अब जाति न पूछो साधु की अप्रासंगिक

– राकेश अचल


हम 21वीं सदी के लोग 15वीं सदी के लोगों की चेतावनी पर ध्यान क्यों देने लगे? बाबा कबीरदास ने 15वीं सदी में ही आगाह कर दिया था कि जात-पांत से दूर रहो। हमने कबीर का कहा रट तो लिया लेकिन माना नहीं। अब हम साधु हो या शैतान, सबकी जाती पूछ रहे हैं। सियासत ने हमें जातिवाद से लडने के बजाय उसे गिनने के लिए मजबूर कर दिया है। इस हिसाब से आज ‘जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान। मोल करो तलवार को, धरी रहन दो म्यान’ वाली सीख हमारे किसी काम की नहीं रही। देश में बिहार से जातीय जनगणना का श्रीगणेश कबीर को अनसुना कर करा ही ली गई।
जाति भारतीय समाज का एक कडवा सच है। इतना कडवा सच कि हम तमाम आंदोलनों के बावजूद जातिवाद से मुक्ति नहीं पा सके। आजादी के अमृतकाल में भी जातिवाद एक भूत की तरह हम सबके सर पर इतना सवार है कि इसे लेकर सियासत होने लगी है। जातिवाद को लेकर हमारा यानि हमारे समाज का, हमारी सियासत का चरित्र एकदम दोगला है। एक तरफ हम जातीय जनगणना का विरोध करते हैं तो दूसरी तरफ तेलंगाना में जाकर जनजातीय विश्वविद्यालय खोलने का ऐलान भी करते हैं। बात-बात में ढोल-नगाडे पीटते हैं कि हमने अमुक जाति की महिला को राष्ट्रपति बना दिया, अमुक जाति के पुरुष को मुख्यमंत्री।
आज हम उस मुकाम पर आ गए हैं जहां जाति व्यवस्था नकारे जाने के बजाय अंगीकार करने की स्थितियां बन गई हैं। हमें कोई कबीर जाति न पूछने का मश्विरा नहीं दे सकता। देगा भी तो हम मानेंगे नहीं, क्योंकि जातियों को गिनने के बाद ही हमारी सियासत का असली चेहरा सामने आएगा। भारत में पहले जनता की गणना का क्या तरीका था हमें नहीं मालूम, लेकिन बीती शताब्दी में अंग्रेजों ने ये कठिन काम किया। सन 1872 में यह ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड मेयो के अधीन पहली बार कराई गई थी। तब से हर दस साल में हमें अपनी आबादी गिनने की आदत पड गई। कोरोनाकाल इसका अपवाद है।
कहते हैं कि विकास की योजना और संसाधनों का समान बंटवारा करने के लिए जनगणना एक जरूरी काम है। भारत की पहली संपूर्ण जनगणना 1881 में कराई गई थी। आजादी मिलने के फौरन बाद भारत सरकार के गृह मंत्रालय के अधीन भारत के महारजिस्ट्रार एवं जनगणना आयुक्त द्वारा कराई जाती है। इसके लिए हमारे पास बाकायदा एक कानून है। 1951 के बाद की सभी जनगणनाएं 1948 की जनगणना अधिनियम के तहत कराई गईं। 1948 का भारतीय जनगणना अधिनियम केन्द्र सरकार को किसी विशेष तिथि पर जनगणना करने या अधिसूचित अवधि में अपना आंकडा जारी करने के लिए बाध्य नहीं करता है। देश में अंतिम जनगणना 2011 में कराई गई थी।
इतिहास में रुचि रखने वालों को पता है कि जनगणना के लिए देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू जिम्मेदार नहीं है। क्योंकि जनगणना तो मौर्य प्रशासन में जनगणना लेना एक नियमित प्रक्रिया थी। मौर्य साम्राज्य में ही शुरू हो गई थी। मौर्य शासकों ने व्यापारियों, कृषकों, लुहारों, कुम्हारों, बढइयों आदि जैसे लोगों के विभिन्न वर्गों की गणना करने के लिए ग्रामीण अधिकारी (ग्रामिक) तैनात किए थे। मौर्य शासकों ने इंसानों की ही नहीं मवेशियों की भी गिनती कराई। ये गणना मजबूरी भी थी और जरूरी भी। जनगणना का असल मकसद कराधान था, क्योंकि तमाम काम-धंधे जातियों पर केन्द्रित थे। कालांतर में जनगणना और जातीय गणना व्यवस्था को ही नहीं बल्कि राजनीति को भी आतंकित कर रही है। हालांकि केन्द्र की विश्वकर्मा योजना इसी जातिवाद का नमूना है। प्रधानमंत्री जी खुद इस योजना का झुनझुना पांच राज्यों के चुनाव प्रचार में जोर-जोर से बजा रहे हैं।
भारत में पिछले 75 साल से जातियां ही हमारी राजनीति का आधार हैं। चुनावों में आरक्षण भी इसी जातीयता के दबाब की एक व्यवस्था है। अब तो बात जातियों से आगे निकल कर लिंग पर आधारित हो गई है। अब देश में पहली  बार महिलाओं को 33  फीसदी आरक्षण की व्यवस्था भी कर दी है। हम जातिवाद की मुखालफत करते हैं, लेकिन बिना जाति के हमारा काम भी नहीं चलता। चुनाव में प्रत्याशी चयन से लेकर प्रशासन में नियुक्तियों और पदोन्नतियों तक में हम जाति देखते हैं, लेकिन जातीय मतगणना की बात आते ही हमारे तेवर बदल जाते हैं, देशज भाषा में कहें तो हमारी नानी मर जाती है।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने राज्य में जातीय जनगणना कराकर उसके आंकडे जारी कर इस मुद्दे को और गर्म कर दिया है। देश के तमाम राजनितिक दल जातीय जनगणना के मामले में अभी तक राय नहीं बना पाए हैं, इसलिए आमराय होने की तो बात ही नहीं है। नीतीश कुमार ने ही जातीय जनगणना का राग सबसे पहले और सबसे जोर से अलापा था। नीतीश कुमार ने जातिगत जनगणना की मांग उठाकर बिहार के साथ-साथ देश में नई राजनीतिक बहस छेड दी थी, उन्होंने इसके लिए बाकायदा प्रधानमंत्री को खत लिखकर मिलने का समय मांगा। इससे पहले जेडीयू के सांसदों ने जाति आधारित गणना की मांग को लेकर गृहमंत्री अमित शाह से मुलाकात की थी, जेडीयू इस मामले में अपनी विरोधी आरजेडी के साथ है।
महाराष्ट्र सरकार इस मामले को सुप्रीम कोर्ट तक ले गई तो सत्तारूढ़ भाजपा की राय भी जातीय जनगणना के मामले में सामने आ गई। सुप्रीम कोर्ट में केन्द्र ने कहा कि पिछडे वर्गों की जाति गणना प्रशासनिक रूप से बहुत कठिन और जटिल है। जाति जनगणना की बढ़ती मांग को लेकर सत्ताधारी बीजेपी अब तक चुप थी, केन्द्र ने सुप्रीम कोर्ट में अपने जवाब में कहा है कि आजादी से पहले भी जब जातियों की गिनती हुई तो डेटा की संपूर्णता और सत्यता को लेकर सवाल उठते रहे। केन्द्र ने कहा कि 2011 में सामाजिक-आर्थिक और जातीय जनगणना के डेटा में तमाम तरह की तकनीकी खामियां हैं और ये किसी भी तरह से इस्तेमाल के लिए अनुपयोगी है।
जातीय जनगणना अब राजनीतिक दलों के गले की फांस बन गई है। कांग्रेस ने मौजूदा हालात को देखते हुए ये फांस निकाल फेंकी है और सत्ता में आने पर पूरे देश में जातीय जनगणना करने की बात कही है, किन्तु सत्तारूढ भाजपा का असमंजस जारी है। जातीय जनगणना के सामने भाजपा का हिन्दुत्व और सनातन का पत्ता पिटता नजर आ रहा है। लेकिन मजबूरी का नाम ‘महात्मा  गांधी’ ही नहीं ‘महात्मा मोदी’ भी होता है। देश ये किसान आंदोलन के समय देख चुका है कि एक मजबूर सरकार ने कैसे तीन किसान कानूनों को वापस लिया था। उम्मीद की जाना चाहिए कि एक मजबूर (मजबूत) सरकार भी इस मुद्दे पर अपने घुटने आज नहीं तो कल जरूर टेकेगी।