– राकेश अचल
आज आप छुट्टी मना रहे होंगे, लेकिन मैं नहीं। मैं काम पर हूं और मेरा काम है लगातार लिखकर देशवासियों की सेवा करना। स्वतंत्रता दिवस के दिन भी मंै लिख रहा हूं, हालांकि देश के अधिकांश अखबारों में आज अवकाश है। टेलीविजन चैनलों में अवकाश नहीं होता, लेकिन वे केवल बकवास के लिए उपस्थित होंगे। किसी को नेहरू को गरियाना होगा तो किसी को नरेन्द्र के कसीदें पढने होंगे। लेकिन मैं लगातार शकील बदायूनी को याद कर रहा हूं।
शकील बदायूनी हमारी लेखक बिरादरी के थे। वे आज होते तो उन्हें भी मंगलसूत्रों की कथित लुटेरा बिरादरी का कहा जाता। अच्छा हुआ कि शकील साहब आज नहीं हैं। वे नहीं हैं, लेकिन उनके लिखे कौमी तराने आज भी हमारे पास हैं। हमारे कानों में गूंज रहे हैं। शकील साहब के कौमी तरानों में लाल किले से दिए जाने वाले भाषणों से कहीं ज्यादा ओज हैं, संकल्प हैं। राष्ट्रभक्ति है। उन्होंने अंधभक्ति की ही नहीं। न नेहरू की और न किसी और की। वे देशभक्त थे, पक्के देशभक्त। बात साल 1964 की है। देश के पहले प्रधानमंत्री पं.जवाहरलाल नेहरू का युग समाप्त हो रहा था और उसी साल ‘लीडर’ फिल्म बनी थी। ‘लीडर’ फिल्म के लिए शकील बदायूनी ने जो गीत लिखा था, जिसे नौशाद ने संगीत दिया था और मोहम्मद रफी ने गया था, वो गीत आज तक मरा नहीं है। फिजाओं में गूंज रहा है। लगातार गूंज रहा है, क्योंकि वो गीत कौमी तराना है। कोई जुमला नहीं था। जुमला होता तो कभी का मर चुका होता। शकील साहब ने लिखा था-
अपनी आजादी को हम हरगिज मिटा सकते नहीं
सिर कटा सकते हैं लेकिन सिर झुका सकते नहीं
शकील बदायूनी ने ये बात केवल मुसलमान सिरों के लिए नहीं कही थी। केवल हिन्दू सिरों के लिए नहीं कही थी। उन्होंने ये बात हर राष्ट्रभक्त हिन्दुस्तानी के लिए कही थी। उन्होंने विभाजन की विभीषका को अपनी आंखों से देखा था, भुगता था। वे चाहते तो विभाजन के वक्त ही नव-सृजित भारत छोड कर पाकिस्तान चले जाते लेकिन नहीं गए। न शकील साहब गए और न नौशाद साहब गए। मोहम्मद रफी का तो जाने का सवाल ही नहीं उठता। क्योंकि उनका मन तो हरि दर्शन को तडपता रहता था। शकील बदायूनी ही नहीं, हमारे शकील ग्वालियरी भी देश छोडकर नहीं गए। करोडों मुसलमान नहीं गए। उन्हें यदि केवल मजहब की बिना पर बने पाकिस्तान में जाना होता तो वे चले जाते, लेकिन वे रह गए ताकि वे आजादी के 78वे साल में आकर भाजपाइयों और संघियों की गालियां, गोलियां और लाठियां खा सकें। बुलडोजर से बुलडोज किए जा सकें। बहरहाल मैं बात कर रहा था उस जज्बे की जो शकील बदायूनी के तराने में है। वे लिखते हैं कि-
हमने सदियों में ये आजादी की नेमत पाई है
सैकडों कुरबानियां देकर ये दौलत पाई है
मुस्कराकर खाई हैं सीनों पे अपने गोलियां
कितने वीरानों से गुजरे हैं तो जन्नत पाई है
खाक में हम अपनी इज़्जत को मिला सकते नहीं
मुश्किल है कि जो जन्नत हमें विरासत में मिली थी, उसके आज तीन टुकडे किए जा चुके हैं। उसी जन्नत का एक हिस्सा मणिपुर लगातार दो साल से जल रहा है। आज भी इस जन्नत की हिफाजत के लिए देश के जवानों को अपने सीने पर दुश्मन की गोलियां खाना पड रही हैं। जिस दिन भाजपाई और संघी मित्र देश के विभाजन की विभीषका का स्मरण दिवस मना रहे थे तभी कश्मीर में हमारी सेना का एक कैप्टन शहीद हो रहा था। उसे विभीषका की नहीं आजादी की फिक्र थी। विभीषका तो आई और चली गई। वे लोग अनाडी हैं जो विभीषिका के बहाने उस नफरत को पुनर्जीवित करना चाहते हैं जो कभी कि समाप्त हो चुकी थी। शकील साहब ने लिखा-
क्या चलेगी जुल्म की अहले वफा के सामने
जा नहीं सकता कोई शोला हवा के सामने
लाख फौजें ले के आई अमन का दुश्मन कोई
रुक नहीं सकता हमारी एकता के सामने
हम वो पत्थर हैं जिसे दुश्मन हिला सकते नहीं
हमारा दुर्भाग्य ये है कि आज भी हम आजादी के पहले के हालात का सामना कर रहे है। हमें जुल्म के खिलाफ खडा होना पड रहा है, लडना पड रहा है। लेकिन नफरत का कोई शोला एकता की हवा के सामने आखिर कैसे टिक सकता है? क्योंकि एकता का पत्थर न कोई लठैत हिला सकता है और न कोई अंधभक्त। शकील साहब ने जो लिखा वो आज भी मौजू है। वे साफ-साफ कहते हैं कि मुल्क ने एक बार धोखा खाया है। बार-बार धोखा नहीं खाया जा सकता। दुर्भाग्य ये है कि आज भी मुल्क को धोखा देने की कोशिश की जा रही है। धर्म के नाम पर, भाषा के नाम पर। हिन्दू-मुसलमान के नाम पर। लेकिन आप तो शकील बदायूनि साहब को पढते रहिए, मोहम्मद रफी को सुनते रहिए-
वक्त की आजादी के हम साथ चलते जाएंगे
हर कदम पर जिंदगी का रुख बदलते जाएंगे
गर वतन में भी मिलेगा कोई गद्दार-ए-वतन
अपनी ताकत से हम उसका सर कुचलते जाएंगे
एक धोखा खा चुके हैं और खा सकते नहीं
आप सभी समझदार हैं। नफरत और मोहब्बत का महत्व समझते हैं। पहचानते हैं कि कौन नफरत फैला रहा है? कौन मोहब्बत की बात कर रहा है? देश को किस जज्बे की जरूरत है? आप जानते हैं कि नफरत के जहर से आपका क्या-क्या नुक्सान हुआ है? मुल्क की एकता कितनी जर्जर हुई है? तो आइये सिर कटाने के जज्बे के साथ देश को मिली आजादी का जश्न मनाएं और पुराने जख्मों को कुरेदने वाले नाखून लगातार काटते रहें, कुतरते रहें। जय हिन्द, जय भारत।