सरकारें सिंदूर बेचती हैं

– राकेश अचल


तन होकर मजबूर बेचती हैं
घर से जाकर दूर बेचती हैं

ठगनीं हैं, फुटपाथों पर अपने
सब खट्टे अंगूर बेचती हैं

सत्ता मद में पागल हैं देखो
सरकारें सिंदूर बेचती हैं

बेशर्मी की कोई तो हद हो
ये आंखों का नूर बेचती हैं

बूढी आंखों में झांको देखो
किसके लिए खजूर बेचती हैं

नाम दवा का है लेकिन
कंपनियां नासूर बेचती हैं

भक्तिभाव में डूबी है आखिर
मीरा, तुलसी, सूर बेचती हैं

इन्हें मुनाफे से मतलब है बस
ये सब कुछ भरपूर बेचती हैं