ई-रिक्शा : खस्ताहाल सडकों पर अराजकता

– राकेश अचल


मुझे पता है कि हमारी संसद में ई-रिक्शा को लेकर कोई बहस नहीं करने वाला, क्योंकि हमारी संसद बहस के लिए बनी ही नहीं है शायद। इसीलिए ई-रिक्शों के नफा-नुक्सान पर लिखने की हिमाकत कर रहा हूं। यदि आपके पास अपना वाहन नहीं है तो यकीन है कि ये आलेख आपके मतलब का होगा।

देश के अमूमन हर शहर में ई-रिक्शा चालक ग्रीन परिवहन के नाम पर उतारे गए थे। ये ई रिक्शे उन लोगों को थमाए गए थे जो या तो तांगा, इक्का चलाते थे या हाथ रिक्शा। खटारा और धुआं उगलने वाले टेंपो का विकल्प भी समझे गए थे ये ई-रिक्शे। बेआवाज ये ई-रिक्शे शुरू में तो सभी को अच्छे लगे, लेकिन अब यही ई-रिक्शे देश के घरेलू परिहवन के लिए अराजक हो गए हैं।
पर्यावरण हितैषी परिवहन के नाम पर प्रयोग में लाए जा रहे ये ई-रिक्शे यातायात को बद से बदतर बना रहे हैं। इनका न ढंग से पंजीयन हुआ, न चालकों का प्रशिक्षण। न इनके लिए स्टापेज बने और न मार्गों का निर्धारण किया गया, फलस्वरूप इन ई-रिक्शा वालों को जहां सवारी ने हाथ दिया, वहीं रिक्शा रोक दिया, चाहे पीछे से आ रहे वाहन चालक दुर्घटना का शिकार हो जाएं। मप्र के पुराने सामंती शहरों के राजवाडा, महाराज बाडा जैसे इलाकों में भले ही दो पहिया वाहन चलाने की जगह न हो, लेकिन इन्हें अपनी जगह पर वाहन खडे करने की आजादी है। ये न यातायात के नियम जानते हैं, न इनके चालकों के पास कोई नागरिकता बोध। भले ही चाहे इनके कारण वाहनों की कतार लग जाए।
लगभग हर शहर में प्रशासन ने इन पर सख्ती कर ई-रिक्शों के लिए रूट तय किए, रंग लगाकर पहचान देने की भी कोशिश भी की। ई-रिक्शों को पालियों में भी चलवाने का प्रयास किया, लेकिन सब अकारथ गया। ई-रिक्शा संचालकों के विरोध के बाद ये तमाम सख्ती हवा हो गई। इतना ही नहीं, प्रशासन, यातायात पुलिस व आरटीओ ने भी अपनी जिम्मेदारी से हाथ खडे कर दिए। क्योंकि ई-रिक्शा वालों के पीछे कानून के दुश्मन नेता आ खडे हुए। अब सुविधा और पर्यावरण को बेहतर बनाने के लिए लाए गए ई-रिक्शे सिरदर्द बन गए हैं और खामियाजा आम जनता भुगत रही है।
भारत में ई-रिक्शा की संख्या लाखों में हो सकती है, जिसमें पंजीकृत और गैर पंजीकृत दोनों शामिल हैं। 2022-23 तक के आंकडों के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि कम से कम 3 लाख पंजीकृत ई-रिक्शा हैं और गैर-पंजीकृत ई-रिक्शा की संख्या कई अधिक हो सकती है। शहरों में यातायात विभाग द्वारा पिछले कई वर्षों से वन-वे घोषित मार्गों पर ई-रिक्शा वाले बिना रोक टोक, बेधडक दौडते हैं। यातायात पुलिस एवं पुलिस खडी रहती हैं। जहां पहले तांगों, टेम्पो के कारण आम लोगों को परेशानी होती थी, अब इसकी जगह ई-रिक्शा ने ले ली है। हर शहर में ई-रिक्शा के अघोषित अस्थाई स्टैण्ड बन गए हैं। इससे बार-बार ट्रैफिक जाम होता रहता है। पैदल निकलने तक की जगह नहीं रहती है। ई-रिक्शा वाले परम स्वतंत्र हैं, जहां से इच्छा हुई वहीं से सवारी बैठा ली। कोई रोकने वाला नहीं है। रेलवे स्टेशन, बस स्टेशन, घनी आबादी वाले क्षेत्र इनके अड्डे बनते जा रहे हैं।
सवाल ये है कि इन ई-रिक्शा चालकों की अराजकता का इलाज क्या है? मैंने दुनिया के अनेक गरीब, अमीर देश देखे हैं, लेकिन वहां ई-रिक्शा यदि हैं भी तो अराजक नहीं है। वे नियमों का पालन करते हैं, सभ्य हैं और उनमें भरपूर नागरिकता बोध भी है, लेकिन भारत में तो ई रिक्शा समस्या का दूसरा नाम बन गए हैं। कभी-कभी तो मुझे ई-रिक्शा की धींगामुश्ती देखकर अपने पारंपरिक तांगे वाले ज्यादा बेहतर लगते हैं। मुझे आशंका है कि देश में ई-रिक्शा की बाढ के पीछे ई-रिक्शा निर्माता कंपनियों और हरकारों के बीच कोई संधि भी लगती है। यदि ऐसा न होता तो जिलों के कलेक्टर, एसपी लाठी के बल पर तांगे और साइकल रिक्शे क्यों हटवाते? हकीकत ये है कि ई-रिक्शों की बाढ से पर्यावरण सुधरने के बजाय तेजी से बिगड रहा है। पर्यावरण के लिए ई-रिक्शों का ई-कचरा आने वाले दिनों में एक गंभीर समस्या होने वाला है। इसलिए इनका हल खोजा जाना चाहिए।