– राकेश अचल
क्या जमाना आ गया है कि राजसत्ता एक अदने से विदूषक से घबड़ाने लगी है। मुंबई में कुणाल कामरा नाम के एक विदूषक की पैरोडी के बाद एक वर्णशंकर सियासी दल के कार्यकर्ताओं ने कुणाल के दफ्तर में जिस तरह से तबाही मचाई उसे देखकर लगता है कि राजसत्ता कितनी कमजोर और असहिष्णु है। कुणाल ने किसी का नाम नहीं लिया। किसी को गाली नहीं दी, लेकिन कहते हैं न कि ‘चोर की दाढ़ी में तिनका’ होता है, सो चोरों ने कुणाल को निशाने पर ले लिया। अब महाराष्ट्र की पूरी राजसत्ता कुणाल के खिलाफ राजदण्ड लिए खड़ी है।
कोई माने या न माने, किन्तु ये कटु सत्य है कि भाजपा जब से सत्ता में आई है तभी से देश में असहिष्णुता, साम्प्रदायिकता, संकीर्णता और बेसब्री सीमा से ज्यादा बढ़ गई है। भाजपा सनातन की बात करती है, भारतीय शिक्षा और संस्कारों की बात करती है, लेकिन इसके बारे में शायद जानती कुछ भी नहीं है। यदि जानती होती तो कुणाल कामरा के शो को लेकर तालिबानों की तरह उसके ऊपर टूट न पड़ती। कामरा के शो को लेकर बवाल शिवसेना (एकनाथ शिंदे) ने किया है। शिंदे के बारे में कुणाल ने जो कहा वो कटु सत्य है कि शिंदे ने न सिर्फ मूल शिव सेना से गद्दारी की बल्कि अपना सियासी बल्दियत भी बदली। बस यही वो दुखती रग थी जिसके ऊपर हाथ रखने से एकनाथ के कार्यकर्ता गुंडई पर उतर आए और उन्होंने कुणाल को सजा देने का दुस्साहस दिखा दिया।
शिवसेना हो या भाजपा या कांग्रेस, जब भी सत्ता में आते हैं तब उनका चरित्र लगभग एक जैसा हो जाता है। कांग्रेस चूंकि लम्बे समय तक सत्ता में रही इसलिए इसने सब्र करना भी सीखा और हास्य बोध भी पैदा किया, अन्यथा कांग्रेस के राज में लक्ष्मण, शंकर, सुधीर तैलंग या काक जैसे मशहूर व्यंग्य चित्रकार पनप न पाते। न राग दरबारी लिखी जा सकती थी और न हरिशंकर परसाई जैसे लेखक जीवित रह पाते। परसाई जी को भी संघियों ने मारने की कोशिश की थी, लेकिन वे अपनी कमर टूटने के बाद भी दशकों तक अपना काम करते रहे। शिवसेना को शायद ये पता नहीं है कि शिवसेना का ट्रीटमेंट हो या संघ का ट्रीटमेंट, किसी विदूषक को, किसी व्यंग्यकार को, किसी हास्य कलाकार को उसका काम करने से रोक नहीं सकता।
भारतीय ज्ञान परमपरा की वकालत करने वाले संघी और शिव सैनिक शायद भारतीय ज्ञान परंपरा को जानते ही नहीं है। उन्हें पता ही नहीं है कि साहित्य में, नाटक में कितने रस होते हैं? वे यदि ये सब जानते तो खुद अपने पुरखों की कला का सम्मान करते। शिवसेना के संस्थापक बाला साहब ठाकरे खुद एक व्यंग्यकार यानि विदूषकों की बिरादरी से आते थे। व्यंग्य के लिए कलम हो, कूची हो या मंच हो एक सशक्त माध्यम होता है। हास्य कलाकर हिन्दुस्तान में भी होते हैं और पाकिस्तान में भी। इंग्लैंड में भी होते हैं और अमरीका में भी। जीवन में यदि हास्य और व्यंग्य न हो तो जीवन न सिर्फ नीरस हो बल्कि नर्क बन जाए। हास्य-व्यंग्य कलाकार या लेख जीवन को सरस् बनाता है। कटु सत्य को शक्कर में पागकर आपके सामने पेश करता है और ऐसा करना दुनिया के किसी भी मुल्क में अपराध नहीं है। केवल तालिबानी संस्कृति में हसने, व्यंग्य करने पर स्थाई रोक होती है।
भारत की राजनीती में हास्य बोध लगभग मर चुका है, हमारे नेता अब व्यंग्य करने वले को, व्यंग्य लिखने वाले को अपना दुश्मन मानने लगे हैं। यही वजह है कि पिछले एक दशक में कुणाल कामरा हों या कीकू सभी को धमकियों का समाना करना पड़ता है, जेल जाना पड़ता है। लेकिन परसाई के वंशज कभी हार नहीं मानते। कुणाल ने भी हार नहीं मानी है। उसे हार मानना भी नहीं चाहिए। भाजपाई और शिवसेना के कार्यकर्ता शायद न चार्ली चैप्लिन को जानते हैं और न हमारे यहां के बीरबल को। वे मुल्ला नसरुद्दीन को भी नहीं जानते, उन्होंने मुंगेरीलाल के बारे में भी पढ़ा और सुना नहीं है। वे तो यदि कुछ सीखे हैं तो तालिबानियों से सीखे हैं। भाजपा को मुसलमानों से नफरत है तो शिवसेना को बिहारियों और गैर मराठियों से। दोनों कानून को अपने हाथ में लेने में कोई संकोच नहीं करते, खासतौर पर वहां, जहां उनकी अपनी सरकार हो। कुणाल के हाथ में संविधान की प्रति देख उन्हें लगा की मंच पर कुणाल नहीं राहुल गांधी खड़े हैं।
हमारे यहां जो तमाम शब्द लोकभाषा में प्रचलित और स्वीकार्य शब्द थे, उन्हें भाजपा ने सत्ता में आते ही असंसदीय घोषित कर दिया। अर्थात आप उनका इस्तेमाल संसद के भीतर नहीं कर सकते, किन्तु संसद के बाहर सडक़ या किसी और मंच पर इनका इस्तेमाल न अपराध है और न इन्हें प्रतिबंधित किया गया है। कुणाल ने जिस ‘गद्दार’ शब्द का इस्तेमाल अपने गीत में किया वो भी सरकार की नजर में असंसदीय है। संसद की बुकलेट में ‘गद्दार’, ‘घडिय़ाली आंसू’, ‘जयचंद’, ‘शकुनी’, ‘जुमलाजीवी’, ‘शर्मिंदा’, ‘धोखा’, ‘भ्रष्ट’, ‘नाटक’, ‘पाखण्ड’, ‘लॉलीपॉप’, ‘चाण्डाल चौकड़ी’, ‘अक्षम’, ‘गुल खिलाए’ और ‘पिट्ठू’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल अब लोकसभा और राज्यसभा में अब असंसदीय माना गया है। मेरा तो एक उपन्यास ही ‘गद्दार’ नाम से है। गनीमत है कि कांग्रेस से भाजपाई हो चुके सिंधिया समर्थकों ने इस पर कोई बखेड़ा खड़ा नहीं किया। वैसे भी राजनीति में गद्दारी और बाप बदलना एक आम मुहावरा है। इसे सुनकर यदि कोई बमकता है तो उसे राजनीति छोड़ देना चाहिए।
कुणाल कामरा कोई साहित्यकार नहीं है। वे एक स्टेंडअप कॉमेडियन हैं। ये उनका व्यवसाय है। ये व्यवसाय गैर कानूनी नहीं है, इसलिए उनके ऊपर हुए हमले की, उन्हें दी जाने वाली धमकियों की घोर निंदा की जाना चाहिए। हमारे यहां तो निंदकों तक को नियरे रखने की सलाह दी जाती है, क्योंकि वे स्वभाव को बिना पानी-साबुन के निर्मल करने का माद्दा रखते हैं। एक सभ्य समाज में यदि हास्य-व्यंग्य को लेकर सरकार की ओर से असहिष्णुता का प्रदर्शन किया जाएगा, कलाकारों को धमकाया जाएगा, उन्हें जेलों में डाला जाएगा तो लोकतंत्र जीवित नहीं रह सकता। हास्य-व्यंग्य कोई गाली नहीं हैं। ये अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है ठीक उसी तरह जिस तरह की टीवी है, रेडियो है, सोशल मीडिया है। इन सभी माध्यमों की सुरक्षा अनिवार्य है। इस मामले में देश की सरकार को ही नहीं बल्कि देश की सर्वोच्च न्यायपीठ को भी हस्तक्षेप करना चाहिए और कुणाल को ही नहीं बल्कि हरिशंकर परसाई परम्परा को सांरक्षण देन चाहिए। अन्यथा वो दिन दूर नहीं जब आपको ताश के 52 पत्तों में से जोकर गायब नजर आए।