– राकेश अचल
तीसरी बार देश के प्रधानमंत्री बने नरेन्द्र दामोदर दास मोदी को लगातार परेशान कर रहे विपक्ष को सरकार के बजट पर न सही लेकिन राष्ट्रपति भवन के दो पुराने सभागारों के नाम बदलने के लिए संसद में एक राय होकर बधाई देना चाहिए। राष्ट्रपति भवन का दरबार हाल अब गणतंत्र मण्डप और अशोका हॉल अब अशोक मण्डप कहलाएगा। सरकार के इस फैसले से गणतंत्र भी खुश और चक्रवर्ती सम्राट अशोक भी खुश हो गए होंगे, इसलिए विपक्ष को भी खुश होना चाहिए।
देश और दुनिया लगातार देख रही है कि विपक्ष देश की 18वीं संसद में सरकार को चैन की सांस नहीं लेने दे रहा है। बेचारे संसदीय कार्यमंत्री किरण रिजजू से लेकर लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ही नहीं बल्कि राज्यसभा के सभापति जयदीप धनकड भी परेशान हैं। उनकी समझ में नहीं आ रहा कि वे विपक्ष को कौन-सी मुगलई घुट्टी 555 लेकर पिलाएं जिससे विपक्ष खुश नजर आए और सवाल पूछना छोडकर देश के सीतारामी बजट पर चर्चा करे। आखिर देश की जनता सांसदों को सवाल करने और बहस-मुबाहिसे के लिए ही तो भेजती है। सांसदों को मेजें थपथपाने के लिए तो नहीं चुना जाता।
हमारी सरकार के खाते में तमाम नाकामियों के बावजूद तमाम उपलब्धियां भी हैं। आप बढ़ती हुई बेरोजगारी, मंहगाई और भ्रष्टाचार के साथ राजनीति के समानांतर बजट में भी अदावत के इस्तेमाल को यदि सरकार की उपलब्धि नहीं मानते तो ये आपकी तंगदिली है। हमारी सरकार ने पिछले एक दशक में जो किया वो पिछली सरकारें 60 साल में नहीं कर पाईं। भले ही पिछली सरकारें कांग्रेस की हों या भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधनों की। सरकार ने देश का परिदृश्य बदला हो या न बदला हो लेकिन कानूनों, शहरों, स्टेशनों, सडकों, संस्थानों, पाठ्यक्रमों और इमारतों के ही नहीं बल्कि अब तो राष्ट्रपति भवन के कक्षों के नाम तक बदलकर दिखा दिए। ये कोई छोटी-मोटी उपलब्धि है? सरकार लगातार देश को उसकी खोई हुई, छीनी हुई संस्कृति और वैभव वापस कर रही है।
देश की तकदीर बदलने में अरबों-खरबों मुद्रा की जरूरत पडती है। इसके लिए विदेशों से, विदेशी बैंकों से कर्ज लेना पडता है। इस वजह से विकास पर कम ब्याज पर ज्यादा खर्च करना पडता है। लेकिन नाम बदलने पर फूटी कौडी भी खर्च नहीं होती और काम हो जाता है। अलाहबाद प्रयागराज हो जाता है, फैजाबाद अयोध्या हो जाती है, हबीबगंज रानी कमलापति रेलवे स्टेशन हो जाता है, मुगलसराय पं. दीनदयाल उपाध्याय जंक्शन हो जाता है। आप का पता नहीं लेकिन मैं तो अपनी सरकार की इन उपलब्धियों पर लट्टू हूं।
मुझे भी सरकार की तरह विपक्ष की बालक बुद्धि पर तरस आता है कि वो कहा ‘नीट’ और किसानों के मुद्दे पर बहस करने की मांग करती है। उसे किसानों से क्या लेना? नीट से क्या लेना? अरे जब देश की सबसे बडी अदालतें तक नीट के मामले में सरकार के साथ हैं, किसानों को दिल्ली में प्रवेश न करने देने के मामले में सरकार के साथ हैं, तो विपक्ष को साथ देने में क्या ऐतराज है? देश ये राज जानना चाहता है। क्या सरकार को परेशान करने के पीछे कोई विदेशी हाथ तो नहीं? क्योंकि जिन देशी हाथों को सरकार के लिए परेशानी खडी करना चाहिए थी वे तो बैशाखी बनकर उसकी मदद कर रहे हैं। साम्प्रदायिकता के मुखर विरोधी जेडीयू और टीडीपी की भूमिका बदली हुई है।
देश में प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी के नेतृत्व में भाजपा, जेडीयू और टीडीपी की सरकार बने कोई दो महीना होने को है। इन दो महीने में प्रधानमंत्री जी कम से कम तीन विदेश यात्राएं कर आए। उनकी सरकार ने देश के लिए सातवीं मर्तबा सीतारामी बजट संसद में पेश कर दिया। प्रधान जी ने अपनी मातृ संस्था आरएसएस के कहने के बावजूद मणिपुर को लेकर अपना नजरिया नहीं बदला। अहंकार नहीं त्यागा। बदले में संघ की इमदाद के लिए केन्द्रीय कर्मचारियों को संघ की शाखाओं में जाने पर लगी 58 साल पुरानी रोक जरूर लगा दी अब आप ही बताइये कि 48 दिन पुरानी सरकार देश के लिए, देश की जनता के लिए और क्या कर सकती है? जो काम आपातकाल के बाद बनी सरकार नहीं कर पाई, महामना अटल बिहारी बाजपेयी तीन बार प्रधानमंत्री बनकर नहीं कर पाए, वो काम मोदी जी ने करके दिखा दिया।
देश के अडियल विपक्ष को देश की जनता देख रही हो या न देख रही हो किन्तु ऊपर वाला जरूर देख रहा है। एक धर्मभीरू सरकार को इस तरह परेशान करना बिल्कुल अच्छी बात नहीं है। सरकार ने अपने नए बजट में जनता के लिए ही नहीं ऊपर वालों के लिए भी पर्याप्त बजट प्रावधान किए है। देश में स्कूलों, अस्पतालों, सडकों, पुलों की कमी भले बनी रहे, किन्तु तीन नए धार्मिक कॉरिडोर जरूर बनाए जाने के लिए बजट प्रावधान किया गया है। सरकार इस बार अयोध्या हारी, बद्रीनाथ हारी लेकिन उसने भगवान के बजट में कोई कटौती नहीं की। विपक्ष को भी ऐसी ही दरियादिली का मुजाहिरा करना चाहिए। विपक्ष को कम से कम इतना तो ध्यान रखना चाहिए कि सास को भी काम करने के लिए 100 दिन दिए जाते हैं, फिर सरकार के तो अभी 48 दिन ही हुए हैं। विपक्ष चाहे तो सौ दिन बाद तीन राज्यों की तीन विधानसभाओं के समय सरकार से दो-दो हाथ कर ले। अभी तो बजट पर बहस करे।
आखिर विपक्ष देश की सियासत में नफरत का मुकाबला मोहब्बत से करना चाहता है। जनता को तो विपक्ष के ‘प्यार बांटते चलो’ अभियान से राहत मिल चुकी है। अब बारी सरकार की है। विपक्ष अब संसद में तकरार से नहीं बल्कि मोहब्बत से काम ले। मुमकिन है कि सरकार भी थोडी रहमदिली दिखाए, अन्यथा देश की संसद को थोक में सांसदों के निलंबन का तजुर्बा है ही।