संघम शरणम गच्छामि

– राकेश अचल


और आखिर भाजपा को संघ की शरण में जाना ही पडा, हालांकि भाजपा के बहुमुखी प्रतिभा के धनी राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा पूर्व में कह चुके थे कि अब भाजपा को संघ की जरूरत नहीं है। भाजपा की अपंग सरकार ने गत दिवस केन्द्रीय कर्मचारियों को संघ की शाखाओं में जाने पर लगी रोक हटाकर संघ की शरण में जाना स्वीकार कर लिया। ये रोक आज-कल से नहीं बल्कि पिछले 58 साल से लगी हुई थी। इन 58 सालों में पांच साल अटल बिहारी बाजपेयी और दस साल नरेन्द्र दामोदर दास मोदी प्रधानमंत्री रहे, लेकिन किसी ने भी इस प्रतिबंध को नहीं हटाया था। अभी भी संघ ने इस पाबंदी को हटाने के लिए कोई औपचारिक याचना नहीं की थी।
संघ की शाखाओं में केन्द्रीय कर्मचारी जाएं या राज्य के इससे हमें कोई लेना-देना नहीं है, क्योंकि जिन्हें जाना है वे प्रतिबंध के बावजूद शाखाओं में जाकर प्रशिक्षण लेते ही हैं, प्रचारक बनते ही हैं। देश के पूर्व प्रधानमंत्री हों या वर्तमान प्रधानमंत्री संघ के प्रिय शाखामृग हैं। उन्हें किसी ने जब नहीं रोका तो कागजी पाबंदी होने या न होने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। बात का बतंगड तो इसलिए बन रहा है क्योंकि जिस संघ को भाजपा ने नकार दिया था अब उसी संघ की भाजपा को चिरोरियां करना पड रही हैं। भाजपा यदि 2024 के लोकसभा चुनाव में अपने बूते 370 और गठबंधन के बूते 400 पार कर जाती तो उसे संघ की शरण में जाने की जरूरत ही न पडती।
कायदे से भाजपा को पहले बुद्ध की शरण में जाना चाहिए था। फिर धर्म की शरण में, संघ की शरण सबसे बाद में ली जाती है, क्योंकि ये सूत्र ही कहता है कि ‘बुद्धं शरणं गच्छामि। धर्मं शरणं गच्छामि। संघं शरणं गच्छामि। भाजपा ने 400 पार करने के लिए अनौपचारिक रूप से हालांकि पहले बुद्ध की शरण ली। संविधान की धज्जियां भले उडाई हो किन्तु डॉ. भीमराव अम्बेडकर को खूब सिर पर उठाकर देश के दलितों और बौद्धों को भरमाने की कोशिश की। बुद्ध के बाद भाजपा धर्म की शरण में भी गई। अयोध्या में भव्य राम मन्दिर बनवाकर वहां दिव्य रामलला के विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा भी कराई, लेकिन अयोध्या में ही उसे प्रतिष्ठा नहीं मिली। अयोध्या वासियों ने समाजवादी पार्टी को प्रतिष्ठित किया। और तो और बद्रीनाथ में भी भाजपा की प्राण-प्रतिष्ठा नहीं हो पाई। हारकर भाजपा को संघ की शरण में ही आना पडा। भाजपा के नेता जानते हैं कि पूत तो कपूत हो सकता है किन्तु माता, कुमाता नहीं हो सकती। संघ भाजपा की जननी है। भाजपा अब अपनी मां के आंचल में वापस लौट आई है।
संघ की गतिविधियों में शामिल होने पर लगी पाबंदी हटने से क्या संघ को कोई लाभ होगा या भाजपा लाभान्वित होगी? ये जानने के लिए हमें और आपको कुछ समय और प्रतीक्षा करना होगी। आने वाले दिनों में उत्तर प्रदेश में विधानसभा की 10 सीटों के लिए होने वाले उपचुनाव और बाद में तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों में साफ हो जाएगा कि केन्द्रीय कर्मचारियों ने सरकार के इस फैसले का स्वागत किया है या नहीं। इस फैसले से मैं न खुश हूं और न दुखी। क्योंकि इस फैसले से आम जनता के जीवन पर कोई फर्क पडने नहीं जा रहा है। ये फैसला लगातार सुविधाभोगी और तनखीन (क्षीण) हो रहे संघ की सेहत को सुधारने के लिए है। पिछले दस साल में भाजपा की संघ पर निर्भरता कम हुई, जबकि संघ की निर्भरता भाजपा पर बढ़ी है। संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत केन्दीय मंत्रियों की तरह ब्लैक कैट कमाण्डों की छत्र-छाया में चलने के आदी हो गए हैं। संघ की शाखाओं और गतिविधियों में घनघोर कमी आई है। भाजपा ने संघ की अनसुनी करना शुरू कर दी है। 2024 के आम चुनावों में भाजपा की सीटों की संख्या कम होने का एक बडा कारण बीमार संघ भी रहा।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर देश में दो मर्तबा पाबंदी लगाई गई। क्यों लगाई गई ये बताने की जरूरत नहीं है। देश जानता है संघ के चरित्र को। जो संघ पिछले दिनों देश के प्रधानमंत्री को मणिपुर न जाने के लिए कोस रहा था, जो भाजपा के नेताओं को अहंकार से मुक्त होने की बात कर रहा था, उसी संघ ने न मणिपुर में हिंसा रोकने के लिए कुछ किया और न खुद को अहंकार की चपेट में आने से रोका। अन्यथा एक जमाना था जब संघ के घुटन्ना पहनने वाले स्वयं सेवक दिखावे के लिए ही सही लेकिन आपदा के समय जनता के बीच दिखाई देते थे। अब तो चाहे ट्रेन हादसा हो या हाथरस की भगदड संघी भाई कहीं नजर ही नहीं आते। वे जनता की सेवा करना जैसे भूल ही गए हैं।
संघ के दो दर्जन के लगभग अनुसांगिक संगठन हैं जो अलग-अलग क्षेत्रों में काम करते हैं, लेकिन सबका मकसद एक ही है और वो है हिन्दुत्व के लिए जमीन बनाना। संघ के कार्यकर्ता सभी धर्मों का सम्मान करना न जानते हैं और न उन्हें इसका प्रशिक्षण दिया जाता है। चूंकि इस समय देश के केन्द्र में और अनेक राज्यों में भाजपा की अपनी और दोस्तों की सरकारें हैं इसलिए संघ अपना असली काम कर नहीं पा रहा। संघ को किस काम में महारत हासिल है ये बताना मैं आवश्यक नहीं समझता। देश की जनता और मेरे पाठक समझदार हैं। अनेक तो ऐसे हैं जो संघ के बारे में मुझसे ज्यादा जानते हैं। संघ भी देश के इतिहास में एक पुराना संगठन है, कांग्रेस से कुछ छोटा, लेकिन कांग्रेस के बराबर नहीं। संघ की वरिष्ठता को ध्यान में रखते हुए मुझे संघ की फिक्र रहती है कि आने वाले दिनों में संघ का हाल भी कहीं कांग्रेस जैसा तो नहीं होने जा रहा।
भगवान करे कि केन्द्र सरकार के फैसले के बाद संघ की ताकत बढ़े। सरकार चाहे तो संघों के लिए केन्द्र की नौकरियों में दो-चार फीसदी का आरक्षण भी दे दे, कोई कुछ करने वाला नहीं है। सरकार समर्थ है सब कुछ करने में, उसे उसकी बैशाखियां भी नहीं रोक पाएंगी। आईएनडीआईए के विरोध की सरकार को फिक्र नहीं करना चाहिए। सरकार देश की जनता की सेवा के लिए नहीं, बल्कि संघ की सेवा के लिए बनी है। संघ की सेवा ही राष्ट्र की सेवा है। संघ ही राष्ट्र है। संघ नहीं तो राष्ट्र भी कैसे हो सकता है? मौका है जब सरकार और भाजपा ही नहीं बल्कि जितने भी राष्ट्रद्रोही हैं वे संघ की शरण में चले जाएं। देश का, देश की जनता का परित्राण संघ की शरण में जाने से होगा शायद। संघ के प्रति मेरी पूरी सहानुभूति है। आप इसे अन्यथा न लें। मैं कोई नीतीश बाबू की तरह अपना रंग नहीं बदल रहा। ये मेरा दयाभाव है दीन-दुर्बल संघ के प्रति।