संविधान की छाती पर मूंग का दलना

– राकेश अचल


दुनिया में अगर किसी संविधान की छाती पर मूंग दली जा सकती है तो वो है भारत का लचीला संविधान। एक ओर भारत की दो इंजन वाली सरकारें हालांकि संविधान की शपथ लेकर गठित की गई हैं किन्तु उनका आचरण एकदम सांप्रदायिक और धर्मभीरू हो गया है। इसे देखते हुए लगता है कि अगला आम चुनाव मौजूदा संविधान को धर्म प्रधान बनाने के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम राम के नाम पर ही लडा जाएगा। चूंकि मैं संविधान का सम्मान करता हूं इसलिए मुझे संविधान की छाती पर दली जा रही धर्म की मूंग उचित नहीं लगती।
इस बात की घोषणा करने की कोई आवश्यकता नहीं है कि मैं एक धार्मिक व्यक्ति हूं, लेकिन हमारे देश के प्रधानमंत्री न सिर्फ अपनी धार्मिक आस्थाओं की सार्वजनिक घोषणा कर रहे हैं बल्कि उनका आचरण भी एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के प्रधानमंत्री जैसा नहीं रहा। ऐसा लगता है कि वे केवल एक धर्म के लोगों के प्रधनमंत्री हैं। उनकी पार्टी की सरकारें एक धर्म की सरकारें हैं, न की सभी धर्मों की। मैं अपने सूबे मध्य प्रदेश की सरकार की बात करूं तो मुझे ये जानकार हैरानी हुई कि मेरे सूबे की सरकार 22 जनवरी को अयोध्या में हो रही रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा समारोह के लिए पांच लाख लड्डू बनाकर भिजवा रही है। देश के इतिहास में ऐसा न पहले कभी हुआ है और न किसी ने ऐसा किया है। क्योंकि अब तक की तमाम सरकारें धर्मनिरपेक्षता के आधार पर गठित होती रही हैं।
हमारे यहां कहा जाता है कि महाजन जिस रास्ते पर चलते हैं तमाम लोग उसी रस्ते पर चल पडते हैं। आज देश और दुनिया ऐसा होते देख रही है। धर्मपरायण प्रधानमंत्री का अनुशरण भाजपा की तमाम राज्य सरकारों के मुख्यमंत्री कर रहे हैं। खुद प्रधानमंत्री अपनी निजी आस्था और आचरण को प्रचारित कर संविधान की छाती पर मूंग दल रहे हैं। उन्हें न संविधान रोक सकता है, न विधान। आखिर वे सर्वशक्तिमान जगदगुरू जो हैं। उनके सर्वाधिकार सुरक्षित हैं। वे जो करेंगे, वही सब इस देश की जनता को भी करना पडेगा। यदि जनता अपने प्रधानमंत्री का अनुशरण नहीं करेगी तो उसे देशद्रोही, धर्मद्रोही करार देकर उसके नागरिक अधिकारों से वंचित भी किया जा सकता है।
देश में मुझे क्या, किसी और को भी इस बात से कोई आपत्ति नहीं है कि प्रधानमंत्री जी अपनी दैनिक दिनचर्या में ब्रह्ममुहूर्त जागरण, साधना और सात्विक आहार जैसे नियमों का पालन तो अनवरत ही करते हैं। प्रधानमंत्री जी ने सभी 11 दिवसीय अनुष्ठान के तौर पर कठोर तपश्चर्या के साथ व्रत लेने का निर्णय किया है। प्रधानमंत्री जी अपने एकदम निजी व्यवहार का वीडियो बनाकर अपने सोशल मीडिया हैंडिल पर लगाकर खुद इस बारे में विज्ञापन कर रहे हैं। इसकी आप सराहना भी कर सकते हैं और टीका-टिप्पणी भी। क्योंकि देश में मौजूदा प्रधानमंत्री से पहले भी जितने प्रधानमंत्री हुए हैं उनमें से कोई अधर्मी नहीं रहा। सभी के कोई न कोई इष्ट रहे हैं, सभी अपने-अपने ढंग से पूजा-पाठ करते रहे हैं।
अयोध्या में भाजपा की राज्य सरकार हर रोज 30 हजार से 50 हजार लोगों को ढोकर ले जा रही है, उनके रहने, खाने, पीने का इंतजाम कर रही है। करना चाहिए, लेकिन तब, जब अयोध्या में कोई सरकारी कार्यक्रम हो रहा हो। अयोध्या में रामलला के नवीन विग्रह की प्राण-प्रतिष्ठा का समारोह सरकारी समारोह है या किसी रामानंदी सम्प्रदाय का या किसी न्यास का, ये साफ नहीं है। लेकिन बाहर से ये साफ दिखाई दे रहा है कि ये समारोह रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा का समारोह नहीं बल्कि धर्मान्ध राजनीतिक दल और उसकी सरकारों का समारोह है। हमारा संविधान इस मामले में बिल्कुल स्पष्ट है, लेकिन कोई संविधान का सम्मान करे तब न। हमारी सरकार, हमारे नेता न संविधान का सम्मान करना चाहते हैं और न धर्माचार्यों का। वे खुद संविधान हैं और खुद धर्माचार्य। खुद भगवान हैं।
मौजूदा परिदृश्य में मेरा सुझाव तो ये है कि संसद के बजट सत्र में एक नया विधेयक लाकर संविधान से ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द उसी तरह हटा देना चाहिए, जिस तरह जोडा गया था। ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द की जगह सरकार को वहां ‘हिन्दू राष्ट्र’ शब्द जोड देना चाहिए। ऐसा कठिन नहीं है। देश की संसद में सरकार का प्रचण्ड बहुमत है। संसद में मेजें थपथपाकर कानून बनाए जाते हैं तो संविधान को भी बदला जा सकता है। यदि ऐसा हो जाए तो कम से कम मौजूदा संविधान की छाती पर मूंग दल जाने से होने वाली पीडा तो उसे नहीं होगी। सब मान लेंगे कि भारत एक धर्मभीरु हिन्दू राष्ट्र है। जो नहीं मानना चाहेगा वो अपना झोला-झण्डा उठाकर चला जाएगा।
बहरहाल इस समय देश बेहयाई के दौर से गुजर रहा है। मैंने पिछले 50 साल में संविधान, विधान और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति ऐसी बेहयाई कभी नहीं देखी और शायद देख भी न पाऊं, क्योंकि अब उम्र का पासपोर्ट भी कालातीत होने को है। अब कौन उसका नवीनीकरण करने के फेर में पडे। मेरा सौभाग्य है कि उन असंख्य दूसरे लोगों की तरह जो रामजी की कृपा से उस धर्मनिरपेक्ष देश में जन्मे जिसमें ‘ईश्वर-अल्लाह एक ही नाम’ के स्वर गूंजते थे। अब ये स्वर लुप्त हो रहे हैं। साथ ही लुप्त हो रही है हमारी संवैधानिक उदारता। सर्वधर्म समभाव। ईश्वर ही अब इस देश की रक्षा करे। आज के आलेख से मुमकिन है कि मेरे बहुत से पाठक मित्र उदिग्न हो जाएं, लेकिन मेरा अनुरोध है कि वे ऐसा न करें। यदि उनकी संविधान में आस्था नहीं है तो वे सिरे से इस आलेख को खारिज कर सकते हैं।