– राकेश अचल
आज आप फिर शिकायत कर सकते हैं कि मेरे सिर से मोदी जी का भूत उसी तरह नहीं उतर रहा जिस तरह की मोदी जी कि सिर से कांग्रेस और राहुल गांधी का भूत नहीं उतरता। लेकिन हकीकत ये है कि आज मैं मोदी जी की नहीं, बल्कि उस भारतीय राजनीति और धर्म की बात कर रहा हूं जिसके अपने मानवीय मूल्य हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी निजी तौर पर किसके साथ उठें-बैठें, खाएं-पियें किसी को कोई ऐतराज नहीं हो सकता, लेकिन वे जब भारत के प्रतिनिधि के रूप में किसी के साथ ‘डिनर पालटिक्स’ करते हैं तो टीका-टिप्पणी करना बेहद जरूरी हो जाता है।
तीसरी बार अल्पमत की सरकार के मुखिया बनने के बाद मोदी जी हमारे पुराने मित्र रूस में हैं। ये वो रूस नहीं है जो नेहरू और इन्दिरा गांधी के जमाने में हुआ करता था। वो जमाना था जब हम सब ‘मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंग्लिस्तानी, सर पर लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी’ गीत फक्र के साथ गाते थे। आज का रूस पुराना वाला रूस नहीं है। आज का रूस लोकतान्त्रिक और समाजवादी मूल्यों वाला रूस नहीं है। आज का रूस हिंसक रूस है, आततायी रूस है, आज का रूस नर-संहार करने वाला रूस है। उस रूस के साथ हमारे देश के प्रधानमंत्री जी उस समय डिनर पलटिक्स करें, जब डिनर से ठीक पहले रूस यूक्रेन के कीव शहर में बच्चों के सबसे बडे अस्पताल पर मिसाइल से हमला कर 24 लोगों को मौत के घाट उतार दिया, तो कुछ अजीब सा लगता है।
कार के पहिये के नीचे कुत्ते के पिल्ले का दबकर मरना और मिसाइल के हमले में दो दर्जन लोगों का मरना शायद एक जैसा होता हो, किन्तु मुझे व्यक्तिगत रूप से ये कुछ वीभत्स लगता है। भारत की गांधीवादी सोच इस हिंसक सोच के साथ तालमेल नहीं बैठा सकती, लेकिन माननीय का 56 इंच का सीना है। वे सब कुछ कर सकते हैं। वे डिनर की टेबिल पर बैठकर पडौस में मिसाइल के हमले में मरे गए लोगों का चीत्कार शायद नहीं सुन सकते। सनातनी भाषा में कहें तो रूस पर हत्याओं का सूतक लगा हुआ है। ऐसे में रूसी पानी पीना भी गुनाह है, डिनर तो बहुत बडी बात है।
भारत और रूस के साथ 22वीं शिखर वार्ता हो रही है, खुशी की बात है, ये वार्ताएं लगातार होते रहना चाहिए, लेकिन इन वार्ताओं के बीच भी भारत यूक्रेन युद्ध में हो रहे नर संहार के चलते कम से कम डिनर पलटिक्स से तौबा कर सकता था। उपवास का बहाना बनाया जा सकता था, किन्तु कूटनीति में शायद ये सब आसान नहीं होता। माननीय भी आखिर इससे कैसे बच सकते थे? उनके लिए बिछी हुई लाशों का कोई अर्थ नहीं है, फिर चाहे वे कीव में बिछी हों या हाथरस के पास किस गांव में या मणिपुर में। माननीय ‘लाश-प्रूफ’ नेता हैं।
ये सच है कि मैं स्वर्गीय वेदप्रताप वैदिक जैसा विदेशनीति का जानकार नहीं हूं, किन्तु मुझे गांधीवाद का थोडा-थोडा पता है। मैं यदि माननीय की जगह होता तो शायद इस शिखर वार्ता में जाने का बहाना खोज लेता या कहता कि जब रूस युद्ध से फारिग हो जाएगा तब वार्ता कर लेंगे, लेकिन हाय री किस्मत कि मैं वो नहीं हो सकता जो माननीय हैं। निश्चित ही मैं उन हालत में कोई डिनर-सिनर नहीं कर सकता जब की वातावरण में बारूदी गंध हो और पडौस में लाशों कि अम्बार लगे हों।
आज का रूस कल का रूस नहीं है, आज का रूस भारतीय प्रधानमंत्री का भी उसी गर्मजोशी से स्वागत करता है जितना कि चीन कि प्रधानमंत्री का। आज का रूस बदला हुआ रूस है, आज के रूस के साथ कल के भारत की तरह हाथ नहीं मिलाया जा सकता। आज का रूस, आज के भारत के साथ हाथ मिला रहा है। आज के रूस के नेताओं की और भारत कि नेताओं की रुचियां, प्रवृत्तियां एक जैसी हैं। रूस के राष्ट्रपति पुतिन जिस तरह से सत्ता पर काबिज हैं उसी तरह से हमारे माननीय भी सत्ता पर काबिज हैं। देश की जनता ने उन्हें सत्ता में रहने का जनादेश नहीं दिया है, लेकिन वे बैशाखियों कि सहारे सत्ता में हैं, इसलिए उन्हें हक है कि वे किसी भी पडौसी या दूसरे देश के साथ जैसा चाहें व्यवहार करें। हमें उनकी हर विदेश यात्रा की कामयाबी की कामना करना ही पडेगी, अन्यथा हमारे ऊपर कोई भी लांछन लगाया जा सकता है।
आप तय मानिये कि हम रूस के साथ भारत के रिश्तों को लेकर हमेशा उत्सुक रहे हैं। हमारे रूस के साथ पुश्तैनी रिश्ते हैं, लेकिन आज रूस और भारत दोनों कि रिश्तों में पहले जैसी बात नहीं है। रूस भी पहले जैसा रूस नहीं है। आज के रूस का चरित्र चीन के विस्तारवादी चरित्र से मिलता जुलता है। रूस अमेरिका की तरह शक्ति-प्रदर्शन करने वाला देश है। उसका मानवाधिकारों से ज्यादा कुछ लेना-देना नहीं है। यदि होता तो उसकी मिसाइलें कम से कम कीव में बच्चों के अस्पताल को तो बख्श देतीं।
मुझे नहीं लगता कि बैशाखियों के सहारे सरकार चला रहे हमारे माननीय यूक्रेन मुद्दे पर रूस से खुलकर बात कर पाएंगे। भारत यदि रूस को यूक्रेन पर हमला करने से रोक पाए तो मैं भारत और रूस की डिनर पालटिक्स को कामयाब मानूंगा। अन्यथा रूस के साथ भारत के कारोबारी रिश्ते तो पहले से हैं ही। हम रूस से हथियारों के साथ और न जाने क्या-क्या खरीदते और बेचते हैं। इससे हमारे रिश्तों में कुछ नयापन आने वाला नहीं है। मुश्किल ये है कि हम अपने देश में ही मानवाधिकारों की रक्षा नहीं कर पा रहे हैं, ऐसे में रूस से किस मुंह से यूक्रेन पर हमला न करने के लिए कह सकते हैं? हमारा मणिपुर आज भी जल रहा है, हमारा कश्मीर आज भी आतंकित है, वहां आज भी गोलियां चल रही हैं।
बहरहाल हम एक भारतवासी होने के नाते उम्मीद करते हैं कि हमारे माननीय अपनी रूस और आस्ट्रिया यात्रा से खाली हाथ वापस नहीं लौटेंगे। वे जिस तरह से रूसी मीडिया से मुखातिब हुए हैं स्वदेश लौटकर भारतीय मीडिया से भी मुखातिब होंगे। आगामी 23 जुलाई से शुरू होने वाली संसद को भी बताएंगे कि वे अपनी विदेश यात्राओं से क्या हांसिल कर आए हैं?