‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ की गुपचुप तैयारी

– राकेश अचल


भारत की सरकार में यदि बहुत कुछ पारदर्शी है तो बहुत कुछ ऐसा भी है जिसे आप गोपनीय कह सकते हैं। सरकार के कामकाज के बारे में केवल चार कानों को ही पता रहता है छठे कान को नहीं। लेकिन आज-कल खबरें रिसकर आ रही हैं कि सरकार देश में जातीय जनगणना के साथ ही ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ के मुद्दे पर भी गोपनीय ढंग से काम कर रही है और किसी माकूल वक्त पर इसकी घोषणा कर सकती है। लेकिन इसके पहले सरकार अपने सभी सहयोगी दलों को भी भरोसे में लेना चाहती है ताकि जातीय जनगणना जैसे विवादास्पद मुद्दे को लेकर अडचनें पेश न आएं।
‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ का विचार नया नहीं है। बल्कि वर्ष 1983 में चुनाव आयोग ने पहली बार इसे प्रस्तावित किया था। हालांकि वर्ष 1967 तक एक साथ चुनाव भारत में प्रतिमान थे। आपको याद होगा कि लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के पहले आमचुनाव वर्ष 1951-52 में एक साथ हुए थे। इसके बाद वर्ष 1957, वर्ष 1962 और वर्ष 1967 में हुए तीन आम चुनावों में भी यह प्रथा जारी रही। लेकिन वर्ष 1968 और वर्ष 1969 में कुछ विधानसभाओं के समय से पहले भंग होने के कारण यह चक्र बाधित हो गया। वर्ष 1970 में लोकसभा को समय से पहले ही भंग कर दिया गया था और वर्ष 1971 में पुन: नए चुनाव हुए थे। इस प्रकार पहली, दूसरी और तीसरी लोकसभा ने पूरे पांच वर्ष के कार्यकाल पूर्ण किए थे। लोकसभा और विभिन्न राज्य विधानसभाओं दोनों के समय से पहले विघटन और कार्यकाल के विस्तार के परिणामस्वरूप लोकसभा तथा राज्यों की विधानसभाओं के अलग-अलग चुनाव हुए हैं और एक साथ चुनाव का चक्र बाधित हो गया।
भाजपा सरकार इस पुराने मुद्दे को एक बार फिर गर्म कर रही है और इसके पक्ष में उसने तमाम तर्क भी खोज रखे है। इस समय देश में प्रत्येक वर्ष कम-से-कम एक चुनाव होता है, दरअसल प्रत्येक राज्य में प्रत्येक वर्ष चुनाव भी होते हैं। भाजपा सरकार में गठित नीति आयोग ने तर्क दिया कि इन चुनावों के चलते विभिन्न प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष नुकसान होते हैं। बताया जाता है कि बिहार जैसे बडे आकार के राज्य के लिए चुनाव से संबंधित सीधे बजट की लागत लगभग 300 करोड रुपए है। हालांकि प्रत्येक चुनाव के दौरान सरकारी तंत्र चुनाव ड्यूटी और संबंधित कार्यों के कारण अपने नियमित कर्तव्यों से चूक जाता है। चुनावी बजट में चुनाव के दौरान उपयोग किए जाने वाले इन लाखों मानव-घण्टे की लागत की गणना नहीं की जाती है। एक तर्क ये भी है कि चुनावों कि दौरान लागू की जाने वाली आदर्श आचार संहिता सरकार के कामकाज को भी प्रभावित करती है, क्योंकि चुनावों की घोषणा के बाद न तो किसी नई महत्वपूर्ण नीति की घोषणा की जा सकती है और न ही क्रियान्वयन। सुरक्षा बलों को तैनात करने तथा बार-बार उनके परिवहन पर भी भारी और दृश्यमान लागत आती है। संवेदनशील क्षेत्रों से इन बलों को हटाने और देश भर में जगह बार-बार तैनाती के कारण होने वाली थकान तथा बीमारियों के संदर्भ में राष्ट्र द्वारा एक बडी अदृश्य लागत का भुगतान किया जाता है।
भाजपा को पता है कि एक देश-एक चुनाव को लागू करना आसान नहीं है लेकिन पार्टी और सरकार इस विषय को लेकर दूसरे ज्वलंत मुद्दों को पीछे ले जाना चाहती है। आमतौर पर सभी दल इस मुद्दे पर एक राय नहीं होते। अनेक दलों का मानना है कि एक साथ चुनावों को लागू करना लगभग असंभव है, क्योंकि इसके लिए मौजूदा विधानसभाओं के कार्यकाल में मनमाने ढंग से कटौती करनी पडेगी या उनकी चुनाव तिथियों को देश के बाकी भागों हेतु नियत तारीख के अनुरूप लाने के लिए उनके कार्यकाल में वृद्धि करनी पडेगी। कुछ दल मानते हैं कि ऐसा कदम लोकतंत्र और संघवाद को कमजोर करेगा।
एक राष्ट्र-एक चुनाव के आलोचकों का कहना है कि एक साथ चुनाव कराने के लिए मजबूर करना लोकतंत्र के विरुद्ध है, क्योंकि चुनावों के कृत्रिम चक्र को थोपने की कोशिश करना और मतदाताओं की पसंद को सीमित करना उचित नहीं है। ऐसा माना जाता है कि एक साथ चुनाव से क्षेत्रीय दलों को नुकसान पहुंचेगा, क्योंकि एक साथ होने वाले चुनावों में मतदाताओं द्वारा मुख्य रूप से एक ही तरफ वोट देने की संभावना अधिक होती है, जिससे केन्द्र में प्रमुख पार्टी को लाभ होता है। प्रत्येक पांच वर्ष में एक से अधिक बार मतदाताओं के समक्ष आने से राजनेताओं की जवाबदेहिता बढती है।
भाजपा सरकार के लिए एक राष्ट्र-एक चुनाव लागू करना उतना आसान नहीं होगा, जितना की पूर्व में जम्मू-कश्मीर से संविधान का अनुच्छेद 370 हटाना आसान बन गया था। अब संसद में भाजपा की ताकत 2014 और 2019 के मुकाबले 2024 में बहुत कम है और इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि जेडीयू और टीडीपी जैसे दल इस मुद्दे पर आसानी से मान जाएंगे। एक साथ चुनाव की अवधारणा को लागू करने के लिए संविधान और अन्य कानूनों में संशोधन की आवश्यकता होगी। लेकिन यह बहुत आसान काम नहीं है। एक बात और ये भी है कि एक राष्ट्र-एक चुनाव इस बात की कोई गारंटी नहीं देते कि देश में फिर मध्यावधि चुनाव नहीं होंगे। इस समय जिस तरह की गठबंधन सरकारें बनाई जा रही हैं, उनमें किसी भी सरकार के पूरे पांच साल चलने की कोई गारंटी नहीं है। कभी भी कोई भी राजनीतिक दल अपने विरोधी दल की सरकार को अपदस्थ करने के लिए ऑपरेशन लोटस या दलबदल का सहारा ले सकता है। संविधान में किसी भी सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगाने का विकल्प है सो अलग।
एक राष्ट्र-एक चुनाव के संदर्भ में विधि आयोग का सुझाव भी काबिले गौर है, जिसके अनुसार अगले आम चुनाव से निकटता के आधार पर राज्यों को वर्गीकृत किया चाहिए और अगले लोकसभा चुनाव के साथ राज्य विधानसभा चुनाव का एक दौर तथा शेष राज्यों के लिए दूसरा दौर 30 महीने बाद होना चाहिए। लेकिन यह इस बात की गारंटी नहीं देता है कि इन सबके बावजूद भी मध्यावधि चुनाव की आवश्यकता नहीं होगी। बहरहाल जो भी है सके बारे में हरियाणा और जम्मू-कश्मीर विधानसभा के चुनाव परिणाम आने के बाद ही कोई बात आगे बढेगी। अभी तो ये मुद्दा एक सुर्रे से ज्यादा कुछ नहीं है।