– राकेश अचल
वोट चोरी के मुद्दे पर देश का बिखरा विपक्ष पहली बार इतनी मजबूत से प्रकट हुआ है कि सत्ता के होश फाख्ता हो गए हैं। पिछले 11 साल में विपक्ष वोट चुराने वाली बिल्ली के गले में घण्टी बांधने में कामयाब हुआ है। सत्ता में बने रहने के लिए अब एनडीए गठबंधन जो भी योजना बनाता है, उसकी भनक विपक्ष को लग जाती है। ऐसे में विपक्ष सामूहिक रूप से प्रतिकार करने की तैयारी कर लेता है। वोट चोरी की आरोपी केन्द्रीय चुनाव आयोग और सत्तारूढ भाजपा के खिलाफ संसद से सडक तक विपक्षी एकता को देश और दुनिया देख चुकी है।
राहुल गांधी की अगुवाई में बिहार में चल रही वोट अधिकार यात्रा के खिलाफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर मोदी को खुद मोर्चा सम्हालना पड रहा है। किसी भी देश में पार्टी का मुखिया तभी मोर्चा सम्हालता है जब उसके सारे मोहरे पिट जाते हैं। राहुल गांधी की आंधी तूफान में तब्दील होती दिखाई दे रही है। 1974-75 में ऐसी ही आंधी तत्कालीन प्रधानमत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी की कथित तानाशाही के खिलाफ उठी थी। इस आंधी में श्रीमती गांधी की सत्ता का तंबू उखड गया था।
आपातकाल को गुजरे 50 साल ही हुए हैं, लेकिम आज फिर भारत का लोकतंत्र उसी चौराहे पर खडा कर दिया गया था। तब जनता की अगुवाई जेपी यानि जयप्रकाश नारयण ने की थी और अब बिहार से शुरू हुए वोट बचाओ अभियान का नेतृत्व युवा राहुल गांधी कर रहे हैं। कुछ मुद्दों पर कांग्रेश से असहमत आम आदमी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस भी अब यूपीए के साथ है।
विपक्ष की एकत की वजह से लोकसभा का मानसून सत्र पूरे समय बाधित रहा। पूरा एनडीए गठबंधन विपक्ष को प्रतिबंधित नहीं कर पाया। राहुल के साथ दोनों सदनों के 300 सांसद सडक पर निकल आए। ये विपक्षी एकता उपराष्ट्रपति पद के चुनाव से पहले की एकता के मुकाबले ज्यादा मजबूत दिखाई दे रहा है। विपक्ष ने उपराष्ट्रपति पद के चुनाव के लिए सर्वानुमति को नकार कर सरकारी प्रत्याशी सीपी राधाकृष्णन के खिलाफ विपक्षी कांग्रेस ने भी अपना एक साझा प्रत्याशी मैदान में उतार दिया। विपक्ष का प्रत्याशी भी दक्षिण से है और पूर्व न्यायाधीश है, निष्कलंक है।
संख्या गणित यदि साफ न होता तो कुछ भी हो सकता था, लेकिन अब सरकार बैक फुट पर है। विपक्ष अब बगलें झांक रहा है। हाल में ही हुए कॉन्स्टीट्यूशनल क्लब के चुनाव में भाजपा के आधिकारिक प्रत्याशी हार गया था। सवाल ये है कि क्या विपक्ष आत्मा की आवाज और दक्षिणायन होती राजनीति को एक बार फिर इन्द्रधनुषी बना सकता है? दुर्भाग्य कसे भारत में ज्यादातर राजनीतिज्ञों की आत्माएं सो गई हैं। वे झकझोरने पर भी नहीं जागतीं।
एक बात तय है कि यदि भाजपा बिहार विधानसभा चुनाव और उपराष्ट्रपति का चुनाव हारती है तो मध्यावधि चुनाव भी हो सकते है, क्योंकि यदि भाजपा की दो में से एक भी बैसाखी हटती है तो भाजपा लोकसभा भंग करने से नहीं हिचकेगी। भाजपा किसी भी सूरत मे अपनी बैसाखियां कांग्रेस को देना पसंद नहीं करेगी। भाजपा फिलहाल कोई नया जोखिम लेने से बचेगी।
भारत की राजनीति के लिए ये साल निर्णायक हो सकता है। सितंबर में उपराष्ट्रपति का ही नहीं बल्कि आरएसएस के सर संघ चालक और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष का भी चुनाव है। अक्टूबर या नवंबर में बिहार विधानसभा का चुनाव होगा। इसी समय भारत अमेरिका डील भी होना है। ये भी तय होना है कि भारत चीन रूस के साथ जाएगा या अमेरिका के साथ या फिर नेहरू की गुट निरपेक्षता आंदोलन के साथ।