गोरखपुर में उज्जैन काण्ड की पुनरावृत्ति

– राकेश अचल


उत्तर प्रदेश के महाबली मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गृह नगर गोरखपुर में दीनदयाल विश्वविद्यालय के कुलपति को अभाविप कार्यकर्ताओं ने दौडा-दौडकर पीटा, गनीमत है कि उनकी जान बच गई। शुक्रवार की शाम अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद कार्यकर्ताओं ने कुलपति के कक्ष में घुसकर तोड-फोड कर दी। दरवाजा उखाड कर फेंक दिया। इसके बाद कुलपति और रजिस्ट्रार को दौडा-दौडाकर पीटा। इतना ही नहीं, बीच-बचाव करने आए पुलिस वालों से भी मारपीट की। बाद में पुलिस वालों ने लाठीचार्ज कर परिषद कार्यकर्ताओं को खदेडा। बवाल में कुलपति, रजिस्ट्रार और परिषद कार्यकर्ता और कुछ पुलिसकर्मी घायल हुए हैं। सभी को अस्पताल भेजा गया है। तीन से चार थानों की फोर्स तैनात की गई है। वहीं 10 कार्यकर्ताओं को हिरासत में लिया गया है।
गोरखपुर विश्वविद्यालय की इस वारदात ने 2008 में मध्य प्रदेश में उज्जैन के माधव कालेज में हुई प्रो. सभरवाल हत्याकाण्ड की याद दिला दी। इस हत्याकाण्ड के आरोपियों में शामिल लोग आज भाजपा में शीर्ष पर हैं, हालांकि बाद में उन्हें अदालत ने बडी कर दिया था। गोरखपुर घटना भाजपा के सुशासन में हुई है और उज्जैन की घटना भी भाजपा के ही सुशासन में हुई थी। दोनों घटनाओं में भाजपा की संस्कारवान छात्र संस्था के कार्यकर्ता शामिल थे। यानि बीते 15 साल में भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों की चाल, चरित्र और चेहरे में कोई बदलाव नहीं आया है। बल्कि उसका रंग और गहरा हुआ है।
परिषद कार्यकर्ता यूनिवर्सिटी में फैली अनियमितता के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे। छात्रों के मुताबिक वाइस चांसलर के आश्वासन के बाद भी किसी समस्या का समाधान नहीं हुआ। इसके बाद 13 जुलाई को परिषद कार्यकर्ताओं ने मांगें पूरी न होने पर विश्वविद्यालय में कुलपति का पुतला फूंक कर प्रदर्शन किया। उस दिन भी कार्यकर्ताओं ने तीन दरवाजों के ताले भी तोड दिए थे। इसके बाद कुलपति ने एक-एक कर छात्रों की समस्याएं सुनीं और आश्वासन दिया था कि जल्द ही इन सभी का समाधान कर दिया जाएगा। इसके बाद डीन डॉ. सत्यपाल सिंह ने हंगामा करने वाले चार कार्यकर्ताओं के निलंबन और चार कार्यकर्ताओं को यूनिवर्सिटी में प्रवेश वर्जित करने का आदेश जारी कर दिया। इस आदेश के विरोध में छात्र वाइस चांसलर से मिलने शुक्रवार को पहुंचे तो उन्होंने बात करने से मना कर दिया। इस पर परिषद कार्यकर्ताओं का गुस्सा भडक गया।
विश्वविद्यालय के छात्रों की समस्याएं हो सकती हैं, मुमकिन है कि कुलपति और रजिस्ट्रार भी इसके लिए दोषी हों, लेकिन परिषद को ये अधिकार राज्य सरकार ने, कब दे दिया कि उसके कार्यकार्ता हिंसा पर उतर आएं और पुलिस तमाशबीन बनी देखती रहे। जिन राज्यों में भाजपा की डबल इंजन की सरकारें हैं, उन सभी में विद्यार्थी परिषद की शक्ति अपार है। इसी शक्ति के चलते 2008 में मप्र के उज्जैन शहर में छात्रसंघ चुनाव के दौरान माधव महाविद्यालय के प्रो. सभरवाल की छात्रों ने पीट-पीट कर हत्या कर दी थी। जाहिर है कि अभाविप कार्यकर्ताओं का हौसला आसमान पर है। ‘सैंया भये कोतवाल तो फिर डर काहे का?’
गोरखपुर की वारदात कहने को एक आम घटना है, लेकिन इसे खास माना जाना चाहिए। क्योंकि ये घटना उप्र के उत्तरदायी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गृह नगर की है। इस घटना से पूरे प्रदेश में कानूनों और व्यवस्था की स्थिति की झलक मिलती है। भाजपा के सत्ता में आने के बाद अकेले मप्र या उप्र में ही नहीं, बल्कि पूरे देश में शिक्षा के केन्द्र आतंक के साये में है। दिल्ली का जेएनयू हो या फिर एएमयू केम्पस, सभी जगह अराजकता का माहौल है। दुर्भाग्य ये है कि इस अराजकता को राजसत्ता का संरक्षण प्राप्त है। जब अपराध करने वाले सरकार के प्रिय अनुषांगिक संगठनों के लोग हों तो वहां बेचारी सरकार बुलडोजर संहिता का इस्तेमाल भी नहीं कर सकती। बुलडोजर तो विधर्मियों को पहचानते हैं।
मप्र के इंदौर शहर में महिला प्राचार्य विमुक्ता शर्मा को छात्र ने जिंदा जला दिया था। उनकी इलाज के दौरान मौत हो गई थी। नकाब पहने दो छात्रों ने कॉलेज कैम्पस में घुसकर प्रोफेसर से मारपीट की थी। घटना की गंभीरता को देखते हुए नागझिरी पुलिस ने 24 घण्टे के भीतर दोनों बदमाशों को धरदबोचा और सडक पर जुलूस निकाल दिया। इंदौर की इस लोमहर्षक वारदात के बाद भी गुरुजनों पर हमलों का सिलसिला थमा नहीं। उज्जैन में शा. विधि महाविद्यालय में प्रोफेसर पर हमले की घटना हुई। कॉलेज में परीक्षा खत्म होते ही प्रोफेसर कॉलेज के बाहर आए तो उनके निकलते ही चेहरे पर कपडा बांधकर आए कुछ बदमाशों ने उन्हें रोका और लात-घूसों से पीटना शुरू कर दिया। साथी प्रोफेसरों ने बचाने की कोशिश की तो उन्हें भी अपशब्द कहे और धमकी दी थी। इस दौरान प्रोफेसरों ने बदमाशों की तस्वीर खींच ली थी और पुलिस को सूचित कर दिया था। लेकिन नतीजा ठन-ठन गोपाल।
उज्जैन में प्रो. हरभजन सिंह सभरवाल की हत्या की गुत्थी जहां आज तक नहीं सुलझ सकी है। गोरखपुर में हुई वारदात की गुत्थी भी शायद ही कभी सुलझ पाए। ये गुत्थियां सुलझाने के लिए उलझती ही नहीं हैं। पुलिस और सरकार के पास करने के लिए बहुत से काम होते हैं। कौन कुलपतियों, रजिस्ट्रारों, प्रोफेसरों को पिटने से बचाए? गोरखपुर विश्वविद्यालय की घटना की तुलना मणिपुर की हिंसक वारदातों से नहीं की जा सकती, किन्तु इस घटना और मणिपुर की घटनाओं में कोई ज्यादा अंतर नहीं है। इस तरह की हिंसक वारदातें जहां भी हो रही हैं वहां संयोग से डबल इंजन की सरकारें हैं। यदि यही वारदातें दूसरी पार्टी की सरकारों के रहते हुई होतीं तो मगरमच्छ मिलकर अब तक इतना विलाप करते कि आपका दिल भी रो पडता।
विश्वविद्यालय परिसरों में नेतागीरी करने वाले लोग ही बाद में राजनीति की मुख्यधारा का हिस्सा बनते हैं, इसलिए इन्हें यहीं संस्कारित किया जाना चाहि। छात्र नेता और छात्र संगठनों के कार्यकर्ता यदि शुरू से ही हिंसा की सीख लेकर आगे बढ़ेंगे तो कल्पना कर लीजिए कि देश की भावी राजनीति का परिदृश्य कैसा होगा? अब देखना होगा कि गोरखपुर वाले इस गोरखधंधे को लेकर क्या रुख अपनाते हैं? पुलिस तो ऐसे मामलों में सत्ता के इशारों पर काम करती है। एक जमाने में छात्र संगठन इंकलाब की पहली जरूरत होते था। देश के असम में छात्र आंदोलन से ही तब्दीली आई थी। देश में आपातकाल के खिलाफ भी आंदोलन का शंखनाद छात्र आंदोलन से ही हुआ था। कहने का आशय ये है कि छात्रशक्ति को यदि दिशा दी जाए तो ये ही लोग परिवर्तन के संवाहक बन सकते हैं, अन्यथा इन्हें हिंसक होने में कितनी देर लगती है?