-राकेश अचल
जब आप ये आलेख पढ़ रहे होंगे, तब भी देश की संसद हंगामे में डूबी होगी। हमारे देश की संसद बनी तो थी देश के मुद्दों पर बहस-मुबाहिसे के लिए, लेकिन अब यहां केवल हंगामा होता है। वजह साफ है कि जो भी सत्तासीन होता है, ज्वलंत मुद्दों पर बहस से कतराता है। आज के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी पार्टी भी बहस से कतरा रही है। मुझे सत्तारूढ़ दल और उसके नेताओं की इस कातरता पर कोई हैरानी नहीं है, लेकिन विपक्ष है कि मानता ही नहीं। उसे मणिपुर मुद्दे पर प्रधानमंत्री का ही बयान सुनना है।
मणिपुर का मुद्दा सत्तारूढ़ दल के लिए काबिले बहस मुद्दा न हो, किन्तु ये मुद्दा अब देश की सीमाएं लांघकर दुनिया तक पहुंच गया है। विपक्ष को इसी पर संतोष कर लेना चाहिए कि जिस मुद्दे पर देश की संसद में बहस होना थी, उसी मुद्दे पर दूसरे देशों की संसदें बहस कर रही हैं। हमारी सरकार जब विदेश की संसद को कोई उत्तर नहीं दे रही तो देश की संसद में अपना श्रीमुख कैसे खोल सकती है? मणिपुर पर बहस किस प्रावधान के तहत हो, अभी इसी पर बहस और हंगामा हो रहा है। विपक्ष सारे काम रोककर बहस कराना चाहता है, जबकि सरकार चाहती है कि पहले निर्धारित कार्यसूची पर काम हो फिर बहस। यानी सरकार बहस से नहीं भाग रही?
मणिपुर पर बहस होने से मौजूदा सरकार गिरने वाली नहीं है। ये सरकार दिल्ली सरकार के लिए बनाए गए अध्यादेश को कानून बनाने के मुद्दे पर भी नहीं गिरेगी। वैसे भी एक गिरी हुई सरकार को गिराने के लिए कोशिश करना बेकार की जिद है। मणिपुर में डबल इंजन सरकार बुरी तरह नाकाम हो गई है। सरकार ने मणिपुर से मैतेयी समाज के लोगों के पलायन के लिए खुद हवाई जहाज मुहैया कराकर अपनी नाकामी को तस्लीम कर लिया है। ये सरकार की नाकामी है या उपलब्धि, ये कहना कठिन है। क्योंकि डबल इंजन की सरकार जो चाहती थी वो अपने आप हो रहा है। सरकार राज्य में एक समाज को संरक्षण देने के बजाय यदि पलायन में उनकी मदद करने लगे तो आप समझ सकते हैं कि हकीकत क्या है?
विपक्ष को चाहिए कि वो प्रधानमंत्री का श्रीमुख खुलवाने की जिद छोड दे। उन्हें माफ कर दे। मौन प्रधानमंत्री का सबसे बडा लक्षण और हथियार है। वे डॉ. मनमोहन सिंह से भी बडे मौनी बाबा साबित हुए हैं, प्रधानमंत्री को केवल आकाशवाणी पर बोलना आता है, वो भी वातानुकूलित स्टूडियो में। वे कैमरे के सामने बोल सकते हैं, भीड के सामने बोल सकते हैं, किन्तु संसद के सामने बोलने से भय खाते हैं। प्रधानमंत्री के मणिपुर बोलने से मणिपुर का भला होने वाला नहीं है। मणिपुर में अराजकता, अमानुषिकता से जितना नुक्सान देश और मणिपुर का होना था वो हो चुका। वहां देश के लिए लडने वाले सैनिकों और स्वतंत्रता संग्राम सैनिकों के परिवारों की महिलाओं की इज्जत लूटना थी सो लूट गई। उनकी हत्याएं होना थीं सो हो गईं।
देश की संसद में प्रधानमंत्री के वक्तव्य को लेकर भले ही पूरा विपक्ष एकजुट और उतावला हो, किन्तु आम आदमी को इस विषय को लेकर कोई उतावलापन नहीं है। कोई उत्सुकता नहीं है। क्योंकि देश की जनता जानती है कि प्रधानमंत्री मणिपुर में अपनी पार्टी और सरकार की अकल्पनीय नाकामी के लिए भी अंतत: कांग्रेस और सिर्फ कांग्रेस को कोसने वाले हैं। उनके सिर से जब तक कांग्रेस का भूत नहीं उतरता, वे देश की सम्प्रभुता और एकता की सुरक्षा के लिए न कुछ कर पाए हैं और न कर पाएंगे। वैसे भी अब प्रधानमंत्री के पास करने के लिए समय ही कहां बचा है? अब वे मणिपुर को बिसराकर देश में होने वाले विधानसभाओं और आम चुनावों की तैयारियों में उलझ चुके हैं। विपक्ष को उनके ऊपर रहम खाना चाहिए। विपक्ष प्रधानमंत्री के बयान की मांग छोडकर ये काम कर सकता है। लेकिन विपक्ष भी तो उसी मिट्टी का बना है, जिससे प्रधानमंत्री बने हैं।
आपको स्मरण होगा कि संसद के बजट सत्र का दूसरा चरण अदाणी मामले में हंगामे की भेंट चढ़ा चुका है। तब विपक्ष अदाणी समूह के खिलाफ लगे आरोपों की जांच के लिए जेपीसी गठित करने की मांग पर अड गया था। अब मानसून सत्र की शुरुआत ही मणिपुर हिंसा पर हंगामे से हुई है। इसके कारण दोनों सदनों के शुरुआती दो दिनों का कामकाज हंगामे की भेंट चढ़ चुका है। अब कोई तो अपना अडियलपन छोडे! सरकार नहीं छोडे तो विपक्ष को अपना अडियलपन छोड देना चाहिए। विपक्ष को भी प्रधानमंत्री की तरह चुनाव तैयारियों में जुट जाना चाहिए। मणिपुर का क्या, अभी आधा जला है, कल को पूरा जल जाएगा। मणिपुर कोई पूरा देश थोडे ही है! मणिपुर सिर्फ मणिपुर है। मणिपुर को शांत करने का ठेका केन्द्र सरकार ने न पहले लिया था और न आगे लेने वाली है।
मणिपुर अनाथ था और जब तक केन्द्र में दरियादिल सरकार नहीं आएगी तब तक अनाथ ही रहेगा। हमारी सरकार तो मन्दिर बनाना जानती है, गिरजाघरों से उसे क्या लेना? वे जलते हैं तो उसकी बला से। मणिपुर को लेकर दुनिया में भारत की बदनामी हो तो सरकार को क्या फर्क पडता है? देश में और खासकर हिन्दुओं में तो उनका नाम हो रहा है। सरकार पर फर्क तो भारत के मतदाताओं की प्रतिक्रिया से पडता है। अब देखना होगा कि जनता ने क्या सोच रखा है? देश की संसद को परेशान होने की जरूरत नहीं है। संसद हंगामे के लिए बनी है सो हंगामा करो, हंगामा होने दो और ध्वनिमत से अपना कामकाज निपटाओ बस। हमारी संसद के पीठासीन अधिकारी ध्वनि विशेषज्ञ होते है। उन्हें समझ में आता है कि ‘हां’ के पक्ष में बहुमत है और ‘न’ के पक्ष में अल्पमत।
मणिपुर को लेकर हमारा, आपका गुस्सा किसी काम का नहीं। गुस्सा तो प्रधानमंत्री का असर दिखाता है। वे जब गुस्से में होते हैं तो और खूबसूरत लगते हैं। मुस्कराहट उनके चेहरे पर जमती ही नहीं। वे जब मुस्कराते हैं तो गंगा में हिलोरें उठने लगती है। वे जब मुस्कराते हैं तो साबरमती के किनारे बना गांधीजी का आश्रम नेस्तनाबूद हो जाता है। पहले देश की जनता प्रधानमंत्री के रात आठ बजे दूरदर्शन पर आने से घबडाती थी, अब उनके मुस्कराने पर घबडाती है। प्रधानमंत्री के क्रोध में भर जाने से नुक्सान किसका होगा? ले-देकर कांग्रेस का। देश का तो कुछ बिगडना नहीं है। गुस्से में भरे प्रधानमंत्री जी के प्रति मेरी पूरी सहानुभूति है। पूरे देश की सहानुभूति प्रधानमंत्री के साथ होना चाहिए। उन्हें इस समय सहानुभूति की बेहद जरूरत है, क्योंकि कांग्रेस और विपक्ष तो उनसे सहानुभूति रखता ही नहीं है। यदि रखता होता तो मणिपुर मुद्दे पर इनके बयान की मांग न छोड देता! जब विपक्ष के नेता राहुल गांधी संसद की सदस्यता छोड सकते हैं तो बहस और बयान की मांग छोडने में विपक्ष को क्या दिक्कत है?
विपक्ष को शायद नहीं पता कि प्रधानमंत्री के दौरों की जितनी जरूत मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना को है, उतनी मणिपुर को नहीं है। मणिपुर की आबादी तो अकेले इंदौर या जयपुर जितनी है, जबकि इन चार-पांच प्रदेशों की आबादी से आधा हिन्दुस्तान बनता है। ऐसे में प्रधामंत्री भला मणिपुर क्यों जाएं? क्यों मणिपुर पर संसद में बहस में भाग लें? क्यों मणिपुर पर अपना श्रीमुख खोलें? इस मामले में मैं प्रधानमंत्री जी के साथ हूं। उनके मौन व्रत के साथ हूं। ये मेरा स्वभाव है कि मैं हमेशा कमजोर का साथ देता हूं। प्रधानमंत्री जी इस समय दुनिया के सबसे कमजोर प्रधानमंत्री हैं। ये अपनी-अपनी मान्यता की बात है। मुमकिन है कि वे आपकी नजर में बाहुबली या महाबली हों। मैं आपकी मान्यता का प्रतिवाद करने वाला नहीं हूं। यहां गोस्वामी तुलसीदास का फार्मूला फिट होता है ‘जाकी रही भावना जैसी’। आप प्रधानमंत्री को जैसा देखना चाहते हैं, वे वैसे दिखाई देने लगते हैं। यही तो अवतारों की खुसूसियत होती है। बहरहाल हम संसद के और संसद हमारी। हम और देश दोनों पर बलिहारी।