फिल्मों के जरिये वार पर रार

@ राकेश अचल


देश की आजादी के अमृतकाल में बहुत कुछ ऐसा हो रहा है जो पहले नहीं हुआ, अब सियासी लड़ाई के लिए फिल्मों का इस्तेमाल किया जा रहा है| फिल्मों के प्रदर्शन और रोक को लेकर सरकारें और फिल्म निर्माता एक-दूसरे पर हमलावर हैं और राजनीतिक दल समारोह पूर्वक ऐसी विवादास्पद फिल्मों को देखने-दिखाने के अभियान में लगे हैं जो सच के नाम पर घृणा पैदा कर रही हैं|
फिल्मों के जरिए राजनीतिक लाभ-हानि का गणित पुराना है, लेकिन आजादी के अमृतकाल में ये प्रयोग घातक ही नहीं बल्कि संघातक बन गया है| एक जमाने में ‘किस्सा कुर्सी का’ के जरिये राजनीति की शुरुआत हुई थी, ‘किस्सा कुर्सी का’ के बाद ‘आंधी’ बनी, गांधी बनी, गोडसे ने गांधी को क्यों मारा बनी| सबसे ज्यादा विवादास्पद फिल्म बनी ‘दी कश्मीर फाइल्स’, देश के प्रधानमंत्री जी ने तक इस फिल्म के निर्माता को अपने घर बुलाकर सम्मानित किया| ‘दी कश्मीर फाइल्स’ से न कश्मीर को कुछ फायदा हुआ और न कश्मीरियों को, फायदा हुआ सत्तारूढ़ भाजपा को| भाजपा को समझ में आ गया कि फ़िल्में भी सियासत में कुर्सी से चिपके रहने और घृणा फैलाओ अभियान में काम आ सकती हैं| यानि इस काम के लिए स्वयं सेवकों की ऊर्जा खर्च करने की जरूरत नहीं है|
सरकार की परोक्ष शह से कर्नाटक विधानसभा चुनाव से ठीक पहले ‘केरल स्टोरी’ चर्चा में है| भाजपा शासित अनेक सरकारों ने इस फिल्म को कर मुक्त कर दिया है, अनेक भाजपा सरकारों के मंत्री इस फिल्म को अपने कार्यकर्ताओं को मुफ्त में दिखने के लिए वैसे ही ठठकर्म कर रहे हैं जैसे कि ‘मन की बात’ का सौवां एपिसोड सुनवाने के लिए किए गए थे| इस फिल्म के चुनाव पूर्व प्रदर्शन से भाजपा को कितना लाभ और कांग्रेस को कितना नुकसान होगा इसका पता चुनाव परिणाम आने के बाद ही चल पाएगा, किन्तु अभी ये पता चल गया है कि घृणा फैलाओ अभियान के लिए फ़िल्में एक घातक औजार बन चुकी हैं|
पश्चिम बंगाल की सरकार ने ‘केरला स्टोरी’ के प्रदर्शन को प्रतिबंधित कर दिया है, फिल्म के निर्माता इसके खिलाफ अदालत जाएंगे| जाना भी चाहिए, क्योंकि किसी फिल्म का प्रदर्शन रोकना फांसीवादी तरीका ही माना और कहा जाता है| अगर बंगाल के लोग इस फिल्म को देख लेंगे तो कोई आफत आने वाली नहीं है| फिल्मों से आफत आती भी नहीं है, हां आफत आने का डर जरूर लगता है| ऐसी राजनीतिक एजेंडे के तहत बनने वाली फिल्मों से फिल्मकार मालामाल हो जाता है और दर्शक ठगे जाते हैं| वे समझ ही नहीं पाते कि ये फिल्म आखिर किस मकसद से बनाई और दिखाई गई?
आजादी के प्रारम्भिक दौर में चरित्र आधारित फ़िल्में बनती थीं, कुछ फ़िल्में सरकार की परिवार नियोजन नीति के समर्थन में बनीं, समाजवाद को लेकर फ़िल्में बनीं, जातिवाद के खिलाफ फ़िल्में बनीं, लेकिन उनके लिए न किसी राजनीतिक दल ने प्रचार किया और न किसी सरकार ने|ये फ़िल्में सामाजिक सरोकारों के लिए बनाई गईं, न कि राजनीतिक सरोकारों के लिए| तब की सरकारों को इस बात का अंदाजा ही नहीं था कि फिल्मों के जरिये राजनीतिक सरोकार भी साधे जा सकते हैं| सच के नाम पर बीभत्स और झूठ परोसने वाली फिल्मों का देश में अच्छा खासा बाजार है| फिल्म निर्माताओं ने इस बाजार को पहचान लिया है, आज वे भाजपा के लिए फ़िल्में बना रहे हैं और कल मुमकिन है कि वे कांग्रेस समेत अनेक राजनीतिक दलों के लिए भी ऐसी ही फ़िल्में बनाने लगें|
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का लाभ उठाते हुए ऐसी विवादास्पद फ़िल्में आराम से बनाई और बेची जा सकतीं हैं, आर्टिकल 370 भी एक ऐसी ही फिल्म थी, सरकारें इन्हें करमुक्त करने के लिए हमेशा तैयार दिखाई देती हैं| गनीमत है कि इस समय ज्यादातर फिल्म अभिनेता भाजपा की और से संसद में हैं| अक्षय कुमार जैसे अभिनेता और निर्माता बड़ी ही हिकमत अमली से सरकार के लिए सिनेमा बनाकर अपनी जेबें भर लेते हैं| उन्हें राष्ट्रवादी होने का खिताब मुफ्त में मिलता है| एक जमाने में मनोज कुमार साहब ये काम बड़ी ही खूबसूरती से करते थे, उन्हें उन दिनों भारत कुमार कहा जाता था|
बहरहाल बात ये है कि क्या इस तरह की राजनीतिक एजेंडे वाली फिल्मों के निर्माण का सिलसिला कभी रुकेगा या और तेज होगा| मुझे कभी-कभी लगता है कि आने वाले दिनों में इस तरह की फिल्मों की बाढ़ आ सकती है| यदि कांग्रेस को मौक़ा मिला तो वो ‘दी गुजरात फाइल्स’ या ‘डम्पर काण्ड’ या ‘हनी ट्रेप ‘ नाम से फ़िल्में बनाकर जनता को दिखा सकती है| दरअसल फिल्मों की कहानी और संवाद जनता पर सीधा असर करते हैं, नेताओं के भाषणों से भी ज्यादा| ऐसा इसलिए होता है क्योंकि दर्शक अवचेतन में फिल्म से सीधे जुड़ जाता है| वो भूल जाता है कि वो फिल्म देख रहा है न कि कोई सत्यकथा पढ़ रहा है|
कला के किसी भी माध्यम की उन्नति और अवनति उसके इस्तेमाल के तरीके और मकसद पर निर्भर करती है| मैं पिछले दिनों नेटफ्लिक्स पर एक फिल्म देख रहा था जो देश के पूर्वी सीमावर्ती भाग में पृथकतावादी आंदोलन को लेकर बनी थी| फिल्म का नाम शायद अनेक था| बड़ी अच्छी फिल्म बनी थी, लेकिन कोशिश वही सरकार के महिमा मंडन की थी| इस तरह की फिल्में तात्कालिक रूप से राष्ट्रवाद का ज्वार पैदा करतीं हैं जो शीघ्र ही फुस्स हो जाता है| क्योंकि दर्शक की समझ में आ जाता है कि उसके साथ छल किया गया, दर्शक की जेब भी कटती है और दिमाग का भी अपहरण करने की कोशिश की जाती है|
राजनीतिक एजेंडे के तहत फिल्मों का निर्माण रोका नहीं जा सकता, क्योंकि ये राजसत्ता के समर्थन का कारोबार है| सेंसर बोर्ड इस तरह की फिल्मों का कुछ नहीं बिगाड़ सकता| ऐसे में केवल दर्शक का विवेक ही विवेक अग्निहोत्रियों द्वारा की जाने वाली ठगी को रोक सकता है| दर्शक को खुद तय करना पडे़गा कि वे कैसी फ़िल्में देखें और कैसी नहीं| ये दर्शक को ही तय करना है कि वे फिल्मों के जरिये अपना ‘ब्रेनवॉश’ होने दें या नहीं? फ़िल्में ऐसा माध्यम हैं जो चाहें तो कुछ भी कर सकती हैं| हमारे राजनीतिक दलों ने तो रामानंद सागर के टीवी धारावाहिक रामायण और महभारत तक का राजनीतिक इस्तेमाल करने कि घ्रणित कोशिश की, रामानंद सागर ने भी सपने में अपने धारावाहिकों के इस तरह के राजनीतिक इस्तेमाल की कल्पना नहीं की होगी| कभी-कभी फिल्म निर्माता से राजनीतिक एजेंडे के लिए फ़िल्में बनवाई जाती हैं और कभी-कभी ये कोशिश भेड़ चाल में बदल जाती है| इस समय राष्ट्रवादी फिल्मों के नाम पर घृणा फैलाने वाली फिल्मों का दौर है| इन फिल्मों के जरिए हिन्दू-मुस्लिम के बीच एक दीवार खड़ी करने की कोशिश की जा रही है, लेकिन ये दौर भी निकल जाएगा, इसलिए घबड़ाने की नहीं बल्कि सावधान रहने की जरूरत है|जैसे वायु प्रदूषण होता है, ध्वनि प्रदूषण होता है, जल प्रदूषण होता है, वैसे ही इन दिनों फिल्म प्रदूषण बढ़ रहा है, इसे रोकने की जरूरत है, अन्यथा दर्शक का यानि देश का स्वास्थ्य खराब हो सकता है| मर्जी है आपकी कि आप इस फ़िल्मी प्रदूषण को बढ़ने दें या रोकें?

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