साफ है मुन्ना पर भरोसे का मतलब

– राकेश अचल


राजनीति में सिर्फ पप्पू ही नहीं होते, बल्कि मुन्ना भी होते हैं। दोनों के साथ किस्मत कदम से कदम मिलकर चलती है। आप इसे पहेली नहीं बल्कि हकीकत समझिये। कांग्रेस में यदि राहुल गांधी पप्पू हैं तो भाजपा में केन्द्रीय मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर मुन्ना हैं। ऐसे मुन्ना जो सभी को पसंद हैं, क्योंकि मुन्ना न ज्यादा बोलते हैं और न रूठते हैं। गोल-मटोल तो वे हैं ही। कोई उन्हें अपना शत्रु मानता हो तो मानता रहे, लेकिन वे हैं अजातशत्रु, यानि सबके प्रिय। उनकी मितभाषिता की वजह से कोई आसानी से उनके भीतर झांक ही नहीं सकता, आंकना तो दूर की बात समझिये।
मुन्ना उर्फ नरेन्द्र सिंह तोमर को भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व ने मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए प्रभारी बनाया तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की बांछें खिल गईं, लेकिन ग्वालियर के जयविलास महल में खामोशी छा गई। मुन्ना महल के विरोधी नहीं हैं, लेकिन उन्हें घोषित महल समर्थक भी नहीं कहा जा सकता, भले ही उनकी उत्पत्ति का स्थान महल ही है। लेकिन वे जयविलास पैलेस में नहीं रानी महल के समर्थक रहे हैं। तब रानीमहल में स्व. राजमाता विजयाराजे सिंधिया की सत्ता थी।
मुन्ना यानि नरेन्द्र सिंह तोमर को मप्र की चुनाव अभियान समिति का प्रमुख बनाए जाने के मायने समझने से पहले आपको मुन्ना के बारे में समझना होगा। मुन्ना भाजपा में दल-बदल कर नहीं आए। वे भाजपा के किचिन गार्डन का अपना उत्पाद हैं। 66 साल के मुन्ना छात्र राजनीति से होते हुए पहली बार भाजयुमो के मण्डल अध्यक्ष बने। 1983 में पार्षद बने और फिर उन्होंने पीछे मुडकर नहीं देखा। मुन्ना 1996 में युवामोर्चा के प्रदेशाध्यक्ष बनाए गए। तोमर पहली बार 1998 में ग्वालियर से विधायक निर्वाचित हुए और इसी क्षेत्र से वर्ष 2003 में दूसरी बार चुनाव जीता। इस दौरान वे सुश्री उमा भारती, बाबूलाल गौर और शिवराज सिंह चौहान मंत्रिमण्डल में कई महत्वपूर्ण विभागों के मंत्री भी रहे। साल दर साल भाजपा में मुन्ना यानि नरेन्द्र सिंह तोमर की उपयोगिता बढ़ती गई। तोमर वर्ष 2008 में भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष पद पर निर्वाचित हुए और उसके बाद वे 15 जनवरी 2009 में राज्यसभा सदस्य चुने गए। बाद में वे पार्टी के राष्ट्रीय महामंत्री पद पर रहे। तोमर एक बार फिर 16 दिसंबर 2012 को पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष बनाए गए।
मुन्ना हार कर भी जीतने वाले नेताओं में से हैं। उन्हें पार्टी ने जिस मोर्चे पर तैनात किया उस मोर्चे को फतह करके ही लौटे, लेकिन मप्र का मुख्यमंत्री पद उनके हिस्से में कभी नहीं आया। मुन्ना मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के जोडीदार और संकटमोचक बने रहे। मुन्ना पहली बार पहली बार प्रदेश के ग्वालियर संसदीय क्षेत्र से वर्ष 2009 में लोकसभा सदस्य निर्वाचित हुए थे। तोमर इस बार मुरैना लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से सांसद निर्वाचित हुए हैं। मुन्ना नॉटआउट राजनीतिक खिलाडी हैं। इस समय वे मुरैना के सांसद हैं। 2016 से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की टीम का हिस्सा है। देश के इतिहास के सबसे लम्बे किसान आंदोलन के बावजूद मुन्ना को मंत्रिमण्डल से बेदखल नहीं किया गया।
मुन्ना आज अपने गृहनगर ग्वालियर में दल-बदल कर भाजपा में आए केन्द्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए सबसे बडी चुनौती हैं। एक जमाने के सडक छाप मुन्ना आज हर हैसियत में सिंधिया के बराबर हैं, भले ही उनके पास कोई जयविलास पैलेस नहीं है। मुन्ना का अपना जातीय आधार भी है, लेकिन वे उस पर आश्रित नहीं है। आप हैरान न हों यदि मुन्ना यानि नरेन्द्र सिंह तोमर विधानसभा चुनाव के बाद होने वाले लोकसभा चुनाव में अपने गृह क्षेत्र मुरैना से लडने के बजाय बोरी-बिस्तर बांधकर भोपाल न पहुंच जाएं। मुन्ना को मुरैना पर अब यकीन नहीं है, क्योंकि राजनीतिक स्थितियां तेजी से बदल रही हैं। मुन्ना ग्वालियर से भी लोकसभा का चुनाव लडने से हिचकिचा रहे हैं।
बहरहाल बात मुन्ना को भाजपा की प्रदेश चुनाव अभियान समिति का प्रमुख बनाए जाने की है। मुन्ना के आने से एक तो शिवराज सिंह चौहान के खिलाफ पार्टी में बढ़ रहे असंतोष को रोका जा सकेगा, क्योंकि मुन्ना पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष वीडी शर्मा के मुकाबले कार्यकार्ताओं से बेहतर संपर्क बनाने वाले नेता हैं। उनका कायकर्ताओं से सीधा संवाद भी है। मुन्ना अगर नाराज भाजपा कार्यकर्ताओं को मनाने में कामयाब रहते हैं तो महाराज की भाजपा भी शिवराज का कुछ नहीं बिगाड पाएगी। शिवराज को इस समय नाराज भाजपा और महाराज भाजपा से ही सबसे ज्यादा खतरा है। प्रदेशाध्यक्ष वीडी शर्मा इस खतरे को टालने में कामयाब नजर नहीं आ रहे हैं।
मप्र में राजनीतिक हालात 2018 के विधानसभा चुनाव जैसे ही हैं, यानि भाजपा के लिए चुनाव जीतना बहुत आसान काम नहीं है। कांग्रेस का असंतोष अब भाजपा में जगह बना चुका है। बीते तीन साल में भाजपा का आंतरिक असंतोष घटने के बजाय बढ़ा है। ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में आने के बाद असंतोष की नई लहर उभरी है। इसे खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान कम नहीं कर पा रहे। अब मुन्ना इस असंतोष को दूर करने की कोशिश कर सकते हैं। इस कोशिश के चलते उन्हें अपने पुराने साथियों की इमदाद भी करना पडेगी। मुमकिन है कि वे शिवराज से नाराज अजय विश्नोई, अनूप मिश्रा और कैलाश विजयवर्गीय जैसे लोगों को भी समझा-बुझा लें।
भाजपा के मुन्ना के पास भले ही कांग्रेस के पप्पू की तरह चॉकलेटी चेहरा न हो, किन्तु वे पार्टी के एक धीर-गंभीर चरित्र जरूर हैं। वे पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच प्राध्यापकों की तरह पूरे 45 मिनिट की क्लास लेते हैं। उन्हें आंकडे कण्ठस्थ हैं। वे चीखते-चिल्लाते नहीं हैं और अपनी बात अपने ढंग से कार्यकर्ताओं तक पहुंचाने में दक्ष हैं। मान लीजिए कि भाजपा मुन्ना की जगह केन्द्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया को मप्र का चुनाव प्रभारी बना देती तो पार्टी का आंतरिक असंतोष कम होने की वजाय और बढ़ जाता। सिंधिया एक चुंबकीय व्यक्तित्व के मालिक जरूर हैं, लेकिन उनके पास मुन्ना यानि नरेन्द्र सिंह तोमर जैसा सांगठनिक अनुभव नहीं है। वे अधीर नेता हैं। सिंधिया छात्र जीवन से राजनीति में नहीं आए। वे पार्टी के दक्ष कार्यकर्ता भी नहीं हैं। उन्हें भाजपा में आए अभी जुम्मा-जुम्मा हुए ही कितने दिन हैं?
मुन्ना को कमान देने से शिवराज के साथ ही महाराज यानि ज्योतिरादित्य सिंधिया भी राहत महसूस करेंगे, क्योंकि मुन्ना से उनकी भले ही अघोषित प्रतिस्पर्धा हो किन्तु सीधा संवाद तो है ही। सिंधिया को परदे के पीछे से मुन्ना भी महाराज ही मानते हैं। मानें भी क्यों नहीं, आखिर ज्योतिरादित्य सिंधिया उसी महल के मौजूदा वारिस हैं जो कभी उनका संरक्षक था। विधानसभा चुनावों में उतरने से पूर्व डगमगा रही भाजपा की नाव को मुन्ना के चुनाव प्रभारी बनने से काफी मदद मिलेगी। मुन्ना के पास दो बार प्रदेश भाजपा अध्यक्ष रहने का जो अनुभव है वो पार्टी के बहुत काम आने वाला है। वे बीते दो दशक में भाजपा के सबसे ज्यादा कामयाब प्रदेश अध्यक्ष रहे। मौजूदा परिस्थितयों में भाजपा के पास मुन्ना से ज्यादा बेहतर विकल्प था भी नहीं।
नरेन्द्र सिंह तोमर उर्फ मुन्ना नसीब के मामले में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और केन्द्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया से इक्कीस ही बैठते हैं। कभी-कभी मुझे लगता है कि 2024 में मप्र के मुख्यमंत्री का पद मुन्ना के पास ही न आ जाए। आपको बता दें कि मुन्ना मप्र के मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गए थे। केन्द्रीय मंत्री राजनाथ सिंह ने मुन्ना को मप्र का मुख्यमंत्री बनाने के लिए बहुत कस-बल लगाया था, लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली। मुन्ना शपथ ग्रहण के लिए नया सूट बनवाए ही रह गए, हालांकि उन्हें बाद में केन्द्र में सम्मानजनक पद मिला। आप मान सकते हैं कि मुन्ना के प्रदेश की राजनीति में वापस लौटने से मौजूदा चुनावी और राजनीतिक परिदृश्य पर कुछ न कुछ असर तो पडेगा ही। क्योंकि आखिर मुन्ना भाजपा के मुन्ना हैं, पप्पू नहीं।