दीपक जोशी की बगावत के निहितार्थ

– राकेश अचल


पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी के बेटे और पूर्व मंत्री दीपक जोशी के भाजपा छोड़ कांग्रेस में शामिल होने के बाद क्या भाजपा में बगावत की आग और भडक़ सकती है? भाजपा के प्रबंधक लगातार इस आग को भडक़ने से रोकने की कोशिश कर रहे हैं, क्योंकि ये आग भाजपा के खिलाफ कम, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के खिलाफ ज्यादा है।
दीपक जोशी एक संस्कारवान भाजपा नेता थे और अब कांग्रेस में हैं। नेता किसी भी दल में रहे वो नेता ही रहता है, कार्यकर्ता नहीं। दीपक जोशी का दर्द पार्टी में केवल अपनी उपेक्षा नहीं बल्कि कोरोनाकाल में अपनी पत्नी की बीमारी के समय शासन की और से न मिलने वाली अपेक्षित मदद भी है। जोशी ने अपनी पत्नी की मृत्यु के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को सीधे तौर पर जिम्मेदार माना है। मैं भाजपा में ऐसे बहुत से लोगों को जानता हूं जिन्होंने कोरोना काल में अपने परिजनों को खो दिए। उन सबका दर्द दीपक जोशी जैसा ही है। किसी को समय पर आक्सीजन नहीं मिली थी तो किसी को इंजेक्शन।
दीपक जोशी किसी मिशनरी स्कूल में नहीं पढ़े, वे सरकारी स्कूल से पढक़र आगे निकले हैं। उन्होंने अपने पिता के मुख्यमंत्री होने का वैसा लाभ कभी नहीं लिया जैसा की आज के मुख्यमंत्री के बेटे ले रहे हैं। दीपक की राजनीतिक विरासत डम्परों की नहीं बल्कि ईमानदारी की रही है और इसी के आधार पर वे चुनाव जीते थे तथा मंत्री बनाए गए थे। पार्टी में दीपक जोशी की ईमानदार बिरादरी के नेता उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। उन्हें लगता है कि शायद किसी साजिश के तहत दीपक को बुझाने की कोशिश की जा रही है। दीपक की इस आशंका के अनेक आधार हैं और हो सकते हैं।
पिछले एक दशक में मध्य प्रदेश भाजपा में जिस तरिके से एक जाति विशेष और एक तेवर विशेष के नेताओं को हाशिये पर डालने की कोशिश की गई है, उसे देखकर लगता है कि दीपक जोशी भी इसी अभियान का शिकार बनाए गए हैं। भाजपा ने जातीय असंतोष दूर करने के लिए हालांकि वीडी शर्मा को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया किन्तु वे जाति विशेष के असंतोष को दूर नहीं कर सके। आज भाजपा में गिने चुने नेता हैं जो अपनी उपेक्षा के बावजूद मौन हैं। मंत्री गोपाल भार्गव का नाम भी इन्हीं में से एक है।
भाजपा में एक नहीं अनेक दीपक जोशी हैं, जिनका आक्रोश सही समय पर बाहर निकलता दिखाई देगा। इंदौर, ग्वालियर, जबलपुर, रीवा में सभी दूर दीपक जोशी हैं। जो कसमसा रहे हैं। मुमकिन है कि इनमें से कुछ को भाजपा कांग्रेस में जाने से रोक भी ले, किन्तु इस बात की आशंका भी है कि कुछ तो बगावत करेंगे। पूर्व मंत्री अनूप मिश्रा ने पार्टी अनुशासन को धत्ता दिखाते हुए ग्वालियर दक्षिण विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लडऩे की अपनी मंशा सार्वजनिक कर दी है। अनूप मिश्रा भी दीपक जोशी की ही तरह पार्टी में लगातार उपेक्षित हैं, लेकिन उन्होंने अब तक धैर्य बनाया हुआ है। वे भी पार्टी से कम मुख्यमंत्री से ज्यादा खुन्नस खाये हुए हैं।
पूर्व मंत्री दीपक जोशी ने भाजपा में बगावत की जो चिंगारी पैदा की है, वो कब लपटों में बदल जाए कहा नहीं जा सकता। हालांकि भाजपा सतर्क हो गई है, किन्तु भाजपा कि सतर्कता कितनी असरदार साबित होगी ये कहना कठिन है। क्योंकि असंतोष अब वार्ड स्तर पर है और भाजपा की लड़ाई यहीं से शुरू होती है। वार्ड स्तर पर असंतोष का खमियाजा भाजपा ने अभी हाल ही में कर्नाटक के विधानसभा चुनावों में भुगता है। वरना कर्नाटक में तो भाजपा के साथ खुद बजरंगवली ईव्हीएम में बटन दबाने के लिए तैनात किए गए थे।
दरअसल भाजपा पिछले कुछ वर्षों से अपने आपको बनिया और ब्राह्मणों की परिधि से बाहर निकालने की कोशिश में लगी है। भाजपा नेतृत्व ने इसीलिए दलितों और आदिवासियों को लक्ष्य बनाया है। इन नए वर्गों को साधने की कोशिश में ही भाजपा से पुराने वर्ग खिन्न होते नजर आ रहे है। खिन्नता दूरियों की जगह ले रही है और जैसे-जैसे विधानसभा चुनाव नजदीक आएंगे ये दूरियां कम होने के बजाय कुछ ज्यादा ही बढ़ेंगी।
मध्य प्रदेश में ही नहीं बल्कि दूसरे राज्यों में भी कमोवेश स्थिति यही है। नेता और कार्यकर्ता निजी तौर पर अपनी सरकार और मुख्यमंत्री से खफा हैं। शिवराज सिंह चौहान ने तो इस मामले में सभी भाजपा मुख्यमंत्रियों को पीछे छोड़ दिया है। उनके दोस्त कम दुश्मन ज्यादा नजर आ रहे हैं। सरकार चलने पर भी इसका असर दिखाई दे रहा है। उदाहरण के लिए जिस तरह से स्थानीय निकाय चुनाव में उत्तर प्रदेश ने परिणाम दिए वैसे मध्य प्रदेश में नहीं दिए जा सके। मध्य प्रदेश भाजपा में हाल ही में पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती के समर्थक प्रीतम लोधी की वापसी भी इसी का एक उदाहरण है। प्रीतम ने एक जाति विशेष को गरियाने का काम किया था और इसीलिए उन्हें पार्टी से निकाला गया था, लेकिन वापस ले लिया गया। इससे ब्राह्मण वर्ग भीतर ही भीतर नाराज है।
मौजूदा हालात में कांग्रेस भाजपा के असंतुष्ट दीपकों में तेल डालकर उन्हें और उग्र बनाकर अपने साथ लाकर खड़ा कर सकती है। इन दीपकों से भाजपा का तम्बू कब और कहां सुलगने लगे कहना कठिन है। यानि सत्यमेव जयते। बगावत का सत्य जीतेगा या हारेगा, देखने की बात है।

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