@ राकेश अचल
अब समय आ गया है जब हमें अपना ककहरा बदल देना चाहिए। अब ‘अ’ से अदालत और ‘स’ से सारस पढ़ाने का वक्त आ गया है। क्योंकि अब हमारी अदालतें नए जूनून के साथ फैसले सुना रही हैं। उनके लिए कांग्रेस का नेता राहुल गांधी और पूर्व सांसद अतीक अहमद एक समान है। अदालतों के फैसलों पर उंगली उठाना भी माननीय प्रधानमंत्री जी के मुताबिक़ अब ठीक नहीं। वे इसे संवैधानिक संस्थाओं पर हमला मानते हैं।
मार्च का महीना इस साल बड़ा महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस महीने में मानहानि के एक मामले में कांग्रेस सांसद राहुल गांधी को दो साल की सजा सुनाई गई और इसी के चलते दो मिनिट में उनकी सांसदी चली गई। सांसदी ही नहीं गई बल्कि उनसे सांसद के नाते मिला सरकारी बंगला खाली करने के लिए भी कह दिया गया। भला एक सजायाफ्ता आदमी सरकारी बंगले में कैसे रह सकता है, ये बात और है कि ये सजा अभी भी चुनौती के दायरे में है और शायद इसे चुनौती दी भी जा रही है।
दूसरा मामला अतीक अहमद का है। अतीक बाहुबली होने का प्रतीक बन चुका था, उसने बाहुबल के बूते ही विधानसभा से लेकर संसद तक का सफर तय किया और अब एक गवाह के अपहरण के मामलमें सजा पा चुका है। अदालत ने उसकी दलीलें खारिज कर दीं। अब अतीक भी राहुल की तरह चुनाव नहीं लड़ सकता, हां कानूनी लड़ाई लड़ने का विकल्प उसके पास भी बाक़ी है। अतीक के बाजुओं का जोर पिछले 19 मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल में भी कम नहीं हुआ किन्तु योगी आदित्यनाथ ने अतीक को नाथने में कामयाबी हासिल कर ली।
दरअसल मैं राहुल गांधी और अतीक की तुलना नहीं कर रहा। एक बाहुबली है और दूसरा भारत जोड़ो यात्रा का यात्री। दोनों में तुलना हो भी नहीं सकती। हां तुलना का एक बिंदु नसीब है। दोनों का नसीब इन दिनों खराब चल रहा है। दोनों अब चुनाव नहीं लड़ सकते। अब बड़ी अदालतें और नसीब दोनों साथ दें तो अलग बात है, अलबत्ता जो ओना था सो हो चुका। भारत में माननीय प्रधानमंत्री जी को छोड़कर कोई दूसरा अतुलनीय है भी नहीं। होना भी नहीं चाहिए।
तीसरा मामला है अमेठी के आरिफ का। आरिफ और एक घायल सारस की दोस्ती हमारे क़ानून को समझ में नहीं आई। क़ानून ने आरिफ और सारस को अलग-अलग कर दिया। अब सारस खाना-पीना छोड़कर बैठा है लेकिन क़ानून को सारस की भूख हड़ताल से कोई लेना देना नहीं है। घायल सारस की तीमारदारी करना और फिर इस रिश्ते को दोस्ती में बदलना हमारा क़ानून बर्दाश्त नहीं कर सकता। कायदे से आरिफ को सारस की तीमारदारी करने के बजाय उसका कीमा बना लेना चाहिए था। लेकिन आरिफ ने ऐसा नहीं किया। आरिफ गौतम बुद्ध बनने चला था। अब सारस और आरिफ दोनों तड़प रहे हैं, किन्तु क़ानून को दोनों पर दया नहीं आ रही। जंगलात के अफसर क़ानून से बंधे हैं। देश में क़ानून का राज है।
देश में बहुत दिनों बाद [शायद आजादी के 67 साल बाद] क़ानून का राज कायम हुआ है। इस राज में हमारे क़ानून मंत्री देश के प्रधान न्यायाधीश को भी आंखें दिखा सकते हैं, क़ानून के इस राज में ईडी जैसी संस्थाएं सत्तारूढ़ दल के किसी भी नेता या व्यवसायी की और आंख उठाकर भी नहीं देख सकती। किसी की हिम्मत नहीं कि वो हमारे राष्ट्रभूषण गौतम अडानी साहब से एक मिनिट की भी पूछताछ कर दिखाए। क़ानून के राज में बीमार, लाचार नेता जरूर घंटों पूछताछ के लिए विवश हैं। बहरहाल अगर क़ानून के राज पर उंगली उठाई गई तो मुमकिन है कि माननीय को अपने अगले भाषण में इस विषय पर भी बोलना पड़े।
लोकतंत्र की मजबूती के लिए क़ानून का राज बहुत जरूरी है। विपक्ष लाख शोर मचाये कि लोकतंत्र खतरे में है किन्तु मैं ऐसा नहीं मानत। मेरी मान्यता है कि देश में विपक्ष नहीं, विपक्षी नेता खतरे में हैं। उनके वजूद को खतरा है। विपक्ष के वजूद का खतरा राष्ट्रीय संकट नहीं है। हमारा लोकतंत्र बिना विपक्ष के भी तो ज़िंदा रह सकता है! हमारी संसद को विपक्ष की जरूरत ही कब-कब महसूस होती है ? हमारी संसद हो या विधानसभाएं सब ध्वनिमत से चलती हैं। बड़े से बड़े विधेयक और यहां तक की बजट तक ध्वनिमत से पारित हो जाते हैं।
कुल जमा किस्सा कोताह ये है कि देश को माननीय की बात मानना चाहिए। अदालतों के फैसलों पर उंगली नहीं उठाना चाहिए। मान लेना चाहिए कि अब छोटी अदालतों के फैसले ही अंतिम है। उनके खिलाफ बोलना या अपील करना राष्ट्रद्रोह है। हम भारतीयों को इससे बचना चाहिए। हमारे लिए क़ानून की रक्षा बड़ी बात है। हम सारस और आरिफ की दोस्ती के लिए काम नहीं कर सकते। ऐसे काम क़ानून के राज में बाधा डालते हैं। हमारे कानून दोस्ती को नहीं, सारस को बचाना चाहते हैं। हमारे क़ानून अपराधियों को चुनावी राजनीति से अलग करना चाहते हैं, फिर अपराध चाहे जुबान से किया गया हो या पिस्तौल से। अपराध तो अपराध है।