@ राकेश अचल
राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले मेरे मित्र रविवार को कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद से ही मुझसे इसरार कर रहे थे कि मैं फौरन कुछ लिखूं। कुछ मुझे उकसा रहे थे, कुछ उलाहना दे रहे थे। मुझे पता था कि किसके मन में क्या है? आज 24 घंटे गुजरने के बाद मैं कर्नाटक के राजनीति नाटक के पटाक्षेप पर लिख रहा हूं। मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा कि एक सभ्य प्रदेश ने देश के लगातार गालियां खाने वाले प्रधानमंत्री नरेंन्द्र मोदी जी की लाज नहीं रखी।
कर्नाटक विधानसभा के चुनाव कांग्रेस और भाजपा के लिए बराबर से महत्वपूर्ण था। कर्नाटक दक्षिण का प्रवेशद्वार है। भाजपा इसी कर्नाटक में सत्तारूढ़ थी और कांग्रेस को यहीं से दक्षिण में प्रवेश करना था। कामयाबी कांग्रेस को मिली। श्रेय कोई भी बांट ले कार्यकर्ता, नेता, प्रबंधक या फायनेंसर। श्रेय बांटने से कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि कर्नाटक में विजय का असली श्रेय तो प्रधानमंत्री जी को ही जाता है। वे इस दशक में नामुमकिन को मुमकिन करने वाले राजनेता है। हम मानें या न मानें लेकिन भाजपा के कार्यकर्ता और नेता उन्हें युगावतार मानते हैं।
मौजूदा दशक में प्रधानमंत्री जी की सबसे बड़ी उपलब्धि ये है कि उन्होंने हर चुनाव अपने ऊपर ओढ़ लिए हैं। यानि लोकसभा का चुनाव हो या विधानसभाओं के चुनाव, प्रधान जी अपने कामकाज और अपने चेहरे पर वोट मांगते हैं। उन्हें वोट मिलते भी हैं। कभी-कभी नहीं मिलते। राजनीति में ये सब चलता है। कभी उनकी बात जनता मान लेती है और कभी नहीं मानती। पिछले कुछ दिनों से उनकी बात नहीं मानी जा रही। पंजाब ने नहीं मानी, हिमाचल ने मानी, दिल्ली की जनता तो मानती ही कहां है? अब कर्नाटक ने भी प्रधान जी की बात मानने से इंकार कर दिया।
भाजपा को इस पराजय से हताश नहीं होना चाहिए। अभी आने वाले दिनों में बहुत से राज्यों में विधानसभा के चुनाव होना है, जहां वो कांग्रेस से अपना हिसाब बराबर कर सकती है। भाजपा इस समय मुद्दों पर नहीं प्रधान जी के चेहरे और पार्टी सरकार के इंजिन पर चुनाव लड़ती है। उसकी बदौलत देश के अनेक राज्यों में डबल इंजिन की सरकारें चल रही हैं। सारा देश जान गया है कि भाजपा की राज्य सरकारें अपने ईंधन और इंजिन से नहीं चल पातीं। चलें भी कैसे? राज्यों के इंजिन में फाल्ट ही फाल्ट आ चुके हैं। कर्नाटक में भी दोनों इंजिन खराब हो चुके थे।
कर्नाटक बेहद खूबसूरत राज्य है, लेकिन इस राज्य को सत्ता ने लूट का केंद्र बना रखा है। कांग्रेस हो, भाजपा हो या जेडीएस हो, जिसे भी जब-जब मौक़ा मिला उसने तब-तब कर्नाटक के प्राकृतिक संसाधनों को इस बेरहमी से लूटा कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। कर्नाटक के नेताओं के पास लूट का इतना धन है कि वे जब चाहते हैं तब राज्य की सत्ता का उलटफेर करा सकते हैं। कर्नाटक भाजपा के लिए भी उतना ही बड़ा फायनेंसर था जितना बड़ा कि कांग्रेस के लिए। भाजपा या कांग्रेस का हर असुरक्षित नेता कर्नाटक में सुरक्षित अनुभव करता है| इंदिरा गांधी से लेकर राहुल गांधी तक, बीच में आप सुषमा स्वराज का नाम भी जोड़ सकते हैं।
बात आजकल की है| कर्नाटक विधानभा चुनाव में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़के के विषाक्त भाषण, राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा और शिवकुमार जैसे नेताओं का पैसा बहुत काम आया। कांग्रेस कार्यकर्ता और आम जनता ने भी भाजपा के झूठ पर झूठ और लूट पर लूट से तंग आकर सत्ता परिवर्तन का मन बना लिया था, जो मतदान के पहले से ही सतह पर दिखाई देने लगा था। कर्नाटक में सबसे अच्छी बात ये रही कि यहां लंगड़ी सरकार नहीं बनी। ‘आपरेशन लोटस’ की जरूरत नहीं पड़ी, लेकिन ये अस्थाई आश्वस्ति है। भविष्य में आपरेशन लोटस काम नहीं करेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। भाजपा के आपरेशन लोटस से देश की हर राजनीतिक पार्टी घबड़ाती है।
कर्नाटक विधानसभा चुनाव परिणाम तो हमारे टीवी चैनलों ने देश की जनता को लगभग कंठस्थ करा दिए हैं, इसलिए मैं उनकी बात ही नहीं करता। मैं कहना चाहता हूं कि अब पराजय ने कांग्रेस के बाद भाजपा का घर भी देख लिया है। ये भाजपा के लिए शुभ लक्षण नहीं है। भाजपा का देश को कांग्रेस विहीन करने का अभियान खतरे में है। कांग्रेस अमीबा की तरह एक कोशकीय राजनीतिक दल होने के बावजूद मर-मर कर जी उठती है। इस तरह तो भाजपा को कम से कम 50 साल दिल्ली की सत्ता पर काबिज रहना पडे़गा, लेकिन क्या ऐसा होना मुमकिन है?
अतीत में झांकर देखिए, तो आपको पता चलेगा कि आजादी के बाद यानि 1947 से 1983 तक कांग्रेस ने कर्नाटक में लगातार सरकार बनाई और चलाई। यानि कांग्रेस ने 36 साल में कर्नाटक को 11 मुख्यमंत्री दिए। कांग्रेस के कुशासन या सुशासन के बाद 1985 से 1989 तक जनता पार्टी की सरकार रही और इन पांच साल में जनता दल ने तीन मुख्यमंत्री बना दिखाए। 1989 से 1994 तक कांग्रेस फिर सत्ता में लौटी और उसने फिर कर्नाटक को तीन मुख्यमंत्री दिए। 1994 से 1999 तक जनता दल को फिर मौक़ा मिला इस बीच दो मुख्यमंत्री राज्य को मिले। 1999 में कांग्रेस ने फिर सत्ता में वापसी की और 2006 तक राजसत्ता पर अपना कब्जा रखा और दो और मुख्यमंत्री राज्य को दिए लेकिन 2006 में जनतादल (एस) के कुमार स्वामी सत्ता में आए और एक ही साल में चारों खाने चित हो गए।
कर्नाटक के राजनीतिक परिदृश्य में भाजपा का उदय 2007 में हुआ और 2013 तक भाजपा सत्ता में तो रही लेकिन उसे चार मुख्यमंत्री बदलना पड़े। हारकर राज्य की जनता ने एक बार फिर कांग्रेस के सिद्धारमैया को अपना भाग्य विधाता चुन लिया। कांग्रेस राज्य में 2013 से 2018 तक पूरे पांच साल सत्ता में रह। 2018 में भाजपा ने फिर वापसी की लेकिन उसे मजबूरी में जेडीएस के कन्धों पर सत्ता का जुआ रखना पड़ा। भाजपा ने कुछ ही दिनों बाद जेडीएस को सत्ताच्युत कर फिर से अपनी सरकार बना ली और तब से अब तक भाजपा ही सत्ता में थी। पांच साल में चार मुख्यमंत्री बदलने के लिए मजबूर भाजपा को ऐसे में सत्ताच्युत करने के लिए कांग्रेस से ज्यादा भाजपा खुद जिम्मेदार है।
मुझे हैरानी है कि बीते रोज पूरे दिन गला फाड़-फाड़कर चुनाव परिणामों की रिपोर्टिंग करने वालों और बहस करने वालों ने इस बिंदु पर कोई बात नहीं की। यदि भाजपा बीते पांच साल में सुशासन देती तो कोई माई का लाल उसे सत्ताच्युत नहीं कर सकता था। लेकिन राज्य में भाजपा की लूटपाट ने सब गुड़ गोबर में बदल दिया। अब भाजपा के लिए अगले पांच साल के लिए दक्षिण के द्वार बंद हो चुके है। भाजपा को पूर्व में प्रवेश मिला था लेकिन वहां भी भाजपा नाकाम हुई। उसके हाथों में पहुंचा मणिपुर कैसे धूं-धूं कर जल रहा है, पूरा देश और दुनिया देख रही है।
कर्नाटक की जनता ने दम तोड़ती कांग्रेस को आक्सीजन दी है। अब ये कांग्रेस पर है कि वो इस आक्सीजन के सहारे अपने आपको वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव तक स्वस्थ्य बनाने की कोशिश करे। अन्यथा उसे मिला ये अवसर दोबारा से हाथ आने वाला नहीं है। इस जीत में राहुल या प्रियंका से ज्यादा राज्य की जनता को श्रेय जाता है, क्योंकि जनता भाजपा से आजिज आ चुकी थी|
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