– राकेश अचल
हमारा मुल्क बिना जंग के रह नहीं सकता। हम बमुश्किल औरंगजेब से फारिग हुए थे कि गुरू रामजीलाल सुमन ने राणा सांगा को मैदाने जंग में ला खड़ा किया। राणा सांगा की ओर से अब ये लड़ाई करणी सेना लड़ रही है और सुमन की ओर से अखिलेश यादव की यादवी सेना। हम आम जनता मूकदर्शक बने इस जंग को देख रहे हैं। हम न इस जंग का हिस्सा बन सकते हैं और न हमारी इस जंग का हिस्सा बनने में कोई दिलचस्पी है। हां हमारी दिलचस्पी इस बात में जरूर है कि उत्तर प्रदेश जैसे बड़े सूबे की उत्तरदायी सरकार कैसे एक निर्वाचित संसद को सुरक्षा प्रदान नहीं कर पाती।
राणा सांगा के बारे में जानने से पहले आप रामजीलाल सुमन के बारे में जान लीजिए। कोई 48 साल का संसदीय अनुभव रखने वाले रामजीलाल सुमन चंद्रशेखर से लेकर मुलायम सिंह जैसे कद्दावर नेताओं के भरोसेमंद और विश्वसनीय साथ ही रहे हैं। 25 जुलाई 1950 को हाथरस जनपद के बहदोई गांव में जन्में रामजीलाल सुमन की प्राथमिक शिक्षा गांव में हुई, उनकी माध्यमिक शिक्षा हाथरस में और उच्च शिक्षा आगरा कॉलेज में हुई। समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव रामजीलाल सुमन पहली बार 1977 में लोकसभा पहुंचे थे। यानि सुमन हमारे प्रधानमंत्री जी की उम्र के हैं और उनसे पुराने सांसद है। उन्हें इतिहास का ज्ञान भी कम नहीं है।
आपको बता दें कि रामजीलाल सुमन ने राज्यसभा में कहा था, अगर मुसलमानों को बाबर का वंशज कहा जाता है, तो हिन्दू गद्दार राणा सांगा के वंशज होने चाहिए। हम बाबर की आलोचना करते हैं, लेकिन राणा सांगा की आलोचना क्यों नहीं करते? सुमन ने सवाल किया था, जंगे ऐलान नहीं। कोई राजपूत, कोई हिन्दू हृदय सम्राट सुमन के सवाल का शास्त्रोक्त जवाब देकर मामला शांत कर सकता था, लेकिन दुर्भाग्य कि जवाब देने के लिए पढ़े-लिखे लोगों का टोटा है। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी सुमन के इस बयान का समर्थन किया है। इसके बाद विवाद शुरू हो गया है। सुमन ने यह भी कहा था कि आखिर बाबर को भारत कौन लाया। यह राणा सांगा ही थे जिन्होंने बाबर को इब्राहिम लोदी को हराने के लिए आमंत्रित किया था। अब गवाही के लिए न इब्राहिम लोदी आ सकते हैं और न राणा सांगा। बाबर को भी समन नहीं किया जा सकता। भरोसा इतिहास की किताबों पर ही करना होगा।
रामजीलाल सुमन के बयान के बाद करणी सेना भडक़ गई। ये सेना राणा सांगा के समय में थी या नहीं, मैं नहीं जानता, लेकिन मुझे पता है कि ये वो सेना है जो एक फिल्म का विरोध करने के लिए सडक़ों पर पहली बार उतरी थी। ये सेना भारतीय सेना की कोई ब्रिगेड है या नहीं ये भी मैं नहीं जानता। हमारे देश में भारतीय सेना के अलावा भी अनेक सेनाएं हैं। इन सेनाओं पर कोई लगाम नहीं लगाता। एक जमाने में बिहार में ऐसी निजी सेनाओं का बहुत बोलबाला था, लेकिन बाद में सबकी बोलती बंद हो गई। उत्तर प्रदेश में करणी सेना की बोलती बंद नहीं हुई, क्योंकि सूबे की सरकार ने इस सेना को तोडफ़ोड़ करने के लिए अधिमान्य कर रखा है अन्यथा किसी भी निजी सेना की क्या मजाल कि वो 75 साल के एक प्रतिष्ठित नेता के घर को घेर कर वहां तोडफ़ोड़ करे और पुलिस को भी घायल कर दे?
लोकतंत्र में विरोध प्रदर्शन का अधिकार सभी को है, करणी सेना को भी। लेकिन विरोध प्रदर्शन के तरीके भी हैं। सुमन ने यदि कुछ गलत कहा है तो उनकी मुखलफ्त राज्यसभा में की जाए। क्या करनी सेना की ओर से एक भी राजपूत राज्यसभा में नहीं है, जो खड़े होकर सुमन के बयान का विरोध कर सके? करणी सेना को राजपूती अस्मिता की इतनी ही फिक्र है तो उसे पुलिस थाने जाना चाहिए, अदालत जाना चाहिए, लेकिन इतना ठठकर्म कौन करे। सडक़ पर आकर जंग लडऩा ज्यादा आसान है। कुणाल कामरा के खिलाफ महाराष्ट्र में इसी तर्ज पर शिवसेना (एकनाथ शिंदे समूह) ने भी लड़ाई लड़ी। कानून हाथ में लेने में उतनी मशक्कत नहीं करना पड़ती जितनी कि कानूनी रूप से जंग लडऩे में करना पड़ती है। शिंदे समर्थकों को कुणाल के मुंह से ‘गद्दार’ शब्द बुरा लगा, लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के मुंह से नहीं। शिंदे का कोई समर्थक उद्धव के घर तोडफ़ोड़ करने नहीं गया। ठीक इसी तरह रामजीलाल सुमन के मुंह से गद्दार सशब्द सुनकर करनी सेना की आत्मा घायल हो गई।
चूंकि हमारा इस जंग से सीधे कोई सरोकार नहीं है, इसलिए हम तमाशबीन की हैसियत में हैं। तमाशबीन या तो तालियां बजाते हैं या फिर सीटियां। तमाशा समाप्त होने पर पान चबाते या गुटका खाते हुए अपने घरों को लौट जाते हैं। राणा सांगा बनाम रामनीलाल सुमन की जंग में भी यही सब होता दिखाई दे रहा है। सत्ता पोषित हिंसा के हम सब मूक दर्शक हैं। हमारा कानून भार हीन है, उसे कोई भी अपने हाथ में ले सकता। हालांकि हमारी बहादुर पुलिस कानून को बचाने के लिए करणी सेना से पिट भी लेती है। पुलिस बनाई ही गई है पिटने-पीटने के लिए। जान जैसा मौका होता है, तब तैसा हो जाता है।
राणा सांगा हमारी राजयसभा में उसी तरह आए जैसे औरंगजेब और उनकी कब्र आई थी। मरे हुए लोगों को संसद में आने-जाने से कोई रोक नहीं सकता। ये बिना चुनाव लड़े संसद में आ-जा सकते हैं और हंगामा खड़ा कर वापस भी लौट सकते हैं। राणा सांगा को भी हमने उसी तरह नहीं देखा जिस तरह कि औरंगजेब को नहीं देखा था। राणा की बहादुरी के किस्से हमने भी पढ़े हैं, सुने हैं, लेकिन देखे नहीं हैं। सुमन ने भी नहीं देखे होंगे और करणी सेना ने भी। सबने उनके बारे में वैसे ही पढ़ा और सुना होगा जैसे कि दूसरे नायकों, खलनायकों, अधिनायकों के बारे में पढ़ा और सुना जाता है।
अतीत के किरदारों को लेकर हमारी भावनाएं आग की तरह क्यों भडकती हैं, इसके बारे में शोध होना चाहिए। हमारी भावनाएं छुईमुई हैं जो हाल कुम्हला जाती हैं, आहत हो जाती हैं। मजे की बात ये है कि आहत भावनाओं का कोई भेषजीय उपचार नहीं है। आहत भावनाएं केवल खून-खराबा और अराजकता पैदाकर अपना इलाज खुद करना चाहती हैं। रामजीलाल सुमन पर हमला कर करनी सेना ने हिन्दू-मुसलमान नहीं, बल्कि हिन्दू-बनाम हिन्दू संघर्ष को न्यौता दिया है। एक तरफ करणी सेना के हिन्दू हैं तो दूसरी तरफ वे हिन्दू हैं जो अनुसूचित जाति के कहे और माने जाते हैं। हमारी सरकार भी यही चाहती है कि लोग इसी तरह से अपनी धार्मिक, जातीय भावनाओं को आहत करते-करते रहें और लड़ते-लड़ाते रहें। लेकिन मैं इसके खिलाफ हूं, क्योंकि इस तरह की गतिविधियों से हमारे विश्वगुरू बनने के अभियान में खलल पड़ता है।
काश कि इस तरह के विवादों में पीडि़त पक्ष के रूप में खुद औरंगजेब या राणा सांगा की आत्माएं प्रकट होकर जंग लड़तीं। मुमकिन है कि वे लड़ती ही नहीं, क्योंकि वे दोनों तो अब एक ही जगह पर पहुंच चुकी हैं। मरी हुई आत्माएं कभी किसी से लडऩे नहीं आतीं, ठीक वैसे ही जैसे नेहरू और इन्दिरा भाजपा और मोदी जी से लडऩे नहीं आते। इसलिए हे भारतीय नागरिकों जागो! और बिना बात के बवाल मत काटो। बवाल काटना भी है तो उन मुद्दों पर काटो जो आपके भविष्य से जुड़े हुए हैं। वर्तमान से जुड़े हैं। अतीत के लिए वर्तमान से लडऩा कतई बुद्धिमत्ता नहीं है।