– राकेश अचल
भारत और कनाडा के रिश्तों में आई कडवाहट के बीच कनाडा में विपक्ष के नेता पियरे पोइलिवरे के एक बयान ने कनाडा में रहने वाले हिन्दुस्तानियों को जिस तरह से आश्वस्त किया है क्या वैसा ही आश्वासन भारत की सत्ता और विपक्ष के नेता संसद में भाजपा संसद रमेश बिधूडी द्वारा बसपा संसद दानिश अली के साथ किए गए व्यवहार के बाद देश के अल्पसंख्यक मुसलमानों को दे सकते हैं? क्या देश में कोई ऐसा नेता है जो असंख्य मुसलमानों की अस्मिता को आहत करने के बाद अपने हाथों में मरहम लेकर खडा नजर आये?
आपको याद ही होगा कि इन दिनों कनाडा में खालिस्तान मुद्दा चरम पर है। लगातार हो रही बयानबाजी के बीच ‘सिख फॉर जस्टिस’ के चीफ गुरपतवंत सिंह पन्नू ने कनाडा के हिन्दुओं को देश छोडने की धमकी दी थी। इसी धमकी के बीच कनाडा में विपक्ष के नेता पियरे पोइलिवरे के एक बयान ने कनाडा में रहने वाले हिन्दुस्तानियों को जिस तरह से आश्वस्त किया है वो सराहनीय है। पियरे ने अपने संदेश में लोगों, खासतौर पर हिन्दुओं के लिए कहा कि ‘हरेक कनाडाई बिना किसी डर के जीने का हकदार है।’ हाल के दिनों में हमने कनाडा में हिन्दुओं को निशाना बनाते हुए घृणित टिप्पणियां देखी हैं। रूढिवादी हमारे हिन्दू पडोसियों और दोस्तों के खिलाफ इन टिप्पणियों की निंदा करते हैं। हिन्दुओं ने हमारे देश के हर हिस्से में अमूल्य योगदान दिया है और उनका यहां हमेशा स्वागत किया जाएगा।
कनाडा में हिन्दुस्तानी प्रवासी हैं, लेकिन हिन्दुस्तान में रहने वाले मुसलमान प्रवासी नहीं इस देश के मूल निवासी है। उन्हें दोयम दर्जे के नागरिकों की तरह न धमकाया जा सकता है और न अपमानित किया जा सकता है। हिन्दुस्तान का संविधान यहां रहने वाले सभी लोगों को एक जैसे अधिकार देता है। संविधान में अल्पसंख्यकों को अलग से संरक्षण भी दिया है। लेकिन दुर्भाग्य ये है कि अब सत्तारूढ दल और उसके रमेश बिधूडी जैसे सांसद अल्पसंख्यकों को सीधे देख लेने की धमकियां देते दिखाई दे रहे हैं। दुर्भाग्य ये भी है कि ऐसे सांसद के खिलाफ त्वरित कार्रवाई के बजाय उसे संरक्षण देने की अक्षम्य कोशिशें की जा रही हैं।
सवाल ये है कि क्या हम इस देश में रहने वाले लोग कनाडा या अमेरिका के लोगों की तरह शांति से नहीं रह सकते? हमारे देश के बहुसंख्यक हिन्दू और उनके कथित नेता और राजनितिक दल कब तक अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों को हिन्दुस्तानी नहीं मानेंगे? क्या हिन्दुओं की ठेकेदारी करने वाले लोग और दल इसी मुद्दे पर 1947 में हम भारतीयों द्वारा दी गई कीमत से मुतमईन नहीं हैं? 1947 में भारत जिन परिस्थितयों में एक संप्रभु राष्ट्र बना था उसे झुठलाया नहीं जा सकता, किन्तु उस समय जो अल्पसंख्यक आबादी पाकिस्तान नहीं गई उसे हिन्दुस्तानी न मानने की भूल करना देश के संविधान और समरसता का अपमान करना है। दुर्भाग्य से जो बार-बार किया जा रहा है। संसद से सडकों तक ये अपमान होता दिखाई दे रहा है। हिन्दुओं की ठेकेदारी करने वाले सत्तारूढ दल ने तो अपनी पार्टी में नाम मात्र के लिए दिखाई देने वाले अल्प संख्यक नेताओं को भी अस्तित्व विहीन कर दिया है। ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ।
सवाल एक बिधूडी का नहीं है, बल्कि बिधूडी जैसे लोगों को पैदा करने वाले समूचे राजनीतिक दलों और सोच का है। भाजपा का नाम इस विष वमन में बार-बार आता है। बिधूडी से पहले उनके पास अनेक बिधुडियां भी थीं। जो सरेआम आग उगलती थीं। मुसलमानों का नाम लेकर आग उगलती थीं, लेकिन दुर्भाग्य हिन्दुस्तान का एक भी सनातनी कानून एक भी विष वमनकर्ता को सबक नहीं सीखा पाया। इसी का नतीजा है कि आज हमारी संसद ने वो सब नजारा देखा जो पिछले 75 साल में कभी नहीं देखा गया था। ये विषबेल अब तेजी से फैलती दिखाई जा रही है। इसका उपचार अब जरूरी हो गया है।
हमारे देश की मौजूदा सत्ता के मुंह में राम और बगल में छुरी नहीं बल्कि बारूद ही बारूद भरी है। हमारे भाग्य विधाताओं की हर मुद्रा अल्प संख्यकों को लेकर बारूदी नजर आती है। ऊपर वाले ने यदि ऐसे भाग्य विधाताओं को जरा और ताकतवर बनाया होता तो ये भारत के मुसलमानों के लिए अब तक एक अलग मुल्क बना चुके होते और इसके लिए किसी दुश्मन मुल्क को कोशिश नहीं करना पडती। हम खुद इसके लिए काफी होते। खुदा न खास्ता यदि देश में मौजूदा सत्तारूढ दल को 2047 तक सत्ता में रहने का मौका मिल गया (जो असंभव है) तो तय है कि ये अल्पसंख्यकों को देश के बाहर खदेडने या दूसरे दर्जे का नागरिक बनने पर मजबूर कर देंगे। हमारी सरकारी पार्टी का विश्व बंधुत्व और वसुधैव कुटुंबकम का नारा अपनी ही जमीन पर दम तोड देगा।
कनाडा से हमारे रिश्त क्यों बिगडे इस पर बहस से पहले हमें इस बात पर बहस करना होगी कि हम अपने ही देश में रहने वाले अल्पसंख्यकों से अपने रिश्ते क्यों बिगाडने पर आमादा हैं? क्या इसके बिना देश की सत्ता में नहीं रहा जा सकता? भारत को जबरन हिन्दू राष्ट्र बनाने की संकल्पना ही भयावह है। धर्म के आधार पर बने देशों की दुर्दशा दुनिया देख रही है, फिर भी हम सबक नहीं लेना चाहते। कभी-कभी मुझे लगता है कि ये संकीर्णता कहीं हमें ले न डूबे! रामचरित मानस में कहा गया है कि बांझ प्रसव की पीडा नहीं समझ सकती। मुझे लगता है कि ये बात किसी हद तक सही है। जिन लोगों ने आजादी के पहले से और आजादी के बाद मिल-जुलकर रहना न सीखा हो, मेल-जोल की दीक्षा न ली हो, वे समरसता का महत्व कैसे समझ सकते हैं?
ताजा माहौल में गडे मुर्दे आखिर उखाडे किसने? क्या जरूरत थी संसद में अविश्वास प्रस्ताव के दौरान पंत प्रधान को स्वर्ण मन्दिर पर अतीत में आतंकियों के खिलाफ की गई सैन्य कार्रवाई की निदा करने की? खालिस्तान का भूत तो कब का बोतल में बंद हो गया था। उसे बोतल के बाहर निकाला किसने? अब स्थिति ये आ गई है कि ये मुद्दा अब हमारी विदेश नीति पर भारी पड रहा है। मजे की बात ये है कि इस मुद्दे पर हम अपनी नीति की समीक्षा करने के बजाय हैडमास्टर बनने पर आमादा हैं। एक ऐसे देश के पंत प्रधान को सबक सिखाने की कोशिश कर रहे हैं जो लम्बे समय से भारतीयों को अपने देश में समान अवसर देता आ रहा है।
कनाडा के पंत प्रधान का आचरण बचकाना और गैर जिम्मेदारान हो सकता है, लेकिन हमें तो गाम्भीर्य का परिचय देना चाहिए। हम क्यों अपने देश में रहने वाले अल्पसंख्यकों को चिंता में डाल रहे हैं? वे तो मुसलमान नहीं है। उनकी पूरी कौम तो आतंकवादी नहीं है? वैसे तो कोई भी कौम के एक-दो सिरफिरे लोगों की करतूतों की वजह से लांछित नहीं की जा सकती, किन्तु हम जान- बूझकर ऐसा कर रहे हैं। हम मुसलमानों के प्रति शंकालु हैं। हम सिखों के प्रति शंकालु हैं। हमें ईसाइयों पर भी यकीन नहीं है। हमारी नजर में मुसलमान और सिख आतंकवादी है और ईसाई हिन्दू धर्म के दुश्मन। ऐसे में आखिर देश का भावी स्वरूप क्या होगा? क्या कोई देश घरेलू अविश्वास और आशंकाओं के माहौल में तरक्की कर सकता है? विश्व गुरू बन सकता है? उसे विश्व मित्र कहे जाने का हक है?
ये तमाम सवाल खडे करते हुए मैं न भाजपाई हूं और न कांग्रेसी। मैं किसी अल्पसंख्यक दल का भी सदस्य नहीं हूं। मैं ये तमाम सवाल एक निष्ठवान हिन्दुस्तानी होने के नाते कर रहा हूं। एक हिन्दू होने के नाते कर रहा हूं। हमें हमारे पूर्वजों ने अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत के जहर से कभी नहीं सींचा। हमारे यहां राम और रहीम के साथ खडे होने, बैठने और रहने की संस्कृति रही है। हमने अपने कार्य व्यवहार में वसुधैव कुटुंबकम की भावना को जिया है। हम इस मूलमंत्र की भावना को राजनीतिक दलों के एजेण्डे से ज्यादा अच्छी तरह समझते हैं।
हमारे पूर्वज कहते थे कि जहर तो हर सांप में होता है, किन्तु कुछ में कम होता है, कुछ में ज्यादा, इसलिए हर सांप को जहरीला समझकर मार देना अक्लमंदी नहीं है। ये बात वे किस संदर्भ में कहते थे ये मुझे आज समझ में आ रहा है। आप भी अपने विवेक से आपने आस-पास विचरण करने वाले सर्पों को पहचानें। सांपों में कोई अल्प संख्यक या बहु संख्यक नहीं होता। सांप सिर्फ सांप होता है। उसका जहर जानलेवा होता है। संयोग से अब हमारे पास सर्पदंश से उपचार की तमाम वैज्ञानिक विधियां मौजूद हैं। हमें यानि हम हिन्दुस्तानियों को हर तरह के जहर का उपचार करने के लिए तैयार रहना चाहिए। जब भी मौका मिले इन विषैले सांपों में अपने मताधिकार का विषरोधी इंजेक्शन अवश्य लगाइये। मत देखिये कि सांप किस प्रजाति का है? आप सिर्फ जहर पर ध्यान दीजिये।