वक्फ बोर्ड कानून पर सुनवाई बेमतलब

– राकेश अचल


अब चूंकि याचिकाएं आई हैं तो माननीय सुप्रीम कोर्ट को उनकी सुनवाई करना पड रही है। अदालत का करम है कि उसने तमाम याचिकाओं को एक झटके में खारिज नहीं किया, हां कोर्ट ने इन याचिकाओं पर तत्काल सुनवाई की मांग जरूर ठुकरा दी थी। देश को और इस कानून के विरोधियों को भले ही सुप्रीम कोर्ट से कोई उम्मीद हो, लेकिन मुझे नहीं है। क्योंकि ऐसा लगता नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट इस कानून को लेकर सत्ता प्रतिष्ठान के खिलाफ कोई फैसला देगा।
मेरे हिसाब से वक्फ बोर्ड कानून पर सुनवाई का कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि ये कानून संसद के दोनों सदनों में लम्बी बहस के बाद बहुमत से पारित किया गया है। ये कानून भले ही संविधान की मूल भावनाओं के विरुद्ध हो, किन्तु इसमें सरकार की भावना महत्ववपूर्ण है और कोर्ट इसे भलीभांति समझता है। केन्द्रीय संसदीय कार्य मंत्री किरण रिजिजू ने इशारों-इशारों में कोर्ट को सरकार की भावना से अवगत भी करा दिया है। किरण ने पिछले दिनों ही कहा था कि न्यायालय को वक्फ बोर्ड कानून पर सरकार की भावना समझना चाहिए।
वक्फ बोर्ड कानून सत्ता प्रतिष्ठान के हिन्दू एजेंडे से ही बाबस्ता है। सरकार शुरू से एक देश, एक कानून और एक देश, एक चुनाव की बातें करती आ रही है। मौजूदा सरकार स्पष्ट रूप से देश के अल्पसंख्यक समुदाय के लिए आजादी के बाद बने तमाम कानूनों को जमीदोज कर अल्पसंख्यकों के कामकाज, धारणाओं, मानयताओं में मदाखलत करने की कोशिश कर रही है। सरकार को लगता है कि इस देश में सिवाय हिन्दुओं के सभी लोग चोर हैं, बेईमान हैं, भ्रष्ट हैं, इसलिए उनके खिलाफ कार्रावाई के लिए नए कानूनों की जरूरत है। कौन सा समाज किस तरह से जीवित रहेगा इसकी फिक्र समाज से ज्यादा अब सरकार को होने लगी है और नया वक्फ कानून इसी फिक्र का नतीजा है। नए कानून की मुखालफत करने वालों को सत्ता प्रतिष्ठान और उससे जुडे लोग पहले ही अर्बन नक्सली कह चुके हैं।
मुझे ये कहने में कोई संकोच नहीं है कि हम अधमरे चौथे स्तंभ के लोग संसद से बडे नहीं है, अदालतों से बडे नहीं हैं, लेकिन हमारी चिंताएं हैं, हमारी जिम्मेदारियां हैं और उन्हीं के तहत हम सत्ता प्रतिष्ठान को आगाह करते रहते हैं। अल्पसंख्यकों को लेकर हमारा ऐसा कोई एजेंडा नहीं है जैसा कि सरकार का है। हमें ऐसा कोई भय नहीं है कि एक दिन ऐसा आएगा जब इस देश पर अल्प संख्यकों का कब्जा हो जाएगा। हमें केवल एक ही डर है कि हमने यानि देश ने आजादी के बाद जिस तरह से समरसता का, समन्वय का देश बनाया था वैसा देश अब शायद बचा नहीं है। आज हमारा देश इंद्रधनुष के रंगों वाला देश नहीं है, आज देश को एक रंग में रंगने की बेशर्म कोशिश हो रही है।
बात नए वक्फ बोर्ड कानून को सुप्रीम कोर्ट में सुने जाने की है। सुप्रीम कोर्ट सुप्रीम इसीलिए है, क्योंकि वो सभी को सुनता है। सरकार सबको नहीं सुनती। लेकिन सरकार और सुप्रीम कोर्ट में एक बात सामान्य है कि दोनों जगह बहुमत से फैंसले किए जाते हैं। मेरा अंतरमन कहता है कि जिस तरीके से संसद में बहुमत इस नए कानून के पक्ष में खडा था, उसी तरह से अदालत में भी बहुमत का फैसला आएगा तो सत्ता प्रतिष्ठान के पक्ष में आएगा। अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले को केवल सरकार ही बदल सकती है। सरकार के फैसले को सुप्रीम कोर्ट बदल सकता है, कोर्ट ने अतीत में अनेक प्रकरणों में या तो सरकार के फैसले बदले हैं या उनकी समीक्षा कराई है। ऐसी भी अनेक नजीरें हैं जहां सत्ता प्रतिष्ठान से सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को मैंने से इंकार कर दिया और नई व्यवस्था दे दी। मैं इस तरह की नजीरों की तफ्सील में नहीं जाऊंगा, समझदार को इशारा काफी है। जब जिसका बहुमत होता है वो पार्टी और उसकी सरकार अपने ढंग से न्यायालय के फैसलों का सम्मान करते हैं, क रते आ रहे हैं।
नए वक्फ बोर्ड कानून को लेकर मेरी आशंकाओं के पीछे कुछ ठोस आधार है। पहले का संकेत मैंने किया है और अब दूसरे मामले में मैं सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस गवई को उद्घृत करना चाहता हूं। जस्टिस गवई ने डॉ. अंबेडकर की जयंती के मौके पर कहा कि हमारे पास ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो गर्व के साथ कह सकते हैं कि हम यहां संविधान की वजह से पहुंचे हैं। जस्टिस गवई से पहले पूर्व सीजेआई जस्टिस चंद्रचूड देश के प्रधानमंत्री के साथ गणपति वंदना कर चुके हैं। जिस देश का कोर्ट देश के प्रधानमंत्री के प्रति श्रृद्धानवत हो उस देश में कोई फैसला सरकार के खिलाफ भला आ सकता है क्या? देश के प्रधानमंत्री के प्रति श्रृद्धा रखना कानून कोई जुर्म नहीं है, किन्तु यदि देश का सुप्रीम कोर्ट सार्वजनिक रूप से पंत प्रधान की वंदना करता है तो वो आपत्तिजनक है।
बहरहाल आने वाले दिनों में आप रोजाना वक्फ बोर्ड कानून पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई देखिए, सुनिए और फिर बताइए कि मैं गलत हूं या सौ फीसदी सही? मैं उन लोगों में से हूं जो इस देश की पंच परमेश्वर न्याय व्यवस्था पार यकीन रखते हैं। फिर चाहे वो पंच परमेश्वर मुंशी प्रेमचंद का हो या मुंशी नरेन्द्र दामोदर दास मोदी जी का।