समर्पण का प्रतिरूप ‘स्त्री’

आशीष शर्मा, भिण्ड

उठती है नित सूरज से पहले घर आंगन स्वच्छ बनाती है,
निराहार न बाहर जाए कोई नित नए पकवान बनाती है।
यदि हों घर के संसाधन सीमित नहीं कभी घबराती है,
रखकर लक्ष्मी का रूप स्वयं वह सदैव संग निभाती है।
लाख निकाले कमियां अपना कोई नहीं कभी प्रतिकार किया,
सह लेती हर भूल हमारी हर हाल में हमें स्वीकार किया।
कर्तव्य चरित्र परिश्रम और उदारता जिसके आभूषण हैं,
होती है रोज घरेलू हिंसा फिर भी करते अपने ही शोषण हैं।
घर में ही झेलती लिंगभेद को फिर भी प्यार लुटाती है,
धरती पर है जो प्रतिरूप समर्पण का वह स्त्री कहलाती है।