परलोक को संवारने के लिए सत्संग और सत्पुरुषों का संग आवश्यक : शंकराचार्य

अमन आश्रम परा में चल रही श्रीमद् भागवत कथा में महाराजश्री ने दिए प्रवचन

भिण्ड, 17 अक्टूबर। अटेर रोड स्थित अमन आश्रम परा में चल रहे श्रीमद् भागवत ज्ञान यज्ञ के अंतिम दिन श्री काशीधर्मपीठाधीश्वर जगदगुरु शंकराचार्य स्वामी नारायणानंद तीर्थ महाराज ने कहा कि जो लोग भव बंधन को सच्चा मान कर उससे छूटना चाहेंगे तो वह बिना गुरुज्ञान के छूटेंगे नहीं। अपने मन को महान बनाना है, जिस दिन अपने मन को महान बना लोगे उसी दिन सच्चिदानंद भगवान से साक्षात्कार हो जाएगा। अपने को न जानने के कारण बंधन हो रहा है। सत्य का ज्ञान विषय रूपी इन्द्रियों से नहीं किया जा सकता। मुक्ति ज्ञान प्रधान होती है।
स्वामीजी ने कहा कि मुक्ति किसी साधन से नहीं होती, परलोक को संवारने के लिए सत्संग और सत्पुरुषों का संग आवश्यक है। साधन अंत:करण की शुद्धि के लिए होते हैं तथा अविद्या की निवृत्ति के लिए गुरु के महावाक्य से ही संभव है। बिना अनुराग के भगवान से मिलन नहीं हो सकता। भगवान श्रीकृष्ण ब्राह्मणों के भक्त थे, परंतु उनके पुत्र पौत्रादि अश्रृद्धालु हो गए थे, इसी के कारण समृद्धशाली यदुवंश का विनाश हो गया। वैराग्य भगवान की विभूति है, सत्संग ही मुक्ति का साधन है। कर्मों से ही हमारे शुद्ध-अशुद्ध संस्कार बनते है, जो पुन: हमें तदनुसार कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं- ‘कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकारिण:। अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गति:’ इसलिए गीता कहती है कि कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए और अकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए तथा विकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए क्योंकि कर्म की गति गहन है।

आरती उतारते हुए भक्तगण

महाराजश्री ने कहा कि संत महापुरुषों का कथन है कर्मरूपी वृक्ष के दो फल हैं दु:ख और सुख। पापकर्मों का फल दु:ख है और पुण्यकर्म यानी अच्छे कर्म का फल सुख है। मनुष्य का स्वभाव है कि वह इस ध्रुव सत्य को जानते हुए भी पापवृत्ति छोडऩा नहीं चाहता और साथ ही उसके फल से बचना चाहता है। परंतु यह संभव नहीं है क्योंकि विष की बेल लगाने पर अमृत की अपेक्षा करना मूर्खता है। संसार में प्रत्येक प्राणी अपने कर्मों की फसल काट रहा है। कर्मरूपी बीज बोते समय तो वह सावधान रहता नहीं पर फसल काटते समय वह जोर शोर से चिल्लाता है तब कुछ नहीं हो सकता क्योंकि कर्म फल तो भोगना ही पड़ेगा। ‘अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम’ संत मनीषी कहते हैं- प्रत्येक दु:ख-सुख के लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं दूसरा कोई नहीं। ‘काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सब भ्राता।।’ ईश्वर हमारे माता-पिता हैं और हम उनके प्रिय संतान इसलिए हमारे दु:ख देखकर वे द्रवित हुए बिना नहीं रहते। यदि जीव का परमात्मा में विश्वास दृढ़ है तो द्रौपदी की लाज बचाने के लिए वे उसका चीर अवश्य बढ़ा देते हैं। यह दु:ख ही है जो हमें प्रभु के समीप ले जाता है। श्रीमद् भागवत में वर्णन आता है कि माता कुंती ने श्रीकृष्ण से दु:ख का वरदान मांगा था। क्योंकि वे जानती थी कि जब-जब भी उन पर विपत्ति का पहाड़ गिरा तब-तब श्रीकृष्ण को उन्होंने अपने पास खड़ा देखा और दु:खों से छुटकारा पाया।
इससे पूर्व पदुका पूजन आचार्य योगेश तिवारी एवं आचार्य कृष्ण कुमार दुबे ने संपन्न करवाया। कार्यक्रम के पश्चात विशाल भण्डारे का आयोजन समिति द्वारा किया गया, जिसमें सैकड़ों की संख्या में भक्तों ने प्रसाद प्राप्त किया।