दिया तले अंधेरा था या नहीं, राम जाने?

– राकेश अचल


केवल भगवान से डरने वाले मप्र के दो पत्रकारों की नाटकीय गिरफ्तारी और रिहाई के बाद राजस्थान की उप मुख्यमंत्री दीया कुमारी सिंह एक बार फिर सुर्खियों में हैं। राजकुुमारी के कथित भ्रष्टाचार की खबरें इस पूरे प्रकरण की आधार भूमि हैं।
मप्र के जिन दो पत्रकारों को राजस्थान पुलिस ने बीते रोज गिरफ्तार किया उन्हें मेरे अलावा बहुत से लोग जानते हैं। ये दोनों पत्रकार मेहनती हैं, जुनूनी हैं और महात्वाकांक्षी भी। इनके संस्थान दि सूत्र और दि केपीटल में राजकुमारी दीया सिंह को लेकर जिस तरह का अभियान चलाया गया था, उसे देखते हुए राजकुमारी का बिदकना स्वाभाविक भी था। मैं भी उनकी जगह होता तो बिदकता। मुझे भरोसा है कि दीया सिंह ने अपने खिलाफ चलाए जा रहे अभियान को रोकने के लिए प्रयास किए होंगे और जब वे नाकाम हो गई होंगी तब उन्होंने पत्रकारों के खिलाफ पुलिस का इस्तेमाल किया होगा।
राजकुमारी पत्रकारों के खिलाफ फरियाद लेकर खुद थाने नहीं गई। उनकी ओर से कोई नरेन्द्र सिंह राठौड़ थाने में गए थे। ये राठौड़ राजकुमारी के क्या लगते हैं, मुझे पता नहीं। मेरी दिलचस्पी भी नरेन्द्र राठौड़ में नहीं है। मेरी दिलचस्पी दीया कुमारी सिंह और अपने सूबे के पत्रकारों के बारे में है। राजस्थान की करणी थाना पुलिस ने पत्रकार आनंद पाण्डे और हरीश दिवेकर के खिलाफ भारतीय न्याय संहिता की धारा 356, 308, 353 के तहत मानहानि, चौथ वसूली के लिए धमकी और दि सूत्र के गलत इस्तेमाल का मामला दर्ज किया था।
राजस्थान की उप मुख्यमंत्री दीया सिंह एक राजनेता ही नहीं एक सामंती परिवार से भी ताल्लुक रखती हैं, इसलिए उनका पत्रकारों के खिलाफ थाने तक पहुंचना हैरान करता है। राजकुमारी को लेकर अभियान स्तर पर खबर चलाने से दि सूत्र पर उंगली उठाई जा सकती है। कोई भी समाचार संस्थान जब कोई अभियान चलाता है तो उसके पीछे कोई न कोई मकसद जरूर होता है। ये मकसद, जनहित में भी हो सकता है और नहीं भी। राजकुमारी दीया को लेकर दिखाई गई खबरें सौ फीसदी सच हैं या सौ फीसदी झूठ ये सिर्फ दीया सिंह जानती हैं या दि सूत्र जानता है।
इस मामले में पुलिस की भूमिका एक औजार की रही। पुलिस ने जब एक महीने की तफ्तीश के बाद पत्रकारों को हिरासत में लिया तो फिर छोड़ा क्यों? उन्हें अदालत में पेश क्यों नहीं किया? इसका जबाब पुलिस के पास नहीं है। दीया सिंह इस पूरे मामले में मौन और अनुपलब्ध हैं। अब लगता है कि राजस्थान पुलिस, राजकुमारी दिया सिंह और फरियादी का लक्ष्य पत्रकारों के मान मर्दन तक ही सीमित था, अन्यथा पिंजरे में आए परिंदों को कौन छोड़ता है? मुमकिन है कि फरियादी के आरोप सच हों, मुमकिन है कि फरियादी ने दि सूत्र से डील करने की कोशिश भी की हो, लेकिन जब डील फाइनल न हुई हो तब पुलिस का इस्तेमाल किया गया हो। अब हकीकत कभी उजागर नहीं होगी क्योंकि ये मामला अब कभी अदालत में जाएगा ही नहीं। अदालत में दूध और पानी अलग- अलग हो सकता था।
बहरहाल मेरा अनुभव है कि एक पत्रकार के रूप में किसी सामंत से टकराना आसान काम नहीं है। मैंने सामंतों से टकराकर एक दर्जन नौकरियां गंवा दीं लेकिन मुझे कोई पुलिस थाने तक नहीं ले जा सका। क्योंकि मैं कभी किसी डील का हिस्सा नहीं बना। वैसे भी डील कोई पत्रकार कर भी नहीं सकता, ये मैनेजर का काम होता है। इस पूरे प्रकरण से दो बातें सामने आई, पहली ये कि दि सूत्र की दीया सिंह को लेकर दिखाई गई खबरें सच के करीब थीं, यदि वे निराधार होतीं तो दीया सिंह बिलबिलाती नहीं। दूसरे ये कि दि सूत्र दीया सिंह के खिलाफ जो अभियान चला रहा था उसके पीछे भी कोई तो रहा होगा, अन्यथा किसी को क्या पड़ी कि वो दीया सिंह के पीछे हाथ धोकर पड़े?
संतोष की बात ये है कि अब मामला सुलझ गया है। दीया सिंह भी बच गई और द सूत्र भी। पत्रकारिता और राजनीति में भ्रष्टाचार के बीच की जंग चालू थी, चालू रहेगी। पत्रकारिता का काम पत्रकार करेंगे और नेताओं का काम नेता। सबको भगवान से डरना चाहिए, न किसी भगवान सिंह से।