– राकेश अचल
देश के भाजपा शासित राज्यों में बुलडोजर न्याय एक बार फिर से चर्चा में है। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में बुलडोजर के जरिए त्वरित न्याय देने की गैरकानूनी कोशिश की गई है। कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी की टिप्पणी ने इस तरीके की वजह से मप्र की सरकार को आडे हाथों लिया है। अब सवाल ये है कि हमारी सरकारें अपराध होने के बाद अपराधियों को सजा देना चाहती हैं या अपनी खीज मिटाना चाहती हैं। संयोग से बुलडोजर का शिकार देश के अल्पसंख्यक ही हुए हैं।
प्रियंका गांधी द्वारा ‘बुलडोजर न्याय’ को अस्वीकार्य बताए जाने पर मप्र के मुख्यमंत्री मोहन यादव ने शनिवार को अपनी प्रतिक्रिया दी है। उन्होंने कहा कि कोई भी शख्स कानून से बडा नहीं है और जो भी ये तोड रहे हैं उनके खिलाफ संविधान के तहत कार्रवाई हो रही है। अब मुख्यमंत्री को ये जानने की जरूरत है कि कार्रवाई संविधान के तहत नहीं बल्कि न्याय विधान के तहत की जाती है। बुलडोजर संहिता का जिक्र देश के संविधान में तो कहीं है नहीं।
मप्र ने बुलडोजर संहिता शायद उप्र से सीखी है। उप्र में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली सरकार ने दस साल पहले बुलडोजर का इस्तेमाल अपराधियों के खिलाफ शुरू किया था, हालांकि इस बुलडोजर संहिता को देश की किसी संसद या विधानसभा ने पारित नहीं किया है। भाजपा शासित सरकारों ने भू-माफिया की कमर तोडने के साथ ही, बलात्कार, हत्या जैसे अपराधों के बाद बुलडोजर के जरिए आरोपियों की स्थावर संपत्ति को बुलडोज करने की मुहिम शुरू की थी।
बुलडोजर संहिता का इस्तेमाल करने वाली भाजपा सरकारों का तर्क होता है कि अपराधियों की स्थावर संपत्ति सरकारी जमीनों पर अवैध रूप से बनाई गई है इसलिए उसे तोडा जाता है। सरकार से कोई ये नहीं पूछा कि जब कोई सरकारी भूमि पर अतिक्रमण कर निर्माण कर रहा होता है, तब सरकार कहां होती है? सरकार की आंख तभी क्यों खुलती है जब संपत्ति का मालिक किसी अपराध में आरोपी बना दिया जाता है? उप्र में बुलडोजर का इस्तेमाल व्यक्ति विशेष के साथ ही सामूहिक रूप से भी किया गया और किया जा रहा है। हाल ही में अयोध्या और कन्नौज में बुलडोजर चले। मप्र के छतरपुर में अपराधियों कहें या आरोपियों के खिलाफ बुलडोजर का इस्तेमाल किया गया। देवयोग से बुलडोजर का शिकार सभी लोग गैर भाजपाई निकले।
मप्र में 19 महीने की कांग्रेस सरकार ने भी बुलडोजर का इस्तेमाल किया था, लेकिन कांग्रेस की कमलनाथ सरकार ने बुलडोजर केवल और केवल भू-माफिया के खिलाफ चलाया था और उसे अच्छा जनसमर्थन मिला था। कांग्रेस के बुल्डोजर ने भाजपा समर्थित भू-माफिया को निशाना बनाया था, किन्तु भाजपा सरकारों के बुल्डोजर केवल और केवल अल्पसंख्यकों को अपना निशाना बना रही है, इसलिए उसे जन समर्थन नहीं मिल रहा। आम धारणा ये है कि ये भाजपा सरकारों की देश की मौजूदा न्याय व्यवस्था के समानांतर तालिबानी न्याय व्यवस्था की स्थापना करने की कोशिश घातक है। आपको याद होगा कि अफगानिस्तान में तालबानियों ने बामियान की बुद्ध मूर्तियों को बारूद से उडा दिया था।
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में समानांतर न्याय व्यवस्था से समाज में लगातार असंतोष बढ़ता जा रहा है और अब ये व्यवस्था राजनीतिक मुद्दा बन रहा है। उप्र में तो अल्प संख्यकों की पूरी एक बस्ती को एक सरकारी योजना के नाम पर जमीदोज कर दिया गया। उत्तराखण्ड में भी भाजपा सरकार ने अल्पसंख्यकों के खिलाफ बुलडोजर का इस्तेमाल किया। दरअसल बुल्डोजर का काम विध्वंश का है ही नहीं। उसे जिस काम के लिए बनाया गया है वो काम उससे न लेकर सरकारें इस भारी-भरकम मशीन के जरिए समुदाय विशेष के खिलाफ बदले की कार्रवाई कर रही है। मप्र की बुलडोजर प्रेमी तत्कालीन शिवतराज सिंह सरकार ने ग्वालियर में एक बलात्कार के आरोपी के खिलाफ तमाम दबाबों के बावजूद बुलडोजर का इस्तेमाल नहीं किया, क्योंकि आरोपी भाजपा समर्थक और उच्च जाति का था।
बुलडोजर की आंखें नहीं होतीं। बुलडोजर का नियंत्रण एक चालक के हाथ में होता है और बुलडोजर का चालक सरकारी मुलाजिम होता है। उसकी कमान सरकार के हाथ में होती है। सरकार अपनी गलतियों को छिपाने के लिए बुलडोजर का इस्तेमाल करती है। हर प्रदेश में सरकारी जमीन पर अतिक्रमण करने की सामूहिक प्रवृत्ति है। लेकिन राजनीतिक रूप से प्रभुत्व संपन्न अतिक्रमण में सबसे आगे रहते हैं किन्तु उन्हें बुलडोजर नहीं पहचानता। अतिक्रमणकर्ताओं को सरकारें पहचानती हैं लेकिन ये पहचान भी तब होती है जब वे किसी अपराध में आरोपी बन जाते हैं। अंधे बुलडोजर ने अतीत में ऐसी संपत्तियों को भी बुलडोज कर दिया जो आरोपी की थी ही नहीं। आरोपी उनमें किराये से रहते थे। यानि आरोपी कोई और संपत्ति किसी और की, लेकिन उसे भी उसे भी नहीं बख्शा गया।
मुझे याद आता है कि ये ध्वंसात्मक प्रवृत्ति पहले नौकरशाही में थी, सरकार में नहीं। एक जमाने में मप्र के इंदौर शहर में राजनीतिक विरोधियों और भू-माफियाओं के खिलाफ ऐसी ही ध्वंसात्मक कार्रवाईयां की गई थीं। तब बुलडोजर का नहीं बल्कि बारूद का इस्तेमाल किया जाता था। तब मप्र में सरकार कांग्रेस की थी और उस कार्रवाई को जनसमर्थन भी खूब मिला था, क्योंकि तब सरकार के निशाने पर कोई जाति विशेष का व्यक्ति नहीं होता था। ग्वालियर में दशकों पहले पुलिस के एक सिपाही की हत्या के बाद तत्कालीन एसपी आसिफ इब्राहिम ने न सिर्फ आरोपी के घर में तोडफोड कराई थी बल्कि आरोपी को भी दिन दहाडे एक कथित मुठभेड में मार गिराया था। ये त्वरित न्याय है या तालिबानी न्याय? ये तय करना कल भी जरूरी था और आज भी जरूरी है। तकलीफ की बात ये है कि देश की अदालतें बुलडोजर सहिंता के इस्तेमाल के मामले में मौन साधे हुए हैं। मेरा निजी विचार ये है कि बुलडोजर संहिता एक असभ्य और गैरकानूनी विधा है। इस पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए, न कि इसे प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। यदि बुलडोजर ही न्यायाधीश बन जाएंगे तो आने वाले दिनों में अदालतों की जरूरत ही किसे होगी?