– राकेश अचल
स्वतंत्रता दिवस पर सिर्फ जय गान करने का रिवाज है, मैं भी इस मौके पर केवल उनकी जय बोलूंगा जो सचमुच भारत के भाग्यविधाता हैं। जन हैं, गण हैं, मन हैं, अधिनायक हैं। गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगौर ने मात्र 52 पलों के इस राष्ट्रगीत में सब कुछ कह दिया था। आज जब राष्ट्रगान की पंक्तियां जहां कहीं भी और जब कभी सुनाई देती हैं तो मन तरंगित हो जाता है। लेकिन स्वतंत्रता दिवस पर पूरे राष्ट्रगान की नहीं केवल ध्रुव पंक्ति- ‘जन-गण-मन, अधिनायक जय हे’ की बात कर रहा हूं।
स्वतंत्रता कोई ऐसी मूर्त वस्तु नहीं है जिसे आप बाजार से खरीद लाएं। स्वतंत्रता एक नैसर्गिक अनुभूति है और आज 76 साल बाद भी ये प्रश्न जहां की तहां है कि क्या हम वाकई स्वतंत्र हो गए हैं? क्या हम सचमुच अपने जन की, अपने गणतंत्र की और अपने मन की जय बोल सकते हैं या फिर हमें अधिनायकवाद और भाग्यविधाताओं की जय बोलना पड रहा है? गुरुदेव का जन, गण, मन, अधिनायक और भाग्यविधाता ये देश आजतक नहीं पहचान पाया। जबकि अब ये खोज का विषय नहीं है। ये धारणा एकदम निराधार है कि गुरुदेव ने जिस अधिनायक और भाग्यविधाता की जय बोली वो कोई गौरांग प्रभु था।
बहस का मुद्दा राष्ट्रगान की ध्रुव पंक्ति नहीं है। हमें विचार करना है कि क्या आजादी के 76 साल बाद भारत, हिन्दुस्तान और इंडिया का जन यानि जनता, यानी जनतंत्र जय बोलने लायक हो गया है? या भारत में हम सचमुच के अधिनायकों की जय बोलने लगे हैं या हमारा भाग्यविधाता कोई ऐसा व्यक्ति है जो अपने आपको ईश्वर मानने लगा है? जो देश और अपने भविष्य के प्रति पूरी तरह भिज्ञ है और भविष्य वाणियां कर सकता है? मुझे पता है कि हमारे देश में अभी भी जन, गण, मन, अधिनायक और भाग्यविधाता शब्द पर कोई भी मुबाहिसा करना पसंद नहीं करेगा, लेकिन इन तमाम शब्दों पर बहस होना चाहिए?
आज के दिन मैं आजादी की लडाई में शामिल हुई अपनी पूर्वज पीढ़ी की, इस लडाई की चक्षुदर्शी रही पीढ़ी की, आजादी के बाद पैदा हुई पीढ़ी की और आज की पीढ़ी की जय बोलना चाहता हूं। क्योंकि आजादी का रथ खींचने में सभी का योगदान है। मैं आज के भारत के लिए किसी एक को न श्रेय देना चाहता हूं और न किसी एक को उल्हाना देना चाहता हूं। दुर्भाग्य ये है कि हम आजादी के दिन भी उलहाने देकर, तोहमतें लगाकर अपना काम चालाना चाहते है। हमें आधुनिक भारत की नीव रखने वालों का नाम लेने में शर्म आती है। हम वंशवाद की पनही लेकर हमेशा अपने पुरखों पर हमला करने को तत्पर दिखाई देते हैं। हम अपने जन की, अपने जनतंत्र की, अपने गण की, अपने गणतंत्र की जय नहीं बोलना चाहते। हम केवल अपने अधिनायक की और स्वयंभू भाग्य विधाताओं की जय बोलना चाहते हैं। हम जनतंत्र के बजाय गनतंत्र की जय बोलना और बुलवाना चाहते हैं।
हमारे लिए ये उपलब्धि है या शर्म, पता नहीं। किन्तु हमने इन 76 वर्षों में जनतंत्र या गणतंत्र की आड में गणतंत्र और अधिनायक को ही मजबूत किया है। हमारा गण आज भी पांच किलो अनाज के लिए हमारी सरकार पर निर्भर है। इसके लिए कौन जिम्मेदार है, कौन नहीं ये बाद की समीक्षा का विषय है। आज देखना ये है कि हमारा जन, गण, मन कैसे मजबूत हो? कैसे हम अपने भाग्य विधाताओं की मुश्कें कसें? कैसे हम अधिनायक को मजबूत होने से रोकें? आजादी के बाद हमें कहां होना चाहिए था और हम कहां हैं, ये बताने की जरूरत नहीं है। हम आज भी विकास की आधार शिलाएं रखने के बजाय पूजा घरों पर अपना पैसा लुटा रहे हैं। हम जन, गण और मन को विकास, विज्ञान के बजाय ईश्वर, संतों और जातियों के जरिये प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हैं। शायद इसीलिए हमारा जनतंत्र, गणतंत्र मजबूत होने के बजाय कमजोर हो रहा है। हम इनकी जडें सींचने के बजाय भाग्य विधाताओं और अधिनायकों की जडें सींच रहे हैं।
स्वतंत्रता के लिए अपनी कुर्बानियां देने वाले लोगों की पीढ़ी यदि आज का भारत देख ले तो शायद रो पडे। क्योंकि हमारे यहां आज भी वे सब कारक जस के तस मौजूद हैं, जिनके खिलाफ हमने लडाइयां लडी। हम बीते दशकों में जातिवाद समाप्त कर पाए और न साम्प्रदायिकता। हिंसा हमारी रगों में रच-बस चुकी है। हम नफरत की आग में 15 अगस्त 1947 के पहले भी जल रहे थे और आज भी जल रहे हैं। हिंसा के खिलाफ हमारी लडाई मौथरी हो गई है। जहां हिंसा होती है, वहां जाकर शांति बहाल करने के लिए उपवास, अनशन करने का साहस हमारे भीतर बचा नहीं है। हम सबको साथ लेकर चलना भूल चुके हैं। हमारा राजधर्म पूरी तरह से बदल चुका है। हम गांधी के रास्ते पर नहीं हैं। हम भटक चुके हैं। हमारे दिशासूचक चिन्ह बदल दिए गए हैं।
हमारा दुर्भाग्य है कि हम एक जूनून में फंसकर अपना इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र सब बदलने में लगे हैं। हम लगे हैं शहरों, गांवों, गलियों और मुहल्लों के नाम बदलने में। हम देश नहीं बदलना चाहते। हमारा लक्ष्य बहुत छोटा है। जातिवाद, साम्प्रदायवाद को हम यानि हमारे भाग्य विधाता और अधिनायक ही मजबूत बनाने की कोशिश कर रहे हैं। अन्यथा हमें जातियों के हिसाब से पॉकेट बनाने के लिए सरकारी खजाने से मन्दिर और कॉरिडोर बनाने की क्या जरूरत? हमने कोई मस्जिद, कोई गिरजाघर, कोई गुरुद्वारा इसके लिए नहीं चुना। हमें तो जन का फटा सुथन्ना बदलने की कोशिश करना थी। लेकिन हमने नहीं की। हम नहीं करना चाहते, हम पांच किलो अन्न बांटकर पुण्य कमाने वाले लोग हैं।
बहरहाल हम स्वतंत्रता दिवस पर बधाई देना चाहते हैं उन असंख्य किसानों को जिनकी वजह से हमारा कृषि उत्पादन बढ़ा। हम बधाई देना चाहते हैं उन असंख्य शहीद सैनिकों को जिनकी कुर्बानी की वजह से आज भी हमारी सीमाओं पर तनाव के बावजूद हम सुरक्षित हैं। हमारी शुभकामनाएं हैं उन वैज्ञानिकों को जो हमें चन्द्रमा पर ले जा रहे हैं। हमारी शुभकामनाएं हैं उन नौजवानों को जो बेरोजगार होते हुए भी कावड यात्रा निकाल रहे हैं (इसमें दोष नौजवानों का नहीं है। हम ही उन्हें इसके लिए तैयार कर रहे है।) हम ही उनके ऊपर हेलीकॉप्टर से पुष्पवर्षा कर उन्हें भरमाने की कोशिश कर रहे हैं। क्या हम नहीं जानते कि इससे न देश मजबूत हो रहा है और न हमारी नई पीढ़ी।
हमारी बधाई उन नीति निर्धारकों को है जो बिना किसी पंचवर्षीय योजना के विकास करने में लगे हैं। हमारी बधाई है उन लोगों को जो संविधान के साथ खेल रहे हैं और पंचशील को भूल चुके हैं, जो गुटनिरपेक्षता में यकीन नहीं रखते। हम शुभकामनाएं दे सकते हैं उन लोगों को जो तिरंगे के देश में दोरंगा को प्रोत्साहित कर रहे हैं। हम बधाई देते हैं उन जनसेवकों को जो केवल हंगामा करने के लिए ही अवतरित हुए हैं। हमारी शुभकामनाएं देश की संसद को ध्वनिमत से चलने वालों को भी है। हम शुभकामनाएं देते हैं उन परिवारों को जिन्होंने सत्ता के केन्द्र में रहते हुए अपने स्वजनों की कुर्बानियां दीं। हमारी शुभकामनाएं उन लोगों को भी हैं जिन्होंने अपने परिवार सियासत और सत्ता के लिए त्याग दिए। हमारी सहानुभूति उन लोगों के प्रति है जो रोटी के लिए चौराहों पर चीनी तिरंगे बेचने को विवश हैं। हमारी बधाई उन्हें भी है जो बिना जरूरत देश में ध्वज यात्राएं निकालने में व्यस्त हैं, क्योंकि उनके हिसाब से ऐसा करने से राष्ट्रवाद मजबूत होता है।
मुझे स्वतंत्रता दिवस की 77वीं वर्षगांठ मानते हुए बकौल सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ये स्वीकारने में कोई हिचक नहीं है कि
‘अब मैं कवि नहीं रह गया
एक काला झण्डा हूं।
तिरेपन करोड भौंहों के बीच मातम में
खडी है मेरी कविता।’
(आप तिरेपन करोड को चाहे जितने करोड पढ़ सकते हैं) बात बहुत लम्बी हो सकती है, लेकिन आज नहीं फिर कभी। आज आप सब जन, गण, मन गाइये, जय बोलिये, जन, गण, मन और अधिनायक तथा भाग्य विधाताओं की। यही राष्ट्रभक्ति है, राष्ट्रप्रेम है। बांकी सब बेकार की बातें हैं। हकीकत केवल तिरंगा है, लाल किला है। अधिनायक और भाग्य विधाता तो आते-जाते रहते है। जन, गण, मन नहीं बदलता कभी भी।