तो अब अदालत को भी पलटने का हक

– राकेश अचल


आरक्षण के मामले में शीर्ष न्यायालय के फैसले को लेकर नाना-प्रकार की प्रतिक्रियाएं आ रहीं है। कुछ लोग और राजनीतिक दल इस फैसले से खुश हैं तो कुछ नाखुश, क्योंकि अदालत ने अपने डेढ दशक पुराने फैसले को पलटते हुए कोटे के भीतर आरक्षण कोटा तय करने का अधिकार राज्यों को दे दिया है, शीर्ष अदालत का फैसला जहां आरक्षण विरोधी संघ, भाजपा और कुछ अन्य दलों के एजेंडों पर कुठाराघात है, वहीं कुछ दलों के लिए राजनीति चमकने का अवसर भी।
हमारे देश में जैसे जाति एक हकीकत है वैसे ही आरक्षण भी एक हकीकत है। आजादी के बाद से ही ये देश आरक्षण और जातियों के बीच झूल रहा है या कहिये पिस रहा है। कुछ लोग और दल चाहते हैं कि अब देश में जाति और जातिगत आरक्षण हमेशा के लिए समाप्त कर दिया जाए, क्योंकि ये दोनों ही बराबरी और विकास के सबसे बडे दुश्मन है। जबकि कुछ लोग चाहते हैं कि जब तक समाज में आर्थिक बराबरी न आ जाए तब तक जाति का तो पता नहीं किन्तु आरक्षण को बनाए रखना चाहिए। जाति को लेकर हमारे समाज की मान्यताएं भी भिन्न हैं। कोई कहता है कि ‘जाति न पूछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान’, तो कोई कहता है ‘जाति-पांत पूछे नहीं कोय, हरि को भजे सो हरि को होय।’ इसके बाद भी हमारी संसद में आज भी जाति पूछी जाती है और निर्ममता से पूछी जाती है।
बात एकदम ताजा है। शीर्ष अदालत (सुप्रीम कोर्ट) ने 2004 के ईवी चिन्नैया केस में दिए गए अपने ही फैसले को पलटते हुए कहा कि राज्यों को अजा-अजजा कैटिगरी में सब-क्लासिफिकेशन का अधिकार है। साथ ही कोर्ट ने कहा कि इसके लिए राज्य को डेटा से यह दिखाना होगा कि उस वर्ग का अपर्याप्त प्रतिनिधित्व है। जस्टिस बीआर गवई समेत चार जजों ने यह भी कहा कि अजा-अजजा कैटिगरी में भी क्रीमीलेयर का सिद्धांत लागू होना चाहिए। मौजूदा समय में क्रीमीलेयर का सिद्धांत सिर्फ ओबीसी में लागू है। सात जजों की बेंच ने 6-1 के बहुमत से फैसला सुनाया। जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी का फैसला अलग था।
अब सवाल ये है कि क्या नेताओं की तरह अदालतें भी अपने फैसले समयानुसार बदल सकती हैं? मेरे हिसाब से बिल्कुल बदल सकती हैं, क्योंकि फैसले व्यक्ति करते हैं, मशीनें नहीं। यदि शीर्ष अदालतों में फैसले मशीनें करती तो मुमकिन है कि वे अपने ही फैसले न बदलतीं, लेकिन जब व्यक्ति फैसले करते हैं तो उन्हें फैसले बदलने का हक है। क्योंकि कोई भी फैसला समीक्षा के योग्य होता है और सौ फीसदी सही नहीं होता। उसमें संशोधन की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है। अर्थात फैसले बदलने का हक केवल इस देश के नेताओं को ही नहीं अपितु अदालतों को भी है। वे जनमानस के मनोभावों के अनुरूप चलती हैं। कानून और साक्ष्य तथा तर्क-वितर्क अदालतों को फैसला करने में सहायक होते हैं।
याद कीजिए कि यही मामला जब पहले शीर्ष अदालत में आया था तब सुप्रीम कोर्ट सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्यों को सब-क्लासिफिकेशन करने की इजाजत नहीं है। लेकिन अब उसी सुप्रीम कोर्ट के छह जजों ने इस फैसले को पलट दिया। हालांकि, जस्टिस बेला त्रिवेदी ने छह जजों से असहमति जताई। चीफ जस्टिस की अगुआई वाली सात जजों की बेंच ने कहा है कि अनुसूचित जाति के सब-क्लासिफिकेशन से संविधान के अनुच्छेद-14 के तहत समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं होता है। साथ ही कहा कि इससे अनुच्छेद-341(2) का भी उल्लंघन नहीं होता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अनुच्छेद-15 और 16 में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो राज्यों को रिजर्वेशन के लिए जाति में सब-क्लासिफिकेशन से रोकता है।
सुप्रीम कोर्ट यानि शीर्ष अदालत शीर्ष ही होती है। वो बहुत सोच-विचार के बाद बहुमत से फैसले करती है। सुप्रीम कोर्ट में बहुमत चलता है, ध्वनिमत नहीं। सबको अपने फैसले करने का अधिकार है। सहमति के साथ ही असहमति का भी सम्मान किया जाता है। भले ही असहमति को सहमति के आगे नतमस्तक होना पडता है। फैसले करने का ये लोकतंत्र यदि हमारी संसद में भी हो तो न कोई किसी की जाति पूछे और न कोई किसी पर आखें तरेरे। लोकत्नत्र बहुमत से चलता है तानाशाही से नहीं।
शीर्ष अदालत ने अपना ही फैसला बदलने में पूरे बीस साल का समय लिया। इसलिए आप ये नहीं कह सकते कि ये फैसला जल्दबाजी का फैसला है। फैसला आखिर फैसला है। इसे अब केवल देश की संसद नया कानून बनाकर बदल सकती है और अतीत में सरकारें अदालतों के फैसलों के खिलाफ नए कानून बनाती रही हैं। इसीलिए अदालतों के फैसलों का कभी स्वागत किया जाता है तो कभी विरोध। इस फैसले का भी कुछ लोग विरोध कर रहे हैं और उनके अपने तर्क भी है। संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अम्बेडकर के पौत्र प्रकाश अम्बेडकर को शीर्ष अदालत का ये फैसला अच्छा नहीं लगा। वे कहते हैं कि अदालतों को अजा-अजजा के वर्गीकरण का अधिकार नहीं है। ये काम संसद ही कर सकती है।
डॉ. भीमराव अम्बेडकर के पौत्र प्रकाश वंचित अघाडी पार्टी चलाते हैं। लेकिन वे आरक्षण विशेषज्ञ भी हैं, ऐसा मैं नहीं मानता। बाबा साहब के पौत्र होने का अर्थ प्रकाश का भी संविधान विशेषज्ञ होना नहीं है। वे राजनीतिक दृष्टि से सोचते हैं। जिस दिन उनका बहुमत संसद में हो जाएगा, वे शीर्ष अदालत का फैसला बदलने या बदलवाने के लिए स्वतंत्र होंगे। फिलहाल तो शीर्ष अदालत के इस फैसले से ‘कहीं खुशी, कहीं गम’ का माहौल है। ऐसा होता है। जैसे श्रीकृष्ण जन्मभूमि के विवाद में आए इलाहबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद भी हुआ है।
आरक्षण के मुद्दे पर राजनीतिक दल हों या दलों को राजनीति सीखने वाले संघ, अपनी सुविधानुसार रंग बदलते आए हैं। जो आरएसएस कभी आरक्षण का प्रबल विरोध करता है वो ही संघ आरक्षण का समर्थन करने लगता है। यही हाल सत्तारूढ भाजपा और अन्य दलों का है। इसलिए कम से कम मैं तो शीर्ष अदालत के फैसले से मुतमईन हूं। मैं जानता हूं कि शीर्ष अदालत के इस ताजा फैसले के बाद भी राजनितिक दल और नौकरशाही बीच का कोई रास्ता निकल कर अपना उल्लू सीधा करने की कोशिश जरूर करेंगे। ये उनका काम है। अदालत ने अपना काम किया है। आरक्षण की मलाई और छाछ को लेकर ये द्वंद भी उतना ही सनातन हो चुका है जितनी सनातन हमारी आरक्षण विरोधी और समर्थक राजनीति। इसके फायदे भी हैं और नुक्सान भी।