हर मुद्दे पर विवाद की आदत अनुचित

– राकेश अचल


हमारा देश कृषि प्रधान देश नहीं बल्कि विवाद प्रधान देश है। हमारे भाग्य विधाता, हमारी प्रेस, हमारे नेता, हमारे राजनीतिक दल और उनके अनुषांगिक संगठन देश में नित नए विवाद पैदा करने में सिद्धहस्त हैं। यदि विवाद बिकते होते तो हम शायद दुनिया के सबसे बड़े विवाद निर्यातक होते। ये बात मैं हाल ही में गीता प्रेस को दिए गए शांति पुरस्कार को लेकर खड़े किए जा रहे विवाद को लेकर कह रहा हूं। हालांकि विवाद तो अभी मनोज मुंतशिर के लेखन को लेकर भी चल ही रहा है।
मनोज मुंतशिर भले ही स्थापित फिल्मकार और कवि हो गए हों, किन्तु मेरी दृष्ट में वे अभी भी एक अपरिपक्व, अतिउत्साही युवक हैं। उन्हें गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है। मनोज की विवादास्पद फिल्म ‘आदिपुरुष’ ने विवाद के बावजूद तीन दिन में 340 करोड़ रुपए का राजस्व पूरी दुनिया से कमाया है। विवाद के साथ ही ये मनोज की एक उपलब्धि है। इसी की बिना पर मनोज मुंतशिर को मुंबई पुलिस ने उन्हें सुरक्षा मुहैया कराई है। हालांकि उसी मुंबई में हिन्दू संगठन ने एक सिनेमा हॉल में शो रुकवा दिया। मनोज मुंतशिर को अपने लेखन के जरिये विवादास्पद होकर अपने दाम बढ़ाने थे सो बढ़ गए, लेकिन वे न कभी साहित्यकार माने जाते थे और न माने जाएंगे। उनकी तुलना राही मासूम रजा या दूसरे साहित्यकारों से करना भी अन्याय है। लखनऊ में भारतीय किसान यूनियन ने फिल्म के डायरेक्टर ओम राउत और राइटर मनोज मुंतशिर के पुतले जलाए। भाकियू को लगता है कि यह फिल्म सनातन धर्म का मजाक उड़ाने के लिए बनाई गई है। फिल्म के डायलॉग बदलने से कुछ नहीं होगा। फिल्म को ही बैन कर देना चाहिए।
मेरे ख्याल से मनोज मुंतशिर को माफ कर देना चाहिए, क्योंकि वे जितना जानते थे उतना ही काम कर पाए हैं। भारतीय दर्शन और भारतीय नायकों को समझना और उन्हें परदे पर उतारना उतना आसान काम नहीं है जितना समझा जाता है। तकनीकी क्रांति के बावजूद आप किसी फिल्म में वो सब शामिल नहीं कर सकते, जिसकी अपेक्षा की जाती है। मनोज ने ये फिल्म को सनातन धर्म का मजाक बनाने के लिए नहीं अपितु धन कमाने के लिए बनाई है और ये काम फिल्म बाखूबी कर रही है। कुछ दिनों में इस आदिपुरुष विवाद की भी हवा निकल जाएगी। प्रधानमंत्री के अमेरिका दौरे के बाद मुमकिन है कि कोई नया विवाद पैदा हो जाए। मुझे हैरानी तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता वाली कमेटी द्वारा गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार 2021 के लिए चुने जाने पर शुरू हुए विवाद को लेकर है। गीता प्रेस को एक न्यास संचालित करता है। न्यास ने पुरस्कार को स्वीकार कर लिया है, लेकिन इससे मिलने वाली एक करोड़ की धनराशि लेने से इन्कार कर दिया है। न्यास का कहना है कि गीता प्रेस किसी तरह का दान नहीं लेता है। कांग्रेस को पता नहीं क्यों इस पुरस्कार पर आपत्ति है। कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने कहा कि केन्द्र का यह फैसला सावरकर और नाथूराम गोडसे को सम्मान देने जैसा है, क्योंकि गीता प्रेस और गांधी के बीच राजनीतिक और धार्मिक एजेण्डे को लेकर कई वैचारिक मतभेद थे।
कांग्रेस को महात्मा गांधी और गीता प्रेस के धार्मिक एजेण्डे को लेकर विवाद तो याद रहे, किन्तु वे भूल गए कि गीता प्रेस या गीता मुद्रणालय, विश्व की सर्वाधिक हिन्दू धार्मिक पुस्तकें प्रकाशित करने वाली संस्था है। भले ही आज की पीढ़ी गीता प्रेस के बारे में ज्यादा न जानती हो किन्तु आजादी के पहले और आजादी के बाद की अनेक पीढिय़ां गीता प्रेस और उसके काम को जानती है। एक जमाना था जब घर-घर में गीता प्रेस के प्रकाशन किसी न किसी रूप में उपस्थित रहते थे। गांधी से वैचारिक असहमति के बाद भी गीता प्रेस की लोकप्रियता पर कोई असर नहीं पड़ा था। भारत में घर-घर में रामचरितमानस और भगवद् गीता को पहुंचाने का श्रेय गीता प्रेस को जाता है। ये काम न गांधी कर पाए और न आरएसएस और न भाजपा। जैसे आज देश के गांव, मजरों तक कोकाकोला की उपलब्धता है, उसी तरह आज भी गीता प्रेस के प्रकाशन भारत के हर गांव-मजरे में उपलब्ध हैं, वो भी बिना किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी जैसे विपणन नेटवर्क के। एक जमाने में जिस घर में गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित कल्याण (हिन्दी मासिक) नहीं होता था उस घर को अधूरा माना जाता था। करीब 90 साल पहले 1923 में जयदयाल गोयनका द्वारा स्थापित गीता प्रेस अब तक 45.45 करोड़ से भी अधिक प्रतियों का प्रकाशन कर चुकी है है। इनमें 8.10 करोड़ भगवद् गीता और 7.5 करोड़ रामचरित मानस की प्रतियां हैं। गीता प्रेस में प्रकाशित महिला और बालोपयोगी साहित्य की 10.30 करोड़ प्रतियों पुस्तकों की बिक्री हो चुकी है। ये तब है जब अनेक राजाओं-महाराजाओं और सिंगल-डबल इंजिन की सरकारों द्वारा स्थापित छापाखाने बंद हो चुके हैं, लेकिन गीता प्रेस जीवित है। गीता प्रेस के शांति स्थापना में योगदान को केवल इसलिए नहीं नकारा जा सकता कि उसके गांधीजी से वैचारिक मतभेद थे।
गीता प्रेस का अपना मिशन है और गांधीजी का अपना मिशन था। गीता प्रेस का मिशन आरएसएस और भाजपा का मिशन नहीं है। ये महज संयोग है कि आज उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जिस शहर से हैं, उसी गोरखपुर में गीता प्रेस है और योगी उसके वर्तमान संरक्षक भी हैं। गीता प्रेस ने केवल हिन्दी पट्टी के लिए काम नहीं किया। आपको बता दूं कि गीता प्रेस के कुल प्रकाशनों की संख्या 1600 है। इनमें से 780 प्रकाशन हिन्दी और संस्कृत में हैं। शेष प्रकाशन गुजराती, मराठी, तेलुगू, बांग्ला, उडिय़ा, तमिल, कन्नड़, अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं में हैं। रामचरित मानस का प्रकाशन नेपाली भाषा में भी किया जाता है। आज जब देश के बड़े उद्योग समूहों द्वारा प्रकाशित की जाने वाली पत्रिकाएं धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, दिनमान आदि का खिन अता-पता नहीं है, तब भी गीता प्रेस की मासिक पत्रिका कल्याण जीवित है। कल्याण की लोकप्रियता कुछ अलग ही है। ऐसी धारणा है कि रामायण के अखण्ड पाठ की शुरुआत कल्याण के विशेषांक में इसके बारे में छपने के बाद ही हुई थी। कल्याण की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि शुरुआती अंक में इसकी 1600 प्रतियां छापी गई थीं, जो आज बढक़र 2.30 लाख पर पहुंच गई हैं। गरुड़, कूर्म, वामन और विष्णु आदि पुराणों का पहली बार हिन्दी अनुवाद कल्याण में ही प्रकाशित हुआ।
गीता प्रेस को राजनीति से जोडऩा अन्यायपूर्ण है, क्योंकि गीता प्रेस न किसी सरकार से अनुदान लेती है और न ही किसी राजनितिक दल के लिए काम करती है। उसने न कांग्रेस का प्रचार किया और न भाजपा का। गांधीजी से वैचारिक मतभेद का अर्थ ये कदापि नहीं हो सकता कि गीता प्रेस सावरकर और गोडसे जैसी संस्था हो गई। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े को इस बारे में स्थिति स्पष्ट करना चाहिए। क्योंकि गीता प्रेस को पुरस्कृत करना और कश्मीर फाइल को प्रचारित करना दो अलग-अलग विषय हैं। राजनीति अपनी जगह है और गीता प्रेस अपनी जगह। हम राजनीति पर गर्व करें या न करें किन्तु गीता प्रेस पर गर्व कर सकते हैं। क्योंकि गीता प्रेस बीती एक सदी से जो काम कर रही है उसे कोई सरकार नहीं कर पाई। कर भी नहीं सकती। अंतत: राजनीतक दलों के चश्मे बदलते जो रहते हैं।