– अशोक सोनी ‘निडर’
निष्ठाओं के ऋण में डूबी राजसभा जब मूक हो गई।
सत्ताधीशों! फिर कलयुग में द्वापर जैसी चूक हो गई।।
क्योंकि चुप थे सभी पुरोधा क्या तरकश में तीर नहीं थे?
वस्त्र हरण होती अबला के रक्षण को शमशीर नहीं थे।।
तुम सब द्यूत सभा के हारे बेबस पाण्डु तनय दिखते हो।
लोकतंत्र का स्वांग रचाते वोटों की खातिर बिकते हो।।
आह! बेटियों की लेकर जो सिंहासन का सुख चाहोगे।
द्रुपद सुता का शाप न भूलो युग-युग तक अपयश पाओगे।
मन करता है आग लगा दूं राजमहल की कायरता को।
उस राजा का मरना अच्छा बचा न पाये जो दुहिता को।।
सौ-सौ बार मरा होगा वो बेबस बाप अभागा मन में।
लाज उतारी गई सुता की जिसके जीते-जी जीवन में।।
कैसे बने दरिंदे मानव कैसी उनकी भूख हो गई?
तार-तार होती मानवता उर अंतर की हूक रो गई।।
निष्ठाओं के ऋण में डूबी राजसभा जब मूक हो गई।
सत्ताधीशों! फिर कलयुग में द्वापर जैसी चूक हो गई।।