आदिवासियों के पद-प्रच्छालन की राजनीति

– राकेश अचल


मध्य प्रदेश में आदिवासियों के सर पर मूत्र विसर्जन करने के बाद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह द्वारा पीडित के पद-प्रच्छालन से भाजपा के पाप धुलने वाले नहीं हैं। आदिवासियों के अपमान का प्रायश्चित करने के लिए भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को इस बार विधानसभा चुनाव के पहले ये घोषणा करना चाहिए कि यदि भाजपा सत्ता में आई तो मप्र का अगला मुख्यमंत्री आदिवासी होगा। आदिवासियों को अब तक किसी राजनीतिक दल ने मुख्यमंत्री या प्रदेश का अध्यक्ष नहीं बनाया है।
मप्र देश का दूसरा बडा आदिवासी राज्य है, लेकिन पिछले 67 वर्ष में न कांग्रेस ने और न भाजपा ने किसी भी आदिवासी को मप्र की कमान सौंपने की जरूरत नहीं समझी। दोनों प्रमुख दल आदिवासियों को ‘वोट बैंक’ की तरह ही इस्तेमाल करते आ रहे हैं, इन दोनों दलों ने आदिवासियों के नेतृत्व को उभरने ही नहीं दिया। दोनों ने मिलकर आदवासी नेतृत्व की हमेशा भ्रूण हत्या की, इसलिए दोनों ही आदिवासियों का हक मारने के अपराधी हैं। विसंगति ये है कि इस अक्षम्य अपराध के लिए न तो इनके खिलाफ एनएसए के तहत कार्रवाई की जा सकती है और न इनके ऊपर बुलडोजर चलाए जा सकते हैं।
मप्र के सात संभागों और 20 जिलों में आदिवासी आबादी रहती है। संख्या की दृष्टि से देखें तो प्रदेश की 21 फीसदी आबादी आदिवासियों की है और हर पांचवां व्यक्ति आदिवासी समुदाय से आता है। आदिवासियों के कल्याण के लिए प्रदेश के बजट का एक चौथाई बजट भी खर्च किया जाता है, किन्तु आदिवासियों का कल्याण हो ही नहीं पाता। आज भी राजनीतिक दलों के बाहुबली कार्यकर्ता उनके सर पर मूत्र विसर्जन कर सकते हैं या उन्हें मैला खिला सकते हैं। राजनीतिक दलों ने बीते सात दशकों में आदिवासियों को पनपने ही नहीं दिया। वे जहां थे, वहीं खडे हैं। उनका इस्तेमाल नेताओं के लिए आज भी वोट बैंक से ज्यादा नहीं है।
आदिवासियों के हकों पर कुठाराघात करने की साजिश का पता लगना हो तो आपको मप्र में अब तक बनाए गए मुख्यमंत्रियों की फेहरिस्त पर नजर डालना होगी। मप्र के गठन के बाद से तक जितने भी मुख्यमंत्री बनाए गए उनमें से एक भी आदिवासी नहीं है। जब मप्र विधानसभा नहीं थी तब अवधेश प्रताप सिंह, शंभुनाथ मेहता और शंभूनाथ शक्ल आदिवासी बहुल सूबे के मुखिया थे और जब मध्यभारत बना तो लीलाधर जोशी, गोपीकृष्ण विजयवर्गीय, तख्तमल जैन, मिश्रीलाल गंगवाल के हाथों में नेतृत्व रहा। भोपाल रियासत में डॉ. शंकरदयाल शर्मा प्रधान सेवक थे। यानि आजादी से पहले और आजादी मिलने तक एक भी आदिवासी नेतृत्व विकसित ही नहीं होने दिया गया। सब सवर्णों के हाथ में रहा।
मप्र का गठन 1956 में हुआ तो मप्र की कमान पं. रविशंकर शुक्ल को सौंपी गई। वे गए तो भगवंत राव मंडलोई मुख्यमंत्री बनाए गए, मंडलोई हटे तो पं. कैलाशनाथ काटजू मुख्यमंत्री बना दिए गए। काटजू साहब हटे तो फिर मंडलोई आ गए। मंडलोई हटे तो पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र को मुख्यमंत्री बना दिया गया, गोविन्द नारायण सिंह हटे तो नरेशचंद्र सिंह को मौका दे दिया गया। मिश्र जी राजमाता विजयाराजे सिंधिया के कोप का शिकार बने तो ठाकुर गोविन्द नारायण सिंह मुख्यमंत्री बना दिए गए। सिंह साहब की छुट्टी हुई तो फिर से पं. श्यामाचरण शुक्ल मुख्यमंत्री बना दिए गए। शुक्ल जी हटे तो सेठ प्रकाशचंद्र सेठी मुख्यमंत्री बन गए। सेठी जी हटे तो फिर से श्यामाचरण शुक्ल को ही मौका दिया गया। यानि कांग्रेस को 1956 से 1977 तक एक भी ऐसा आदिवासी नेता नहीं मिला जो प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया जा सके।
श्यामाचरण शुक्ल के बाद 54 दिन के राष्ट्रपति शासन के बाद जब जनता पार्टी सत्ता में लौटी तो उसने भी सबसे पहले गैर आदिवासी यानि पं. कैलाश जोशी को मुख्यमंत्री बनाया। जोशी गए तो वीरेन्द्र सखलेचा आ गए। सखलेचा गए तो सुंदरलाल पटवा आ गए, लेकिन कोई आदिवासी नहीं आ पाया। जनता सरकार गिराकर राष्ट्रपति शासन लगाया गया और 113 दिन के राष्ट्रपति शासन के बाद जब फिर से विधानसभा के चुनाव हुए और कांग्रेस सत्ता में वापस लौटी तो उसे भी कोई आदिवासी मुख्यमंत्री पद के लायक नहीं मिला। कांग्रेस ने ठाकुर कुंवर अर्जुन सिंह को मुख्यमंत्री बना दिया। आदिवासियों के नेता शिवभानु सिंह सोलंकी जीवन पर्यन्त हासिये पर रखे गए। उन्हें उप मुख्यमंत्री बनाकर आदिवासियों पर पहली बार अहसान किया गया। आदिवासी नेता जमुना देवी के साथ भी यही दुभांति हुई।
कांग्रेस ने अर्जुन सिंह को हटाकर मोतीलाल वोरा को मुख्यमंत्री बना दिया। वोरा हेट तो फिर अर्जुन सिंह ही मुख्यमंत्री बनाए गए। क्योंकि कांग्रेस को कोई आदिवासी नेता फिर नजर नहीं आया। आदिवासियों का हक मारने का ये अखण्ड खेल लगातार चला। अर्जुन सिंह फिर गए तो फिर वोरा आए। वोरा गए तो फिर श्यामाचरण शुक्ला आए। नवगठित भाजपा को जब पहली बार मौका मिला तो उसने भी सत्ता की बागडोर किसी आदिवासी को सौंपने के बजाय सुंदरलाल पटवा को ही मुख्यमंत्री बनाकर आदिवासियों को ठेंगा दिखा दिया। 355 दिन के राष्ट्रपति शासन के बाद जब विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की वापसी हुई तो एक बार फिर ठाकुर राजा दिग्विजय सिंह आदिवासी बहुल मप्र के मुख्यमंत्री बने। उन्होंने एक दशक राज किया और फिर जब 2003 में भाजपा ने उन्हें सत्ताच्युत किया तो सुश्री उमा भारती मुख्यमंत्री बनाई गईं। भाजपा की वापसी के बाद भी आदिवासियों की किस्मत नहीं खुली। उमा भारती गईं तो बाबूलाल गौर आ गए। वे गए तो शिवराज सिंह चौहान आ गए। लेकिन कोई आदिवासी सत्ता के शिखर तक नहीं पहुंचने दिया गया। यानी आदिवासियों का हक मारने में कांग्रेस और भाजपा का चरित्र एक जैसा ही रहा।
भाजपा के डेढ दशक के राज को समाप्त कर 2018 में जब कांग्रेस सत्ता में वापस लौटी तो कांग्रेस ने भी मुख्यमंत्री का पद किसी आदिवासी विधायक को सौंपने के बजाय खत्री कमलनाथ को सौंप दिया। कमलनाथ की सरकार का तख्ता पलटा गया तो फिर से आदिवासी विरोधी भाजपा ने शिवराज सिंह चौहान को ही मुख्यमंत्री बना दिया। जिनके राज में आदिवासी के सिर पर पेशाब की गई, दलितों को मैला खिलाया गया, लेकिन उन्होंने पीडित आदिवासी के पांव पखार कर अपने और अपने पार्टी के तमाम पाप धो लिए। सवाल ये है कि क्या भाजपा के पाप सचमुच धुल गए? क्या कांग्रेस अपने आदिवासी विरोधी चरित्र के बावजूद पूर्ण सत्ता में वापस आ सकती है? क्या आदिवासी बहुल मप्र में अगला मुख्यमंत्री आदिवासी बनाए जाने की गारंटी कोई राजनितिक दल दे सकता है? जबाब आएगा नहीं। और बात यहीं आकर रुक जाती है।
मप्र के आदिवासी पिछले 67 साल में नींद की गोली खिलाकर सुलाए जाते रहे हैं। क्या उन्हें नींद से जगाने के लिए आदिवासियों में से कोई नेतृत्व उभरने दिया जाएगा या फिर से साजिश कर आदिवासियों के नेतृत्व की भ्रूण हत्या कर दी जाएगी? प्रदेश में हर बार 47 आदिवासी विधायक चुनकर आते हैं। किसी भी दल को सत्ता में लाने में आदिवासियों की ही प्रमुख भूमिका होती है। आदिवासियों के बाद अनुसूचित जातियों का नंबर आता है, 33 विधायक अनुसूचित जातियों के भी चुने जाते हैं, किन्तु कोई भी राष्ट्रीय दल इन दोनों समुदायों को शीर्ष तक नहीं पहुंचने देता। दोनों की मानसिकता आदिवासी और अनुसूचित जाति विरोध के मामले में एक जैसी है। कांग्रेस और भाजपा ने 75 साल में अपनी मानसिकता नहीं बदली। आज के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी आदिवासियों को मुख्यमंत्री पद देने की गारंटी नहीं दे पा रहे। उनकी पार्टी ने श्रीमती द्रोपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद तक पहुंचकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान ली है। अब वक्त है कि आदिवासी इस षडयंत्र को समझें और अपने बाजिव हक के लिए कांग्रेस और भाजपा दोनों से लडें।