– राकेश अचल
सेवानिवृत्त आईपीएस एनके त्रिपाठी की नई पुस्तक ‘यादों का सिलसिला’ पढने का अवसर मिला। त्रिपाठी जी से मेरा परिचय लगभग कोई 34 साल पुराना है। वे 1975 बैच के आईपीएस अफसर हैं। मेरे परिचय संसार के वे पहले पुलिस अफसर नहीं हैं। पिछले 45 साल की पत्रकारिता की यात्रा में मैंने बहुत से आईएएस और आईपीएस अफसरों से मेलजोल रखा है। 1971 बैच के ही नहीं बल्कि उनसे पुराने अफसरों को भी मैं जानता हूं, लेकिन उनमें से लेखक बिरले ही निकले और जो निकले उन्हें उंगलियों पर गिना जा सकता है।
एनके त्रिपाठी जब ग्वालियर पुलिस अधीक्षक की हैसियत से आए थे तब उनसे मेरी पहली भिडन्त हुई थी 1990 में। लेकिन बाद में उनकी वाकपटुता और दरियादिली ने उनसे मुझे ज्यादा बेबाक बना दिया था। बात 2005 की है जब मैं उनके पास अपनी एक किताब की भूमिका लिखवाने के लिए गया था। तब उन्होंने मुझे टाल दिया था। मेरी किताब चंबल पर थी, इसलिए मैंने भूमिका के लिए उन्हें चुना था। बाद में उनकी ओर से भूमिका मैंने ही लिखी और उन्होंने उसे अपनी स्वीकृति दे दी। लेकिन सेवानिवृत्त के बाद त्रिपाठी ने जब सोशल मीडिया पर लिखना शुरू किया तो मुझे महसूस हुआ कि वे एक कामयाब लेखक हो सकते हैं। उन्होंने बहुत जल्द ये प्रमाणित भी किया किन्तु ऐसा करने में त्रिपाठी जी ने पूरा एक दशक लगा दिया।
त्रिपाठी जी की ये पहली किताब नहीं है, इससे पहले भी उनकी आंग्ल भाषा में एक किताब आ चुकी है, लेकिन उनकी ये नई किताब सबसे अलग है। कोई 68 संस्मरणों की इस किताब में बहुत कुछ ऐसा है जिससे मैं बाबस्ता हूं। इसलिए मैंने ये संस्मरण दो बैठकों में पढ डाले, उनका हर संस्मरण रोचक है, क्योंकि उसमें कोई मिर्च-मसाला नहीं है। हर संस्मरण एकदम सपाट है, बेबाक है। शायद त्रिपाठी जी ने कुछ भी छिपाने की कोशिश नहीं की। एक पुलिस अधिकारी के रूप में विभिन्न जिम्मेदारियां निभाते हुए वे जिन अनुभवों से गुजरे वे रोचक भी है और सूचनाप्रद भी।
‘यादों का सिलसिला’ एक निर्दोष संकलन है। लेकिन इसे यदि अलग-अलग खण्डों में विभाजित किया जाता तो और बेहतर होता। जैसे एसपी के रूप में अलग, डीआईजी के रूप में अलग, आईजी के रूप में अलग। केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति के दौरान की जिम्मेदारियों का अलग खण्ड हो सकता था। विदेश यात्राओं का खण्ड अलग से होता तो सिलसिला और तारतम्य टूटता नहीं। संस्मरण लिखते समय त्रिपाठी जी ने अतिरिक्त सतर्कता ये बरती कि उन्होंने इसे फिक्सशन से बचा लिया। जो जैसा अनुभव किया लिख दिया। मैं अपने अनेक मित्र पुलिस वालों से अनुभवों का संकलन लिखने के लिए कहता रहा हूं लेकिन किसी ने गौर नहीं किया। पन्नालाल जी हो या बीबीएस चौहान या दिनेश जुगरान या अयोध्यानाथ पाठक। कुछ अपने अनुभवों को अपने साथ ले गए और कुछ ने इन्हें सार्वजनिक करने का साहस नहीं जुटाया।
मुझे उम्मीद है कि एनके त्रिपाठी के संस्मरणों का ये खूबसूरत सनकल न सिर्फ पुलिस परिवार के लिए संग्रहणीय होगा बल्कि उनके लिए मार्गदशक का काम भी करेगा। प्रयागराज के अनामिका प्रकाशन ने ‘यादों का सिलसिला’ का आवरण तो आकर्षक बनाया ही है साथ ही मुद्रण और शुद्धि वाचन का विशेष ख्याल रखा है, हां अनुक्रमणिका के हिसाब से बाइंडिंग में गडबडी जरूर हो गई। 262 पृष्ठों कि इस पुस्तक की कीमत मात्र 470 रुपए है लेकिन कुछ ज्यादा है। इसकी कीमत को और कम किया जा सकता था। बहरहाल मुझे उम्मीद है कि ‘यादों का सिलसिला’ संस्मरण पढने वालों के बीच खूब लोकप्रिय होगी। मुझे उम्मीद है कि आने वाले दिनों में त्रिपाठी जी और बहुत कुछ अपने पाठकों को उपलब्ध कराएंगे। मेरी शुभकामनाएं।