्रतिक्रिया दें। उनके सामने दोनों विकल्प हैं। वे चाहें तो सरकार के सामने घुटने टेकें और न चाहें तो सरकार को घुटे टेकने पर विवश करें। सरकार को न अदालत रोक सकती है और न अल्लाह। सरकार को केवल और केवल वोट रोक सकता है। जो वोट की ताकत नहीं जानते, वे कुछ नहीं जानते।
इस देश में रामजी की सरकार कभी हिन्दू मन्दिरों के न्यासों के घपलों के बारे में कभी गंभीर नहीं हो सकती। कभी ये नहीं कहने वाली कि सौ साल पहले हिन्दू मन्दिरों की आय कितनी थी और आज कितनी है। सौ साल पहले हिन्दू मन्दिरों कि संपत्ति कितनी थी और   आज कितनी है? ये सरकार कभी ये देखना और जानना या रोकना पसंद नहीं करेगी कि हिन्दू मन्दिरों के ट्रस्टों की आड में देश के राजे-महाराजाओं ने अपनी कितनी संपत्ति कराधान से बचा रखी है? अकेले ग्वालियर में एक ही राज परिवार के 19 ट्रस्ट इसी तरह से कर चोरी के धंधे में लगे हैं। हरि अनंत, हरि कथा अनंता।