नेमनूक पर पलने वाले खबरची अकेले नहीं

– राकेश अचल


मीडिया की दुनिया की अच्छी-बुरी खबरें जारी करने वाले भडास मीडिया के जरिये कुछ लोगों ने मप्र के उन पत्रकारों को लांछित करने की कोशिश की है, जो परिवहन विभाग की और से बांटे जाने वाले नेमनूक से अपना जेबखर्च चलाते हैं। नेमनूक का मतलब धर्मस्व विभाग में पुजारियों को दी जाने वाली राशि होता है। ये नाम मात्र की होती है, लेकिन रियासतों के जमाने से लेकर अबतक बांटी जा रही है।
सब जानते हैं कि आबकारी, सिंचाई, लोनिवि और परिवहन जैसे विभागों में पत्रकारों के साथ ही नौकरशाहों, जनप्रतिनिधियों को नेमनूक वितरित किए जाने की परम्परा है। ऊपरी कमाई करने वाले विभागों में नेमनूक बांटने के काम को लेकर कोई दूसरा काम ईमानदारी से नहीं होता। नेमनूक राजनैतिक दलों, दलों के जिले से लेकर प्रदेश स्तर के पदाधिकारियों, भाप्रसे, भापुसे और राप्रसे के अफसरों के साथ ही सिपाही स्तर तक समान रूप से वितरित किया जाता है। मुझे इसका पता इसलिए है क्योंकि आज से कोई तीस साल पहले मेरे एक परिचित पुलिस इंस्पेक्टर परिवहन महकमे में प्रतिनियुक्ति पर गए थे और उन्होंने मुझे उस समय 300 रुपए का नेमनूक दिया था। उस समय मेरा वेतन कोई छह हजार रुपए हुआ करता था।
पहले नेमनूक हमारे जैसे आर्थिक रूप से कमजोर पत्रकारों पर अनुकम्पा कर दिया जाता था। लेकिन बाद में पत्रकारों के लिए ये नियंत व्यवस्था बन गई। पत्रकार इतने कम या ज्यादा नेमनूक के बदले भ्रष्टाचार की और से अपनी आंखें बंद कर लें ऐसा कभी नहीं हुआ। मुझे तो पहली बार पता चला कि नेमनूक पत्रकार की हैसियत के हिसाब से तय होता था। आज कल ये नेमनूक बंद है, क्योंकि अब प्रदेश में नई सरकार ने परिवहन चौकियां बंद करा दी हैं। ऐसे में नेमनूक ले चुके पत्रकारों के नामों की फेहरिश्त जारी करने का एकमात्र मतलब पत्रकारों का मान-मर्दन करना है। मुझे ये स्वीकार करने में कोई गुरेज नहीं है कि पत्रकार नेमनूक लेते है। मैंने भी लिया है लेकिन मेरे जैसे तमाम पत्रकारों को आज भी नेमनूक देने वाले शायद शक्ल से नहीं पहचानते, क्योंकि ये काम करने वाले सभी हाथ अदृश्य होते हैं। अंगूठा छाप होते हैं, उनका लिखने-पढऩे से कोई वास्ता नहीं होता। वे केवल एजेंट होते हैं। परिवहन महकमे के, केन्द्रीय और राज्य के मंत्रियों के। ये नेताओं और अधिकारीयों का हिस्सा तो हडप नहीं पाते किन्तु पत्रकारों के नेमनूक में भांजी जरूर मार देते थे।
पत्रकारों को नेमनूक बांटने की प्रथा सनातन है। हर सत्ता इसका पालन करती है, हां सभी के तरीके अलग-अलग होते हैं। कोई नेमनूक को नजराना कहता है तो कोई सप्रेम भेंट, कोई इसे शुकराना कहता है तो कोई बख्शीस। लेकिन ये किसी का जन्मसिद्ध अधिकार नहीं है। ये सौ फीसदी अनुकम्पा है। ये आपको नगद सम्मान के रूप में भी मिल सकती है। आवासीय भूखण्ड के रूप में भी। कार के रूप में भी और उपहार के रूप में भी। चिकित्सा सहायता के रूप में भी मिल सकती है और पर्यटन पैकेज के रूप में भी। विज्ञापन के रूप में मिल सकती है या आपकी किताब खरीद कर। ये मुगलों के समय भी मिलती थी और अंग्रेजों के समय भी। कांग्रेस के समय भी मिलती थी और भाजपा के समय में भी।
मेरा एक पत्रकार के रूप में लंबा तजुर्बा है इसलिए मुझे ये कहने में कोई ऐतराज नहीं है कि आज का समाज संतों का समाज नहीं है। संतों को दी जाने वाली बख्शीस की भी एक फेहरिश्त है। नौकरशाहों की भी है और माननीय नेतागणों की भी। सब मिल-बांटकर ‘प्रसादम’ पाते हैं। कोई दूध का धुला नहीं है। न मैं, न मेरी बिरादरी। न नेताओं का कुनवा और न नौकरशाहों का कुनवा। यदि ऐसा होता तो नौकरशाहों के घर से 300 करोड की नगदी न मिलती, यदि ऐसा होता तो किसी नौकरशाह, किसी अखबार मालिक के घरों पर छापा न पडता, यदि ऐसा होता तो अकेले तनख्वाह पाने वाले तमाम खबरची, नेता और अफसर फार्म हाउसों, खदानों, क्रेशरों के मालिक न होते। घर में दीपावली पर आने वाली आतिशबाजी और मिठाई भी एक तरह का नेमनूक है भाई! यानि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ है। किसी ने खुन्नस निकलने के लिए नेमणूक पाने गरीब पत्रकारों के नाम उजागर कर दिए, लेकिन उसने अपनी मां का इतना दूध नहीं पिया था कि वो इसी नेमनूक पाने वाले नेताओं, विधायकों और नौकरशाहों के नामों की सूची भी भडास-4 को दे पाता।
जिन महानुभावों का नाम इस फेहरिश्त में नहीं है वे, आप मान लीजिए कि सूचीबद्ध पत्रकारों से दस गुना ज्यादा नेमनूक पा रहे हैं। इसलिए दुग्ध स्नान करने का दावा करने वाले सभी ‘बगुला-भगत’ हैं । इस सूची में मेरा नाम भी शुमार है लेकिन ढंग से नहीं है। मुझे अफसोस है कि मेरा मूल्यांकन न आज तक किसी सरकार ने सही किया और न नेमनूक बांटने वालों ने, लेकिन मैं न ग्लानि से भरा हूं और न मैंने अपना ‘सत्ता प्रतिष्ठान विरोधी’ चेहरा बदला है। मैं 2016 से पत्रकारिता की दुनिया को अलविदा कह चूका हूं। एक स्वतंत्र लेखक हूं। अपने पाठकों से एक रुपया मांगता हूं और हजारों रुपए पा रहा हूं। मेरा डंका कल भी बज रहा था, आज भी बज रहा है और बाखुदा कल भी बजेगा।