– राकेश अचल
हिन्दुस्तान में धर्म को धर्म बनाए रखने के लिए शायद कोई तैयार नहीं है। न हिन्दू और न मुसलमान। मोहर्रम के जुलूसों में फिलिस्तीनी राष्ट्रध्वजों को लहराते देख मुझे फिक्र होती है। मैं देश के उन लोगों में से हूं जो हर धर्म का तहेदिल से सम्मान करते हैं, लेकिन धर्म को राजनीति से जोडने के खिलाफ है, यानि उसकी मुखालफत करते हैं। मोहर्रम का महीना जिस उद्देश्य के लिए निर्धारित है उसमें शायद ये कहीं नहीं लिखा है कि कोई भी धर्मभीरू जमात उसका सियासत के लिए इस्तेमाल करे।
मोहर्रम के जुलूसों में श्रीनगर से लेकर बिहार और उत्तर प्रदेश तक में फिलिस्तीन के झण्डे लहराए गए, ये अनुचित है। फिलिस्तीनियों के प्रति हमारी, आपकी सहानुभूति हो सकती है, होना भी चाहिए। लेकिन फिलिस्तीन के समर्थन के लिए अलग से मंचों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। किसी धार्मिक जुलूस का नहीं। फिलिस्तीनियों के संघर्ष का समर्थन उनके मजहब के आधार पर नहीं, बल्कि मानवाधिकारों के हनन के आधार पर किया जा सकता है। फिलिस्तीन के मुद्दे पर हमारे देश की विदेश नीति स्पष्ट है। अतीत में और वर्तमान में भी फिलिस्तीन के साथ हमारे सौहार्दपूर्ण रिश्ते रहे हैं। मौजूदा सरकार हो या पुरानी कांग्रेस की सरकारें, किसी ने फिलिस्तीन पर किसी भी देश के हमले का समर्थन नहीं किया और शायद भविष्य में भी न करे। मोहर्रम के जुलूसों में भारत का राष्ट्रध्वज तिरंगा भी लहराया गया, लेकिन इसकी भी शायद कोई जरूरत नहीं थी। धार्मिक जुलूस धार्मिक है। उसे धार्मिक प्रतीकों के साथ ही सजाया जाना चाहिए।
मोहर्रम के जुलूस में कुछ और नारे लगाए गए जैसे कि ‘हिन्दुस्तान में रहना है तो या हुसैन कहना है’ ये नारा भी गैरजरूरी और भाईचारे के खिलाफ हैं। हिन्दुस्तान में रहने कि लिए न जयश्रीराम कहना जरूरी है और न या हुसैन कहना। यहां जरूरी है जय हिन्द कहना। हिन्दुस्तान गंगा-जमुनी संस्कृति का पैरोकार रहा है। हिन्दुस्तान में रहने वाला कोई भी मुसलमान किसी इस्लामिक देश का मुसलमान नहीं है। वो ऐसे विभाजनकारी नारों के बारे में सोच भी नहीं सकता। ऐसे नारे शायद उन कूढ़मगजों की उपज हैं जो भाई से भाई को लडाने या हिन्दू-मुसलमान के बीच खोदी गई सियासी और मजहबी खाई को और गहरा करना चाहते हैं। ऐसे लोग दोनों तरफ हैं और ऐसे लोगों का दोनों तरफ से विरोध किया जाना चाहिए। समाज में नफरत फैलाने वाले लोग किसी भी तरफ के हों, मुल्क और कौम के दुश्मन होते हैं। उनसे सावधान रहने की जरूरत है।
आम तौर पर माना जाता है कि मुहर्रम इस्लामी वर्ष यानी हिजरी वर्ष का पहला महीना है। हिजरी वर्ष का आरंभ इसी महीने से होता है। इस माह को इस्लाम के चार पवित्र महीनों में शुमार किया जाता है। अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद (सल्ल.) ने इस मास को अल्लाह का महीना कहा है। साथ ही इस महीने में रोजा रखने की खास अहमियत बयान की है। मुख्तलिफ हदीसों, यानी हजरत मुहम्मद के कौल व अमल से मुहर्रम की पवित्रता व इसकी अहमियत का पता चलता है। ऐसे ही हजरत मुहम्मद ने एक बार मुहर्रम का जिक्र करते हुए इसे अल्लाह का महीना कहा। इसे जिन चार पवित्र महीनों में रखा गया है। मेरी मान्यता है कि हम इस पविर्त महीने की पवित्रता को कायम रखना चाहते हैं तो हमें मोहर्रम को सियासत से अलग रखना चाहिए। इसका इस्तेमाल कट्टरता कि लिए कदापि नहीं करना चाहिए। ये बात सभी पर आयद है।
दुर्भाग्यपूर्ण बात ये है कि जिस तरह की गलती मजहब में घुसे कुछ सिरफिरे लोग करते हैं वैसी ही गलती हमारी सरकारें भी करती हैं। उत्तर प्रदेश सरकार ने मोहर्रम के जुलूसों में सियासत होती देख उन्हें प्रतिबंधित करने के संकेत दिए हैं। ये मर्ज का सही इलाज नहीं है। इस समस्या को हिकमत-अमली से निबटा जाना चाहिए। इस तरह कि प्रतिबंध या तो समान रूप से सभी मजहबी जुलूसों कि लिए लगाए जाएं या फिर सभी को इस तरह के प्रतिबंधों से आजाद रखा जाए। आज मोहर्रम में सियासत हो रही है, कल कांवर यात्रा में सियासत होगी। यानि ये सिलसिला फिर कभी रुकेगा ही नहीं।
मुझे याद है कि ग्वालियर में एक पुलिस अधीक्षक थे आशिफ इब्राहिम। उन्होंने अपने कार्यकाल में मोहर्रम के जुलूसों में सभी तरह के हथियारों का प्रदर्शन सख्ती से रोका था। वे तो पक्के मुलमान थे लेकिन उन्होंने संविधान और कानून और व्यवस्था का सम्मान किया। उन्होंने अपने मजहब का भी सम्मान किया और किसी भी कठमुल्लेपन के आगे स्मारपन नहीं किया था। आशिफ बाद में देश की शीर्ष संस्था ‘रॉ’ के प्रमुख भी रहे। आशिफ साहब को किसी राज्य सरकार ने ऐसा करने के लिए नहीं कहा था। उन्होंने उक्त कार्रवाई अपने हिसाब से की थी और मजे की बात कि उनकी इस कार्रवाई का उनके अपने समाज ने सम्मान भी किया। जुलूस में हथियार लेकर निकले लोगों ने अपने तमाम हथियार पुलिस चौकी में जमा करा दिए थे।
हाल ही में मैंने सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर एक रील देखी, जिसमें एक बच्चा एक भगवा ध्वज लिए एक हवाई जहाज में जयश्रीराम के नारे लगाते हुए प्रवेश कर रहा है। आखिर इस तरह की रील बनाने का क्या मकसद हो सकता है। क्या इस तरह की गतिविधियां पाबंदी के लायक नहीं है? क्या हवाई जहाजों में ऐसे नाटक करने और उनकी रील बनाकर उन्हें वायरल करने की छूट सभी को है? शायद नहीं। सरकार में बैठे लोगों को इस तरह की घटनाओं के प्रति संवेदनशील होकर कार्रवाई करना चाहिए। मोहर्रम के जुलूसों की पाकीजगी बनाए रखने की जिम्मेदारी मुस्लिम समाज के ही लोगों की है। मुझे उम्मीद है कि हमारे देश के मुस्लिम समाज में आज भी बडी संख्या में समझदार लोग हैं जो मुल्क का और मुल्क के संविधान का सम्मान करना जानते हैं। वे जानते हैं कि यदि मुल्क का सम्मान नहीं किया जाएगा तो उनका अपना और मजहब का सम्मान भी कौन करेगा?
मैंने कल हिन्दू धर्म के शीर्ष धर्माचार यानि शंकराचार्यों कि आचरण के बारे में लिखा था, तभी मुझे बहुत से लोगों ने उलाहना दिया था कि मैं जरा दूसरे धर्मों के धर्माचार्यों के बारे में भी लिखूं। मैंने अपने मित्रों को समझाया कि मैं उन लोगों में से नहीं हूं जो सच को सच कहने से बचते हैं या डरते हैं। मैं हिन्दू हो, मुसलमान हो, ईसाई हो या सिख हो यदि धर्म विरुद्ध और देश विरुद्ध आचरण करेगा तो उसको रेखांकित करूंगा। आज भी मोहर्रम के जुलूसों में सियासत की मुखालफत कर मैं अपना लेखकीय धर्म निभा रहूं। मुझे इसके लिए किसी सैंगोल की या किसी की टोकाटाकी की जरूरत नहीं है।